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कल्याणमन्दिर-स्तोत्र-हिंदी
आ. कुमुदचंद्र कृत संस्कृत पाठ का हिंदी रूपांतर

तर्ज : आओ बच्चों तुम्हे दिखाएं
जिसने राग द्वेष कामादिक जीते
फूल तुम्हें भेजा है ख़त में



(कुसुमलता छंद)
पारस प्रभु कल्याण के मंदिर, निज-पर पाप विनाशक हैं
अति उदार हैं भयाकुलित, मानव के लिए अभयप्रद हैं ॥
भवसमुद्र में पतितजनों के, लिए एक अवलम्बन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥१॥

सागर सम गंभीर गुणों से, अनुपम हैं जो तीर्थंकर
सुरगुरु भी जिनकी महिमा को, कह न सके वे क्षेमंकर ॥
महाप्रतापी कमठासुर का, मान किया प्रभु खण्डन है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥२॥

दिवाअन्ध ज्यों कौशिक शिशु नहिं, सूर्य का वर्णन कर सकता
वैसे ही मुझ सम अज्ञानी, कैसे प्रभु गुण कह सकता ॥
सूर्य बिम्ब सम जगमग-जगमग, जिनवर का मुखमंडल है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥३॥

प्रलय अनंतर स्वच्छ सिन्धु में, भी ज्यों रत्न न गिन सकते
वैसे ही तव क्षीणमोह के, गुण अनंत नहिं गिन सकते ॥
उनके क्षायिक गुण कहने में, पुद्गल शब्द न सक्षम हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥४॥

शिशु निज कर फैलाकर जैसे, बतलाता सागर का माप
वैसे ही हम शक्तिहीन नर, कर लेते हैं व्यर्थ प्रलाप ॥
सच तो प्रभु गुणरत्नखान अरु, अतिशायी सुन्दर तन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥५॥

बड़े-बड़े योगी भी जिनके, गुणवर्णन में नहिं सक्षम
तब अबोध बालक सम मैं, कैसे कर सकता भला कथन ॥
फिर भी पक्षीसम वाणी से, करूँ पुण्य का अर्जन मैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥६॥

जलाशयों की जलकणयुत, वायू भी जैसे सुखकारी
ग्रीष्मवायु से थके पथिक के, लिए वही है श्रमहारी ॥
वैसे ही प्रभुनाम मंत्र भी, मात्र हमारा संबल है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥७॥

जो नर मनमंदिर में अपने, प्रभु का वास कराते हैं
उनके कर्मों के दृढ़तर, बंधन ढीले पड़ जाते हैं ॥
चंदन तरु लिपटे भुजंग के, लिए मयूर वचन सम हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥८॥

ग्वाले के दिखते ही जैसे, चोर पशूधन तज जाते
वैसे ही तव मुद्रा लखकर, पाप शीघ्र ही भग जाते ॥
कैसा हो संकट समक्ष प्रभु, ही हरने में सक्षम हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥९॥

भवपयोधितारक हे जिनवर! तुम्हें हृदय में धारण कर
तिर सकते हैं जैसे पवन, सहित तिरती है चर्ममसक ॥
इसीलिए भवसागर तिरने, में कारण प्रभु चिन्तन है
ऐेसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥१०॥

हे अनङ्गविजयिन्! हरिहर, आदिक भी जिससे हार गये
कामदेव के वे प्रहार भी, तुम सम्मुख आ हार गये ॥
दावानल शांती में जल सम, प्रभु इन्द्रियजित् सक्षम हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥११॥

हे त्रैलोक्यतिलक! जिसकी, तुलना न किसी से हो सकती
उन अनंत गुणभार को मन में, धर जनता कैसे तिरती ॥
किन्तु यही आश्चर्य हुआ, तिरते जिनवर भाक्तिकजन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥१२॥

प्रभो! क्रोध को प्रथम जीतकर, कर्मचोर कैसे जीता?
प्रश्न उठा मन में बस केवल, इसीलिए तुमसे पूछा ॥
उत्तर आया हिम तुषार ज्यों, जला सके वन-उपवन है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥१३॥

हे जिनवर! योगीजन तुमको, हृदयकोष के मध्य रखें
वैसे ही ज्यों कमल कर्णिका, कमलबीज को संग रखे ॥
शुद्धात्मा के अन्वेषण में, हृदय कमल ही माध्यम है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥१४॥

हे जिनेश! तव ध्यानमात्र से, परमातम पद पाते जीव
अग्निनिमित पा करके जैसे, सोना बनता शुद्ध सदैव ॥
ऐसी शक्ती देने में निज, ज्ञानपुञ्ज ही सक्षम है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥१५॥

जिस काया के मध्य भव्यजन, सदा आपका ध्यान करें
उस काया का ही विनाश, क्यों करते हो भगवान्! अरे ॥
अथवा उचित यही जो विग्रह-तन तजते बन भगवन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥१६॥

हे जिनेन्द्र! मंत्रादिक से, जैसे जल अमृत बन जाता
विषविकार हरने में सक्षम, वह परमौषधि कहलाता ॥
इसी तरह तुमको ध्याकर, तुम सम बनते योगीजन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥१७॥

जैसे कामलरोगी को, दिखती पीली वस्तू सब हैं
वैसे ही अज्ञानी को, प्रभुवर दिखते हरिहर सम हैं ॥
हे त्रिभुवनपति! फिर भी वे, करते तेरी ही पूजन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥१८॥

हे प्रभु पुण्य गुणों के आकर! तव महिमा का क्या कहना
तरु भी शोकरहित तुम ढिग हों, फिर मानव का क्या कहना ॥
रवि प्रगटित होते ही जैसे, कमल आदि खिलते सब हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥१९॥

हे मुनीश! सुरपुष्पवृष्टि, जो तेरे ऊपर होती है
उनकी डंठल नीचे अरु, ऊपर पंखुरियाँ होती हैं ॥
यही सूचना है कि भव्य के, प्रभु ढिग खुलते बन्धन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥२०॥

तव गंभीर हृदय उदधी से, समुत्पन्न जो दिव्यध्वनी
अमृततुल्य समझकर भविजन, पीकर बनते अतुलगुणी ॥
सबकी भव बाधा हरने में, जिनवर गुण ही साधन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है ॥२१॥

देवों द्वारा ढुरते चामर, जब नीचे-ऊपर जाते
विनयभाव वे भव्यजनों को, मानो करना सिखलाते ॥
प्रातिहार्य यह प्रगटित कर, बन गये नाथ अब भगवन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥२२॥

स्वर्ण-रत्नमय सिंहासन पर, श्यामवर्ण प्रभु जब राजें
स्वर्ण मेरु पर कृष्ण मेघ लख, मानों मोर स्वयं नाचें ॥
इसी तरह जिनवर सम्मुख, आल्हादित होते भविजन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥२३॥

तव भामण्डल प्रभ से जब, तरुवर अशोक भी कान्तिविहीन
हो जाता है तब बोलो क्यों?, भव्यराग नहिं होगा क्षीण ॥
वीतरागता के इस अतिशय, से लाभान्वित भविजन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥२४॥

हे प्रभु! देवदुन्दुभी बाजे, जब त्रिलोक में बजते हैं
तब असंख्य देवों-मनुजों को, वे आमंत्रित करते हैं ॥
तज प्रमाद शिवपुर यात्रा, करना चाहें तब भविजन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥२५॥

तीन छत्र हे नाथ! चन्द्रमा, मानो स्वयं बना आकर
निज अधिकार पुन: लेने को, सेवा में वह है तत्पर ॥
छत्रों के मोती बन मानो, ग्रह भी करते वंदन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥२६॥

समवसरण में माणिक-सोने-चांदी के त्रय कोट बने
माना नाथ! तुम्हारी कांती-कीर्ती और प्रताप इन्हें ॥
जन्मजात वैरी के भी, हो जाते मैत्रीयुत मन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥२७॥

प्रभु! इन्द्रों के नत मुकुटों की, पुष्पमालिका कहती हैं
तव पद का सामीप्य प्राप्त कर, प्रगट हुई जो भक्ती है ॥
इसका अर्थ समझिये प्रभु से, जुड़े सभी अन्तर्मन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥२८॥

हे कृपालु! जिस तरह अधोमुखि, पका घड़ा करता नदि पार
कर्मपाक से रहित प्रभो! त्यों ही तुम करते भवि भवपार ॥
इस उपकारमयी प्रकृति का, जिनमें अति आकर्षण है ॥
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥२९॥

हे जगपालक! तुम त्रिलोकपति, हो फिर भी निर्धन दिखते
अक्षरयुत हो लेखरहित, अज्ञानी हो ज्ञानी दिखते ॥
शब्द विरोधी अलंकार हैं, प्रभु तो गुण के उपवन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३०॥

हे जितशत्रु! कमठ वैरी ने, तुम पर बहु उपसर्ग किया
किन्तु विफल हो कर्म रजों से, कमठ स्वयं ही जकड़ गया ॥
कर न सका कुछ अहित चूँकि, ध्यानस्थ हुए जब भगवन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३१॥

हे बलशाली! तुम पर मूसल-धारा दैत्य ने बरसाई
भीम भयंकर बिजली की, गर्जना उसी ने करवाई ॥
खोटे कर्म बंधे उसके पर, जिनवर तो निश्चल तन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३२॥

केशविकृत मृतमुंडमाल धर, कंठ रूप विकराल किया
अग्नीज्वाला फैक-फैककर, विषधर सम मुख लाल किया ॥
क्रूर दैत्यकृत इन कष्टों से, भी नहिं प्रभु विचलित मन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३३॥

हे प्रभु! अन्यकार्य तज जो जन, तव पद आराधन करते
भक्ति भरित पुलकित मन से, त्रय संध्या में तुमको यजते ॥
धन्य-धन्य वे ही इस जग में, धन्य तुम्हारा दर्शन है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३४॥

इस भव सागर में प्रभु! तेरा, पुण्यनाम नहिं सुन पाये
इसीलिए संसार जलधि में, बहुत दु:ख हमने पाये ॥
जिनका नाम मंत्र जपने से, खुल जाते भवबंधन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३५॥

हे जिन! पूर्व भवों में शायद, चरणयुगल तव नहिं अर्चे
तभी आज पर के निन्दायुत, वचनों से मन दुखित हुए ॥
अब देकर आधार मुझे, कर दो मेरा मन पावन है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३६॥

मोहतिमिरयुत नैनों ने, प्रभु का अवलोकन नहीं किया
इसीलिए क्षायिक सम्यग्दर्शन आत्मा में नहीं हुआ ॥
जिनके दर्शन से भूतादिक, के कट जाते संकट हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३७॥

देखा सुना और पूजा भी, पर न प्रभो! तव ध्यान दिया
भक्तिभाव से हृदय कमल में, नहिं उनको स्थान दिया ॥
इसीलिए दुखपात्र बना, अब मिला भक्ति का साधन है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३८॥

हे दयालु! शरणागत रक्षक, तुम दु:खितजन-वत्सल हो
पुण्यप्रभाकर इन्द्रियजेता, मुझ पर भी अब दया करो ॥
जग के दु:खांकुर क्षय में, जिनकी भक्ती ही माध्यम है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥३९॥

हे त्रिभुवन पावन जिनवर! अशरण के भी तुम शरण कहे
कर न सकें यदि भक्ति तुम्हारी, समझो पुण्यहीन हम हैं
जिनका पुण्य नाम जपने से, होता नष्ट विषम ज्वर है
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥४०॥

हे देवेन्द्रवंद्य! सब जग का, सार तुम्हीं ने समझ लिया
हे भुवनाधिप नाथ! तुम्हीं ने, जग को सच्चा मार्ग दिया ॥
जनमानस की रक्षा करते, दयासरोवर भगवन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥४१॥

नाथ! तुम्हारे चरणों की, स्तुति में यह अभिलाषा है
भव-भव में तुम मेरे स्वामी, रहो यही आकांक्षा है ॥
जिन पद के आराधन से, मिटते सब रोग विघन घन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥४२॥

हे जिनेन्द्र! तव रूप एकटक, देख-देख नहिं मन भरता
रोम-रोम पुलकित हो जाता, जो विधिवत् सुमिरन करता ॥
दिव्य विभव को देने वाले, रहते सदा अकिंचन हैं
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है ॥४३॥

जो जन नेत्र 'कुमुद' शशि की, किरणों का दिव्य प्रकाश भरें
स्वर्गों के सुख भोग-भोग, कर्मों का शीघ्र विनाश करें ॥
मोक्षधाम का द्वार खोलकर, सिद्धिप्रिया का वरण करें
ऐसे पारस प्रभु को हम सब, शीश झुकाकर नमन करें ॥४४॥

(दोहा)
इस स्तोत्र सुपाठ का, भाषामय अनुवाद
किया 'चन्दनामति' सुखद, ले ज्ञानामृत स्वाद ॥