रचयिता 'महाकवि धनञ्जय' हिंदी रूपांतरण कविश्री शांतिदास
(दोहा) नमौं नाभिनंदन बली, तत्त्व-प्रकाशनहार चतुर्थकाल की आदि में, भये प्रथम-अवतार ॥
(रोला छन्द) निज-आतम में लीन ज्ञानकरि व्यापत सारे जानत सब व्यापार संग नहिं कछु तिहारे बहुत काल के हो पुनि जरा न देह तिहारी ऐसे पुरुष पुरान करहु रक्षा जु हमारी ॥१॥
पर करि के जु अचिंत्य भार जग को अति भारो सो एकाकी भयो वृषभ कीनों निसतारो करि न सके जोगिंद्र स्तवन मैं करिहों ताको भानु प्रकाश न करै दीप तम हरै गुफा को ॥२॥
स्तवन करन को गर्व तज्यो सक्री बहुज्ञानी मैं नहिं तजौं कदापि स्वल्प ज्ञानी शुभध्यानी अधिक अर्थ का कहूँ यथाविधि बैठि झरोके जालांतर धरि अक्ष भूमिधर को जु विलोके ॥३॥
सकल जगत् को देखत अर सबके तुम ज्ञायक तुमको देखत नाहिं नाहिं जानत सुखदायक हो किसाक तुम नाथ और कितनाक बखानें तातें थुति नहिं बने असक्ती भये सयाने ॥४॥
बालकवत निज दोष थकी इहलोक दु:खी अति रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति हित अनहित की समझ नाहिं हैं मंदमती हम सब प्राणिन के हेत नाथ तुम बाल-वैद सम ॥५॥
दाता हरता नाहिं भानु सबको बहकावत आज-कल के छल करि नितप्रति दिवस गुमावत हे अच्युत! जो भक्त नमें तुम चरन कमल को छिनक एक में आप देत मनवाँछित फल को ॥६॥
तुम सों सन्मुख रहै भक्ति सों सो सुख पावे जो सुभावतें विमुख आपतें दु:खहि बढ़ावै सदा नाथ अवदात एक द्युतिरूप गुसांई इन दोन्यों के हेत स्वच्छ दरपणवत् झाँई ॥७॥
है अगाध जलनिधी समुद्र जल है जितनो ही मेरु तुंग सुभाव सिखरलों उच्च भन्यो ही वसुधा अर सुरलोक एहु इस भाँति सई है तेरी प्रभुता देव भुवन कूं लंघि गई है ॥८॥
है अनवस्था धर्म परम सो तत्त्व तुमारे कह्यो न आवागमन प्रभू मत माँहिं तिहारे इष्ट पदारथ छाँड़ि आप इच्छति अदृष्ट कौं विरुधवृत्ति तव नाथ समंजस होय सृष्ट कौं ॥९॥
कामदेव को किया भस्म जगत्राता थे ही लीनी भस्म लपेटि नाम संभू निजदेही सूतो होय अचेत विष्णु वनिताकरि हार्यो तुम को काम न गहे आप घट सदा उजार्यो ॥१०
पापवान वा पुन्यवान सो देव बतावे तिनके औगुन कहे नाहिं तू गुणी कहावे निज सुभावतैं अंबु-राशि निज महिमा पावे स्तोक सरोवर कहे कहा उपमा बढ़ि जावे ॥११॥
कर्मन की थिति जंतु अनेक करै दु:खकारी सो थिति बहु परकार करै जीवनकी ख्वारी भवसमुद्र के माँहिं देव दोन्यों के साखी नाविक नाव समान आप वाणी में भाखी ॥१२॥
सुख को तो दु:ख कहे गुणनिकूं दोष विचारे धर्म करन के हेत पाप हिरदे विच धारे तेल निकासन काज धूलि को पेलै घानी तेरे मत सों बाह्य ऐसे ही जीव अज्ञानी ॥१३॥
विष मोचै ततकाल रोग को हरै ततच्छन मणि औषधी रसांण मंत्र जो होय सुलच्छन ए सब तेरे नाम सुबुद्धी यों मन धरिहैं भ्रमत अपरजन वृथा नहीं तुम सुमिरन करिहैं ॥१४॥
किंचित् भी चितमाँहि आप कछु करो न स्वामी जे राखे चितमाँहिं आपको शुभ-परिणामी हस्तामलकवत् लखें जगत् की परिणति जेती तेरे चित के बाह्य तोउ जीवै सुख सेती ॥१५॥
तीन लोक तिरकाल माहिं तुम जानत सारी स्वामी इनकी संख्या थी तितनी हि निहारी जो लोकादिक हुते अनंते साहिब मेरा तेऽपि झलकते आनि ज्ञान का ओर न तेरा ॥१६
है अगम्य तव रूप करे सुरपति प्रभु सेवा ना कछु तुम उपकार हेत देवन के देवा भक्ति तिहारी नाथ इंद्र के तोषित मन को ज्यों रवि सन्मुख छत्र करे छाया निज तन को ॥१७॥
वीतरागता कहाँ कहाँ उपदेश सुखाकर सो इच्छा प्रतिकूल वचन किम होय जिनेसर प्रतिकूली भी वचन जगत् कूँ प्यारे अति ही हम कछु जानी नाहिं तिहारी सत्यासति ही ॥१८॥
उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित् न धरनितैं जो प्रापति तुम थकी नाहिं सो धनेसुरनतैं उच्च प्रकृति जल विना भूमिधर धूनी प्रकासै जलधि नीरतैं भर्यो नदी ना एक निकासै ॥१९॥
तीन लोक के जीव करो जिनवर की सेवा नियम थकी कर दंड धर्यो देवन के देवा प्रातिहार्य तो बनैं इंद्र के बनै न तेरे अथवा तेरे बनै तिहारे निमित परे रे ॥२०॥
तेरे सेवक नाहिं इसे जे पुरुष हीन-धन धनवानों की ओर लखत वे नाहिं लखत पन जैसैं तम-थिति किये लखत परकास-थिती कूं तैसैं सूझत नाहिं तमथिती मंदमती कूं ॥२१॥
निज वृध श्वासोच्छ्वास प्रगट लोचन टमकारा तिनकों वेदत नाहिं लोकजन मूढ़ विचारा सकल ज्ञेय ज्ञायक जु अमूरति ज्ञान सुलच्छन सो किमि जान्यो जाय देव तव रूप विचच्छन ॥२२॥
नाभिराय के पुत्र पिता प्रभु भरत तने हैं कुलप्रकाशि कैं नाथ तिहारो स्तवन भनै हैं ते लघु-धी असमान गुनन कों नाहिं भजै हैं सुवरन आयो हाथ जानि पाषान तजैं हैं ॥२३॥
सुरासुरन को जीति मोह ने ढोल बजाया तीन लोक में किये सकल वशि यों गरभाया तुम अनंत बलवंत नाहिं ढिंग आवन पाया करि विरोध तुम थकी मूलतैं नाश कराया ॥२४॥
एक मुक्ति का मार्ग देव तुमने परकास्या गहन चतुरगति मार्ग अन्य देवन कूँ भास्या 'हम सब देखनहार' इसीविधि भाव सुमिरिकैं भुज न विलोको नाथ कदाचित् गर्भ जु धरिकैं ॥२५॥
केतु विपक्षी अर्क-तनो पुनि अग्नि तनो जल अंबुनिधी अरि प्रलय-काल को पवन महाबल जगत्-माँहिं जे भोग वियोग विपक्षी हैं निति तेरो उदयो है विपक्ष तैं रहित जगत्-पति ॥२६॥
जाने बिन हूँ नमत आप को जो फल पावे नमत अन्य को देव जानि सो हाथ न आवे हरी मणी कूँ काच काच कूँ मणी रटत हैं ताकी बुधि में भूल मूल्य मणि को न घटत है ॥२७॥
जे विवहारी जीव वचन में कुशल सयाने ते कषाय-मधि-दग्ध नरन कों देव बखानैं ज्यों दीपक बुझि जाय ताहि कह 'नंदि' गयो है भग्न घड़े को कहैं कलस ए मँगलि गयो है ॥२८॥
स्याद्वाद संजुक्त अर्थ को प्रगट बखानत हितकारी तुम वचन श्रवन करि को नहिं जानत दोषरहित ए देव शिरोमणि वक्ता जग-गुरु जो ज्वर-सेती मुक्त भयो सो कहत सरल सुर ॥२९॥
बिन वांछा ए वचन आपके खिरैं कदाचित् है नियोग ए कोऽपि जगत् को करत सहज-हित करै न वाँछा इसी चंद्रमा पूरो जलनिधि शीत रश्मि कूँ पाय उदधि जल बढै स्वयं सिधि ॥३०॥
तेरे गुण-गंभीर परम पावन जगमाँहीं बहुप्रकार प्रभु हैं अनंत कछु पार न पाहीं तिन गुण को अंत एक याही विधि दीसै ते गुण तुझ ही माँहिं और में नाहिं जगीसै ॥३१॥
केवल थुति ही नाहिं भक्तिपूर्वक हम ध्यावत सुमिरन प्रणमन तथा भजनकर तुम गुण गावत चितवन पूजन ध्यान नमन करि नित आराधैं को उपाव करि देव सिद्धि-फल को हम साधैं ॥३२॥
त्रैलोकी-नगराधिदेव नित ज्ञान-प्रकाशी परम-ज्योति परमात्म-शक्ति अनंती भासी पुन्य पापतैं रहित पुन्य के कारण स्वामी नमौं नमौं जगवंद्य अवंद्यक नाथ अकामी ॥३३॥
रस सुपरस अर गंध रूप नहिं शब्द तिहारे इनि के विषय विचित्र भेद सब जाननहारे सब जीवन-प्रतिपाल अन्य करि हैं अगम्य जिन सुमरन-गोचर माहिं करौं जिन तेरो सुमिरन ॥३४॥
तुम अगाध जिनदेव चित्त के गोचर नाहीं नि:किंचन भी प्रभू धनेश्वर जाचत सोई भये विश्व के पार दृष्टि सों पार न पावै जिनपति एम निहारि संत-जन सरनै आवै ॥३५॥
नमौं नमौं जिनदेव जगत्-गुरु शिक्षादायक निजगुण-सेती भई उन्नती महिमा-लायक पाहन-खंड पहार पछैं ज्यों होत और गिर त्यों कुलपर्वत नाहिं सनातन दीर्घ भूमिधर ॥३६॥
स्वयंप्रकाशी देव रैन दिनसों नहिं बाधित दिवस रात्रि भी छतैं आपकी प्रभा प्रकाशित लाघव गौरव नाहिं एक-सो रूप तिहारो काल-कला तैं रहित प्रभू सूँ नमन हमारो ॥३७॥
इहविधि बहु परकार देव तव भक्ति करी हम जाचूँ कर न कदापि दीन ह्वै रागरहित तुम छाया बैठत सहज वृक्षके नीचे ह्वै है फिर छाया कों जाचत यामें प्रापति क्वै है ॥३८॥
जो कुछ इच्छा होय देन की तौ उपगारी द्यो बुधि ऐसी करूँ प्रीतिसौं भक्ति तिहारी करो कृपा जिनदेव हमारे परि ह्वै तोषित सनमुख अपनो जानि कौन पंडित नहिं पोषित ॥३९॥
यथा-कथंचित् भक्ति रचै विनयी-जन केई तिनकूँ श्रीजिनदेव मनोवाँछित फल देही पुनि विशेष जो नमत संतजन तुमको ध्यावै सो सुख जस 'धन-जय' प्रापति है शिवपद पावै ॥४०॥
श्रावक 'माणिकचंद' सुबुद्धी अर्थ बताया सो कवि 'शांतीदास' सुगम करि छंद बनाया फिरि-फिरिकै ऋषि-रूपचंद ने करी प्रेरणा भाषा-स्तोतर की विषापहार पढ़ो भविजना ॥४१॥