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कल्याणमन्दिरस्तोत्रम

आ. कुमुदचंद्र कृत / सिद्धसेन-दिवाकर, हिंदी पद्य: पं बनारसीदास
कल्याण-मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि
भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि-पद्मम्
संसार-सागर-निमज्जदशेष-जन्तु-
पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥
(दोहा)
परम-ज्योति परमात्मा, परम-ज्ञान परवीन
वंदूँ परमानंदमय घट-घट-अंतर-लीन ॥
(चौपाई)
निर्भयकरन परम-परधान, भव-समुद्र-जल-तारन-यान
शिव-मंदिर अघ-हरन अनिंद, वंदूं पार्श्व-चरण-अरविंद ॥
अन्वयार्थ : [कल्याणमंदिरम्] कल्याणकों के मंदिर, [उदारम्] उदार, [अवद्यभेदि] पापों को नष्ट करने वाले, [भीताभयप्रदम्] संसार से डरे हुए जीवों को अभयपद देने वाले, [अनिन्दितम्] प्रशंसनीय और [संसार सागर निमज्जत् अशेष-जन्तु-पोतायमानम्] संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए समस्त जीवों के लिए जहाज के समान [जिनेश्वरस्य] जिनेन्द्रभगवान के [अंघ्रिपद्मम्] चरण कमल को [अभिनम्य] नमस्कार करके ।

यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः,
स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् ।
तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय-धूमकेतोस्-
तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥
कमठ-मान-भंजन वर-वीर, गरिमा-सागर गुण-गंभीर
सुर-गुरु पार लहें नहिं जास, मैं अजान जापूँ जस तास ॥
अन्वयार्थ : [गरिमाम्बुराशे:] गौरव के समुद्र [यस्य] जिन पार्श्वनाथ की [स्तोत्रम्] स्तुति, [विधातुम्] करने के लिए [स्वयं सुरगुरु:] खुद बृहस्पति भी [सुविस्तृतमति] विस्तृत बुद्धि वाले [विभु-] समर्थ (न अस्ति) नहीं हैं, [कमठस्मयधूमकेतो:] कमठ का मान भस्म करने के लिए अग्निस्वरूप [तस्य] उन [तीर्थेश्वरस्य] पार्श्वनाथ भगवान की [किल] आश्चर्य है कि [एष: अहम्] यह मैं [संस्तवनम्] स्तुति [करिष्ये] करूँगा ।

सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप-
मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः
धृष्टोऽपि कौशिक-शिशुर्यदि वा दिवान्धो
रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३॥
प्रभु-स्वरूप अति-अगम अथाह, क्यों हम-सेती होय निवाह
ज्यों दिन अंध उल्लू को होत, कहि न सके रवि-किरण-उद्योत ॥
अन्वयार्थ : [अधीश!] हे स्वामिन्! [सामान्यत: अपि] सामान्य रीति से भी [तव] तुम्हारे [स्वरूपम्] स्वरूप को [वर्णयितुं] वर्णन करने के लिए [अस्मादृशा:] मुझ जैसे मनुष्य [कथम्] कैसे [अधीशा:] समर्थ [भवन्ति] हो सकते हैं? अर्थात् नहीं हो सकते । [यदि वा] अथवा [दिवान्ध:] दिन में अंधा रहने वाला [कौशिक शिशु:] उलूक का बच्चा [धृष्ट: अपि] ढीठ होता हुआ भी [किम्] क्या [घर्मरश्मे:] सूर्य के [रूपम्] रूप का [प्ररूपयति किल] वर्णन कर सकता है क्या ?

मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो
नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत ।
कल्पान्त-वान्त-पयसः प्रकटोऽपि यस्मान्-
मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४॥
मोह-हीन जाने मनमाँहिं, तो हु न तुम गुन वरने जाहिं
प्रलय-पयोधि करे जल गौन, प्रगटहिं रतन गिने तिहिं कौन ॥
अन्वयार्थ : [नाथ!] हे पाश्र्वनाथ! [मत्र्य:] मनुष्य [मोहक्षयात्] मोहनीय कर्म के क्षय से [अनुभवन् अपि] अनुभव करता हुआ भी [तव] आपके [गुणान्] गुणों को [गणयितुम्] गिनने के लिए [नूनम्] निश्चय करके [न क्षमेत] समर्थ नहीं हो सकता है । [यस्मात्] क्योंकि [कल्पान्तवान्तपयस:] प्रलय काल के समय जिसका जल बाहर हो गया है, ऐसे [जलधे:] समुद्र की [प्रकट: अपि] प्रकट हुई भी [रत्नराशि:] रत्नों की राशि [ननु केन मीयेत] किसके द्वारा गिनी जा सकती है?

अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि
कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य ।
बालोऽपि किं न निज-बाहु-युगं वितत्य
विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ? ॥५॥
तुम असंख्य निर्मल गुणखान, मैं मतिहीन कहूँ निज बान
ज्यों बालक निज बाँह पसार, सागर परमित कहे विचार ॥
अन्वयार्थ : [नाथ!] हे स्वामिन्! [जडाशय: अपि अहम्] मैं मूर्ख भी [लसदसंख्यगुणाकरस्य] शोभायमान असंख्यात गुणों की खानि स्वरूप [तव] आपके [स्तवम् कर्तुम्] स्तवन करने के लिए [अभ्युद्यत: अस्मि] तैयार हुआ हूँ । क्योंकि [बाल:अपि] बालक भी [स्वधिया] अपनी बुद्धि के अनुसार [निजबाहुयुगम्] अपने दोनों हाथों को [वितत्य] फैलाकर [किम्] क्या [अम्बुराशे:] समुद्र के [विस्तीर्णताम्] विस्तार को [न कथयति] नहीं कहता ?

ये योगनामपि न यान्ति गुणास्तवेश !
वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः ?
जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं,
जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥
जे जोगीन्द्र करहिं तप-खेद, तेऊ न जानहिं तुम गुनभेद
भक्तिभाव मुझ मन अभिलाष, ज्यों पंछी बोले निज भाष ॥
अन्वयार्थ : [ईश!] हे स्वामिन्! [तव] आपके [ये गुणा:] जो गुण [योगिनाम् अपि] योगियों को भी [वत्तुम्] कहने के लिए [न यान्ति] नहीं प्राप्त होते [तेषु] उनमें [मम] मेरा [अवकाश:] अवकाश [कथम् भवति] कैसे हो सकता है? [तत्] इसलिए [एवम्] इस प्रकार [इयम्] मेरा यह [असमीक्षितकारिता जाता] बिना विचारे काम करता हुआ [वा] अथवा [पक्षिण: अपि] पक्षी भी [निजगिरा] अपनी वाणी से [जल्पन्तिननु] बोला करते हैं ।

आस्तामचिन्त्य-महिमा जिन ! संस्तवस्ते,
नामाऽपि पाति भवतो-भवतो जगन्ति ।
तीव्रातपोपहत-पान्थ-जनान्निदाघे
प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥
तुम जस-महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन-आधार
आवे पवन पदमसर होय, ग्रीषम-तपन निवारे सोय ॥
अन्वयार्थ : [जिन!] हे जिनेन्द्र! [अचिन्त्य महिमा] अचिंत्य है महात्म्य जिसका ऐसा [ते] आपका [संस्तत:] स्तव [आस्ताम्] दूर रहे, [भवत:] आपका [नाम अपि] नाम भी [जगन्ति] जीवों को [भवत:] संसार से [पाति] बचा लेता है क्योंकि [निदाघे] ग्रीष्मकाल में [तीव्रातपोपहतपान्थजनान्] तीव्र धूप से सताये हुए पथिक जनों को [पद्मसरस:] कमलों के सरोवर का [सरस:] सरस-शीतल [अनिल:अपि] पवन भी [प्रीणाति] सन्तुष्ट करता है ।

हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति,
जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म-बन्धाः
सद्यो भुजंगममया इव मध्य-भाग-
मभ्यागते वन-शिखण्डिनि चन्दनस्य ॥८॥
तुम आवत भवि-जन मनमाँहिं, कर्मनि-बन्ध शिथिल ह्वे जाहिं
ज्यों चंदन-तरु बोलहिं मोर, डरहिं भुजंग भगें चहुँ ओर ॥
अन्वयार्थ : [विभो!] हे पार्श्वनाथ! [त्वयि] आपके [हृद्वर्तिनि] हृदय में रहते हुए [जन्तो:] जीवों के [निविडा: अपि] सघन भी [कर्म-बंधा:] कर्मों के बंधन [क्षणेन] क्षण भर में [वन शिखण्डिनि] वन मयूर के [चन्दनस्य मध्यभागम् अभ्यागते 'सत'] चन्दन तरु के बीच में आने पर [भुजंगममया इव] सर्पों की कुण्डलियों के समान [सद्य:] शीघ्र ही [शिथिली भवन्ति] ढीले हो जाते हैं ।

मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र !
रौद्रैरुपद्रव-शतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि ।
गोस्वामिनि स्फुरित-तेजसि दृष्टमात्रे
चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥९॥
तुम निरखत जन दीनदयाल, संकट तें छूटें तत्काल
ज्यों पशु घेर लेहिं निशि चोर, ते तज भागहिं देखत भोर ॥
अन्वयार्थ : [जिनेन्द्र!] हे जिनेन्द्रदेव! [स्पुरिततेजसि] पराक्रमी [गोस्वामिनि] गोपालक [दृष्टमात्रे] दिखते ही [आशु] शीघ्र ही [प्रपलायमानै:] भागते हुए [चौरै:] चोरों के द्वारा [पशव:इव] पशुओं की तरह [त्वयि वीक्षते अपि] आपके दर्शन करते ही [मनुजा:] मनुष्य [रौद्रै:] भयंकर [उपद्रवशतै:] सैकड़ों उपद्रवों के द्वारा [सहसा एव] शीघ्र ही [मुच्यन्ते] छोड़ दिए जाते हैं ।

त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव
त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः ।
यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून-
मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥
तुम भविजन-तारक इमि होहि, जे चित धारें तिरहिं ले तोहि
यह ऐसे करि जान स्वभाव, तिरहिं मसक ज्यों गर्भित बाव ॥
अन्वयार्थ : [जिन!] हे जिनेन्द्रदेव! [त्वम् भविनाम् तारक: कथम्] आप संसारी जीवों के तारने वाले कैसे हो सकते हैं? [यत्] क्योंकि [उत्तरन्त:] संसार-समुद्र से पार होते हुए [ते एव] वे ही [हृदयेन] हृदय से [त्वम्] आपको [उद्वहन्ति] तिरा ले जाते हैं [यद्वा] अथवा ठीक है कि [दृति:] मसक [यत्] जो [जलम् तरति] पानी में तैरती है, [स: एष:] वह [नूनम्] निश्चय से [अन्तर्गतस्य] भीतरस्थित [मरुत:] हवा का ही [अनुभाव: किल] प्रभाव है ।

यस्मिन्हर-प्रभृतयोऽपि हत-प्रभावाः
सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन ।
विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन
पीतं न किं तदपि दुर्धर-वाडवेन ॥११॥
जिहँ सब देव किये वश वाम, तैं छिन में जीत्यो सो काम
ज्यों जल करे अगनि-कुल हान, बडवानल पीवे सो पान ॥
अन्वयार्थ : [यस्मिन्] जिसके विषय में [हरप्रभृतय: अपि] महादेव आदि भी [हतप्रभावा:] प्रभाव रहित हैं [स:] वह [रतिपति:] कामदेव भी [त्वया] आपके द्वारा [क्षणेन] क्षणमात्र में [क्षपित:] नष्टकर दिया गया [अथ] अथवा ठीक है कि [येन पयसा] जिस जल ने [हुतभुज: विध्यापिता:] अग्नि को बुझाया है [तत् अपि] वह जल भी [दुद्र्धरवाडवेन] प्रचण्ड दावानल के द्वारा [किम्] क्या [न पीतम्] नहीं पिया गया ?

स्वामिन्ननल्प-गरिमाणमपि प्रपन्नास्
त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः ।
जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन
चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः ॥१२॥
तुम अनंत गुरुवा गुन लिए, क्यों कर भक्ति धरूं निज हिये
ह्वै लघुरूप तिरहिं संसार, प्रभु तुम महिमा अगम अपार ॥
अन्वयार्थ : [स्वामिन्!] हे प्रभो! [अहो] आश्चर्य है कि [अनल्पगरिमाणम् अपि] अधिक गौरव से युक्त भी विरोध पक्ष में अत्यन्त वजनदार [त्वाम्] आपको [प्रपन्ना:] प्राप्त हो [हृदये दधाना:] हृदय में धारण करने वाले [जन्तव:] प्राणी [जन्मोदधिम्] संसार समुद्र को [अति लाघवेन] बहुत ही लघुता से [कथम्] कैसे [लघु] शीघ्र [तरन्ति] तर जाते हैं । [यदि वा] अथवा [हन्त] हर्ष है कि [महताम्] महापुरुषों का [प्रभाव:] प्रभाव [चिन्त्य:] चिन्तवन के योग्य [न भवति] नहीं होता है ।

क्रोधस्त्वया यदि विभो प्रथमं निरस्तो,
ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः ।
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके
नील-द्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी ॥१३॥
क्रोध-निवार कियो मन शांत, कर्म-सुभट जीते किहिं भाँत
यह पटुतर देखहु संसार, नील वृक्ष ज्यों दहै तुषार ॥
अन्वयार्थ : [विभो!] हे पार्श्वनाथ! [यदि] यदि [त्वया] आपके द्वारा [क्रोध:] क्रोध [प्रथमम्] पहले ही [निरस्त:] नष्ट कर दिया गया था, [तदा] तो फिर [वद] बोलिए कि [कर्मचौरा:] कर्मरूपी चोर [कथम्] कैसे [ध्वस्ता: किल] नष्ट किये? [यदि वा] अथवा [अमुत्त लोके] इस लोक में [हिमानी अपि] बर्प होने पर भी [किम्] क्या [नील द्रुमाणि] हरे-हरे वृक्ष जिनमें ऐसे [विपिनानि] वनों को [न प्लोषति] नहीं जला देता है! अर्थात् जला देता है, मुरझा देता है ।

त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप-
मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुज-कोश-देशे ।
पूतस्य निर्मल-रुचेर्यदि वा किमन्य-
दक्षस्य सम्भव-पदं ननु कर्णिकायाः ॥१४॥
मुनिजन हिये कमल निज टोहि, सिद्धरूप सम ध्यावहिं तोहि
कमल-कर्णिका बिन-नहिं और, कमल बीज उपजन की ठौर ॥
अन्वयार्थ : [जिन!] हे पार्श्वनाथ! [योगिन:] ध्यान करने वाले मुनीश्वर [सदा] हमेशा [परमात्मरूपम्] परमात्मस्वरूप [त्वाम्] आपको [हृदयाम्बुजकोषदेशे] अपने हृदयरूपी कमल के मध्य भाग में [अन्वेषयन्ति] खोजते हैं । [यदि वा] अथवा ठीक है कि [पूतस्य] पवित्र और [निर्मल-रुचे:] निर्मल कान्तिवाले [अक्षस्य] कमल के बीज का अथवा शुद्धात्मा का [संभवपदम्] उत्पत्ति स्थान अथवा खोज करने का स्थान [कर्णिकाया: अन्यत्] कमल की डण्ठल को छोड़कर [अन्यत् किम् ननु] दूसरा क्या हो सकता है?

ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन
देहं विहाय परमात्म-दशां व्रजन्ति ।
तीव्रानलादुपल-भावमपास्य लोके
चामीकरत्वमचिरादिव धातु-भेदाः ॥१५॥
जब तुव ध्यान धरे मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय
जैसे धातु शिला-तनु त्याग, कनक-स्वरूप धवे जब आग ॥
अन्वयार्थ : [जिनेश!] हे पार्श्वनाथ! [लोके] लोक में [तीव्रानलात्] तीव्र अग्नि के संबंध से [धातु भेदा:] अनेक धातुएँ [उपलभावम्] पत्थर रूप पूर्व पर्याय को [अपास्य] छोड़कर [अचिरात्] शीघ्र ही [चामीकरत्वम् इव] जिस तरह सुवर्ण पर्याय को प्राप्त हो जाती हैं, उसी तरह [भविन:] भव्य प्राणी [भवत:] आपके [ध्यानात्] ध्यान से [देहम्] शरीर को [विहाय] छोड़कर [क्षणेन] क्षणभर में [परमात्मदशाम्] परमात्मा की अवस्था को [व्रजन्ति] प्राप्त हो जाते हैं ।

अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं
भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् ।
एतत्स्वरूपमथ मध्य-विवर्तिनो हि
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥
जाके मन तुम करहु निवास, विनशि जाय सब विग्रह तास
ज्यों महंत ढिंग आवे कोय, विग्रहमूल निवारे सोय ॥
अन्वयार्थ : [जिन!] हे जिनेन्द्र! [भव्यै:] भव्यजीवों के द्वारा [यस्य] जिस शरीर के [अन्त:] भीतर [त्वम्] आप [सदैव] हमेशा [विभाव्यसे] ध्याये जाते हों [तत्] उस [शरीरम् अपि] शरीर को भी आप [कथम्] क्यों [नाशयसे] नष्ट करा देते हैं? [अथ] अथवा [एतत्स्वरूपम्] यह स्वभाव ही है [यत्] कि [मध्यविवर्तिन:] बीच में रहने वाले और रागद्वेष से रहित [महानुभावा:] महापुरुष [विग्रहम्] विग्रह-शरीर और द्वेष को [प्रशमयन्ति] शान्त करते हैं ।

आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेद-बुद्ध्या
ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः ।
पानीयमप्यमृत-मित्यनुचिन्त्यमानं
किं नाम नो विष-विकारमपाकरोति ॥१७॥
करहिं विबुध जे आतमध्यान, तुम प्रभाव तें होय निदान
जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विष विकार की हान ॥
अन्वयार्थ : [जिनेन्द्र!] हे पाश्र्वनाथ [मनीषिभि:] बुद्धिमानों के द्वारा [त्वदभेदबुद्ध्या] आप से अभिन्न है ऐसी बुद्धि से [ध्यात:] ध्यान किया गया [अयम् आत्मा] यह आत्मा [भवत्प्रभाव:] आप ही के समान प्रभाव वाला [भवति] हो जाता है [अमृतम् इति अनुचिन्त्यमानम्] यह अमृत है इस तरह चिन्तवन करने वाला [पानीयम् अपि] पानी भी [किम्] क्या [विषविकारम्] विष विकार को [नो अपाकरोति नाम] दूर नहीं करता है ?

त्वामेव वीत-तमसं परवादिनोऽपि
नूनं विभो हरि-हरादि-धिया प्रपन्नाः ।
किं काच-कामलिभिरीश सितोऽपि शङ्खो
नो गृह्यते विविध-वर्ण-विपर्ययेण ॥१८॥
तुम भगवंत विमल गुणलीन, समल रूप मानहिं मतिहीन
ज्यों पीलिया रोग दृग गहे, वर्ण विवर्ण शंख सों कहे ॥
अन्वयार्थ : [विभो!] हे पार्श्वनाथ! [परवादिन: अपि] अन्यमतावलम्बी पुरुष भी [वीत-तमसम्] अज्ञान अंधकार से रहित [त्वाम् एव] आपको ही [नूनम्] निश्चय से [हरिहरादिधिया] विष्णु महादेव आदि की कल्पना से [प्रपन्ना:] पूजते हैं । [किम्] क्या [ईश] हे विभो! [काचकामलिभि:] जिनकी आँख पर रंगदार चश्मा है, अथवा जिन्हें पीलिया रोग हो गया है ऐसे पुरुषों द्वारा [शंखसित: अपि] शंख सफेद होने पर भी [विविधवर्णविपर्ययेण] तरह-तरह के विपरीत वर्णों से [नो गृह्यते] नहीं ग्रहण किया जाता है ?

धर्मोपदेश-समये सविधानुभावाद्
आस्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः ।
अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि
किं वा विबोधमुपयाति न जीव-लोकः ॥१९॥
(दोहा)
निकट रहत उपदेश सुन, तरुवर भयो 'अशोक'
ज्यों रवि ऊगत जीव सब, प्रगट होत भुविलोक ॥
अन्वयार्थ : [धर्मोपदेश समये] धर्मोपदेश के समय [ते] आपकी [सविधानुभावात्] समीपता के प्रभाव से [जन:आस्ताम्] मनुष्य तो दूर रहे [तरू: अपि] वृक्ष भी [अशोक:] शोक रहित [भवति] हो जाता है । [वा] अथवा [दिनपतौ अभ्युद्गते 'सति'] सूर्य के उदय होने पर [समहीरुह: अपि जीव लोक:] वृक्षों सहित समस्त जीवलोक [किम्] क्या [विबोधम्] विशेषज्ञान को [न उपयाति] प्राप्त नहीं होते ?

चित्रं विभो कथमवाङ्गमुख-वृन्तमेव
विष्वक्पतत्यविरला सुर-पुष्प-वृष्टिः ।
त्वद्-गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥२०॥
'सुमन वृष्टि' ज्यों सुर करहिं, हेठ बीठमुख सोहिं
त्यों तुम सेवत सुमन जन, बंध अधोमुख होहिं ॥
अन्वयार्थ : [विभो!] हे जिनेन्द्र [चित्तम्] आश्चर्य है कि [विष्वक्] सब ओर [अविरला] व्यवधान रहित [सुरपुष्पवृष्टि:] देवों के द्वारा की हुई फूलों की वर्षा [अवाङ्मुखवृन्तम्] नीचे को बंधन करके ही [कथम्] क्यों [पतति] पड़ती है? [यदि वा] अथवा [मुनीश!] हे मुनियों के नाथ! [त्वद्गोचरे] आपके समीप [सुमनसाम्] पुष्पों अथवा विद्वानों के [बंधनानि] कर्मों के बंधन [नूनम् हि] निश्चय से [अध: एव गच्छन्ति] नीचे को ही जाते हैं ।

स्थाने गभीर-हृदयोदधि-सम्भवायाः
पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति ।
पीत्वा यतः परम-सम्मद-संग-भाजो
भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ॥२१॥
उपजी तुम हिय उदधि तें, 'वाणी' सुधा समान
जिहँ पीवत भविजन लहहिं, अजर अमर-पदथान ॥
अन्वयार्थ : [गंभीरहृदयोदधिसंभवाया:] गंभीर हृदयरूपी समुद्र में पैदा हुई [तव] आपकी [गिर:] वाणी के [पीयूषताम्] अमृतपने को [स्थाने] ठीक ही [समुदीरयन्ति] प्रकट करते हैं । [यत:] क्योंकि [भव्या:] भव्यजीव [ताम् पीत्वा] उसे पीकर [परमसंमदसङ्गभाज:] परम सुख के भागी होते हुए [तरसा अपि] बहुत ही शीघ्र [अजरामरत्वम्] अजर अमरपने को [व्रजन्ति] प्राप्त होते हैं ।

स्वामिन्! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो,
मन्ये वदन्ति शुचय: सुर-चामरौघा: ।
येऽस्मै नतिं विदधते मुनि-पुङ्गवाय,
ते नूनमूध्र्व-गतय: खलु शुद्ध-भावा:॥२२॥
कहहिं सार तिहुँ-लोक को, ये 'सुर-चामर' दोय
भावसहित जो जिन नमहिं, तिहँ गति ऊरध होय ॥
अन्वयार्थ : [स्वामिन्] हे प्रभो! [मन्ये] मैं मानता हूँ कि [सुदूरम्] बहुत दूर तक [अवनम्य] नम्रीभूत होकर [समुत्पतन्त:] ऊपर को जाते हुए [शुचय:] पवित्र [सुरचामरौघा] देवों के चामर समूह [वदन्ति] कह रहे हैं कि [ये] जो [अस्मै मुनिपुङ्गवाय] इन श्रेष्ठ मुनि को [नतिम्] नमस्कार [विदधते] करते हैं, [ते] वे [नूनम्] निश्चय से [शुद्ध भावा:] विशुद्ध परिणाम वाले होकर [ऊध्र्वगतय:] ऊध्र्वगति वाले हो जाते हैं ।

श्यामं गभीर-गिरमुज्ज्वल-हेम-रत्न
सिंहासनस्थमिह भव्य-शिखण्डिनस्त्वाम् ।
आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चैश्-
चामीकराद्रि-शिरसीव नवाम्बुवाहम् ॥२३॥
'सिंहासन' गिरि मेरु सम, प्रभु धुनि गरजत घोर
श्याम सुतनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ॥
अन्वयार्थ : [इह] इस लोक में [श्यामं] श्याम वर्ण [गभीरगिरम्] गंभीर दिव्यध्वनि युक्त और [उज्ज्वलहेम रत्नसिंहासनस्थम्] निर्मल सुवर्ण के बने हुए रत्नजड़ित सिंहासन पर स्थित [त्वाम्] आपको [भव्यशिखण्डिन:] भव्य जीवरूपी मयूर [चामीकराद्रिशिरसि] सुवर्णमय मेरुपर्वत के शिखर पर [उच्चै:] जोर से [नदन्तम्] गर्जते हुए [नवाम्बुवाहम् इव] नूतन मेघ की तरह [रभसेन] उत्कण्ठापूर्वक [आलोकयन्ति] देखते हैं ।

उद्गच्छता तव शिति-द्युति-मण्डलेन,
लुप्तच्छदच्छविरशोक-तरुर्बभूव ।
सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग !
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ॥२४॥
छवि-हत होत अशोक-दल, तुम 'भामंडल' देख
वीतराग के निकट रह, रहत न राग विशेष ॥
अन्वयार्थ : [उद्गच्छता] स्पुâरायमान [तव] आपके [शितिद्युतिमण्डलेन] श्यामप्रभामण्डल के द्वारा [अशोकतरु:] अशोकवृक्ष [लुप्तच्छदच्छवि:] कान्तिहीन पत्रों वाला [बभूव] हो गया, [यदि वा] अथवा [वीतराग!] हे रागद्वेष रहित देव! [तव सान्निध्यत: अपि] आपकी समीपता मात्र से ही [क: सचेतन: अपि] कौन पुरुष सचेतन होकर भी [नीरागताम्] अनुराग के अभाव को [न व्रजति] नहीं प्राप्त होता है ?

भो! भो:! प्रमादमवधूय भजध्वमेन-
मागत्य निर्वृति-पुरीं प्रति सार्थवाहम् ।
एतन्निवेदयति देव! जगत्त्रयाय,
मन्ये नदन्नभिनभ: सुरदुन्दुभिस्ते ॥२५॥
सीख कहे तिहुँ-लोक को, ये 'सुर-दुंदुभि' नाद
शिवपथ-सारथ-वाह जिन, भजहु तजहु परमाद ॥
अन्वयार्थ : [देव:] हे देव [मन्ये] मैं समझता हूँ कि [अभिनभ:] आकाश में सब ओर [नदन्] शब्द करती हुई [ते] आपकी [सुरदुन्दुभि:] देवों के द्वारा बजाई गई दुन्दुभि [जगत्त्रयाय] तीनों लोक के जीवों को [एतत्-निवेदयति] यह बतला रही है कि [भो: भो:] रे रे प्राणियों! [प्रमादम् अवधूय] प्रमाद को छोड़कर [निर्वृतिपुरीम् प्रति सार्थवाहम्] मोक्षपुरी को ले जाने में अगुआ [एवम्] इन भगवान को [आगत्य] आकर [भजध्वम्] भजो ।

उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ !,
तारान्वितो विधुरयं विहताधिकार: ।
मुक्ता-कलाप-कलितोल्ल-सितातपत्र-
व्याजात्त्रिधा धृत-तनुर्ध्रुवमभ्युपेत: ॥२६॥
'तीन छत्र' त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छवि देत
त्रिविध-रूप धर मनहु शशि, सेवत नखत-समेत ॥
अन्वयार्थ : [नाथ!] हे स्वामिन्! [भवता भुवनेषु उद्योति तेषु] आपके द्वारा तीनों लोकों के प्रकाशित होने पर [विहताधिकार:] अपने अधिकार से भ्रष्ट तथा [मुक्ताकलापकलितोल्लसितातपत्रव्याजात्] मोतियों के समूह से सहित अतएव शोभायमान सफेद छत्र के छल से [तारान्वित] ताराओं से वेष्टित [अयम् विधु:] यह चन्द्रमा [त्रिधा धृततनु] तीन-तीन शरीर धारण कर [ध्रुवम्] निश्चय से [अभ्युपेत:] सेवा को प्राप्त हुआ है ।

स्वेन प्रपूरित-जगत्त्रय-पिण्डितेन,
कान्ति-प्रताप-यशसामिव सञ्चयेन ।
माणिक्य-हेम-रजत-प्रविनिर्मितेन,
सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७॥
(पद्धरि छन्द)
प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम,परताप पुंज जिम शुद्ध-हेम
अतिधवल सुजस रूपा समान, तिनके गुण तीन विराजमान ॥
अन्वयार्थ : [भगवन्!] हे भगवन्! आप [अभित:] चारों ओर से [प्रपूरित-जगत्त्रयपिण्डितेन] भरे हुए जगत्त्रय के पिण्ड अवस्था को प्राप्त [स्वेन कान्तिप्रतापयशसाम् सञ्चयेन इव] अपने कान्ति, प्रताप और यश के समूह के समान शोभायमान [माणिक्य-हेम-रजत-प्रविनिर्मितेन] माणिक्य, सुवर्ण और चाँदी से बने हुए [सालत्रयेण] तीनों कोटों से [विभासि] शोभायमान होते हैं ।

दिव्य-स्रजो जिन! नमत्त्रिदशाधिपाना-
मुत्सृज्य रत्न-रचितानपि मौलि-बन्धान् ।
पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वापरत्र,
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ॥२८॥
सेवहिं सुरेन्द्र कर नमत भाल, तिन सीस मुकुट तज देहिं माल
तुम चरण लगत लहलहे प्रीति, नहिं रमहिं और जन सुमन रीति ॥
अन्वयार्थ : [जिन!] हे जिनेन्द्र! [दिव्यस्रज:] दिव्यपुरुषों की मालाएँ [नमत्त्रिदशाधिपानाम्] नमस्कार करते हुए इन्द्रों के [रत्न रचितान् अपि मौलिबन्धान्] रत्नों से बने हुए मुकुटों को भी [विहाय] छोड़कर [भवत: पादौ श्रयन्ति] आपके चरणों का आश्रय लेती हैं । [यदि वा] अथवा [त्वत्सङ्गमे] आपका समागम होने पर [सुमनस:] पुष्प अथवा विद्वान पुरुष [परत्र] किसी दूसरी जगह [न एव रमन्ते] नहीं रमण करते हैं ।

त्वं नाथ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि,
यत्तारयस्यसुमतो निज-पृष्ठ-लग्नान् ।
युक्त्तं हि पार्थिव-निपस्य सतस्तवैव,
चित्रं विभो! यदसि कर्म-विपाक-शून्य: ॥२९॥
प्रभु भोग-विमुख तन करम-दाह, जन पार करत भवजल निवाह
ज्यों माटी-कलश सुपक्व होय, ले भार अधोमुख तिरहिं तोय ॥
अन्वयार्थ : [नाथ!] हे स्वामिन् [त्वम्] आप [जन्मजलधे:] संसाररूप समुद्र से [विपराङ् मुख: अपि सन्] पराङ्मुख होते हुए भी [यत्] जो [निजपृष्ठलग्नान्] अपने पीछे लगे हुए अनुयायी [अनुमत:] जीवों को [तारयसि] तार देते हो, [तत्] वह [पार्थिवनृपस्य सत:] राजाधिराज अथवा मिट्टी के पके हुए घड़े की तरह परिणमन करने वाले [तव] आपको [युक्तम् एव] उचित ही है । परन्तु [विभो!] हे प्रभो! [चित्रम्] आश्चर्य की बात है [यत्] जो आप [कर्मविपाक शून्य: असि] कर्मोदय रूप क्रिया से रहित हो ।

विश्वेश्वरोऽपि जन-पालक! दुर्गतस्त्वं,
किं वाऽक्षर-प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश !
अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव,
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्व-विकास-हेतु: ॥३०॥
तुम महाराज निरधन निराश,तज तुम विभव सब जगप्रकाश
अक्षर स्वभाव-सु लिखे न कोय, महिमा भगवंत अनंत सोय ॥
अन्वयार्थ : [जनपालक!] हे जीवों के रक्षक! [त्वम्] आप [जिनेश्वर: अपि दुर्गत:] तीन लोक के स्वामि होकर भी दरिद्र हैं [किं वा] और [अक्षर प्रकृति: अपि त्वम् अलिपि:] अक्षर स्वभाव होकर भी लेखन क्रिया से रहित हैं । [ईश!] हे स्वामिन्! [कथञ्चित्] किसी प्रकार से [अज्ञानवति अपि त्वयि] अज्ञानवान होने पर भी आप में [विश्वविकास हेतु ज्ञानम्] सभी पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान [सदा एव स्पुरति] हमेशा स्पुरायमान रहता है ।

प्राग्भार-सम्भृत-नभांसि रजांसि रोषा-
दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि ।
छायापि तैस्तव न नाथ! हता हताशो,
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१॥
कोपियो कमठ निज बैर देख, तिन करी धूलि वरषा विशेष
प्रभु तुम छाया नहिं भई हीन, सो भयो पापी लंपट मलीन
अन्वयार्थ : [नाथ!] हे स्वामिन्! [शठेन] मूर्ख [कमठेन] कमठ के द्वारा [रोषात्] क्रोध से [प्राग्भारसम्भृतनभांसि] सम्पूर्ण रूप से आकाश को व्याप्त करने वाली [यानि] जो [रजांसि] धूल [उत्थापितानि] आपके ऊपर उड़ाई गई थी [तै:तु] उससे तो [तव] आपकी [छाया अपि] छाया भी [न हता] नहीं नष्ट हुई थी । [परम्] किन्तु [अयमेव दुरात्मा] यही दुष्ट [हताश:] हताश हो [अमीभि:] कर्मरूप रजों से [ग्रस्त:] जकड़ा गया ।

यद्गर्जदूर्जित-घनौघमदभ्र-भीम
भ्रश्यत्तडिन्-मुसल-मांसल-घोरधारम् ।
दैत्येन मुक्तमथ दुस्तर-वारि दध्रे,
तेनैव तस्य जिन! दुस्तर-वारिकृत्यम् ॥३२॥
गरजंत घोर घन अंधकार, चमकंत-विज्जु जल मूसल-धार
वरषंत कमठ धर ध्यान रुद्र, दुस्तर करंत निज भव-समुद्र ॥
अन्वयार्थ : [अथ] और [जिन!] हे जिनेश्वर! [दैत्येन] उस कमठ ने [गर्जदूर्जितघनौघम्] खूब गर्ज रहे हैं बलिष्ठ-मेघ-समूह जिसमें [भ्रश्यत्तडित्] गिर रही है बिजली और [मुसलमांसलघोरधारम्] मूसल के समान बड़ी है मोटी धारा जिसमें तथा [अदभ्रभीम] अत्यंत भयंकर [यत्] जो [दुस्तरवारि] अथाह जल [मुक्तम्] वर्षाया था [तेन] उस जलवृष्टि से [तस्य एव] उस कमठ ने ही अपने लिए [दुस्तरवारिकृत्यम्] तीक्ष्ण तलवार का काम कर लिया था ।

ध्वस्तोध्-र्वकेश-विकृताकृति-मर्त्य-मुण्ड-
प्रालम्बभृद्भयदवक्त्र-विनिर्यदग्नि: ।
प्रेतव्रज: प्रति भवन्तमपीरितो य:,
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भव-दु:ख-हेतु: ॥३३॥
(वास्तु छन्द)
मेघमाली मेघमाली आप बल फोरि
भेजे तुरत पिशाच-गण, नाथ-पास उपसर्ग कारण
अग्नि-जाल झलकंत मुख, धुनिकरत जिमि मत्त वारण
कालरूप विकराल-तन, मुंडमाल-हित कंठ
ह्वे निशंक वह रंक निज, करे कर्म दृढ़-गंठ ॥
अन्वयार्थ : [तेन असुरेण] उस असुर के द्वारा [ध्वस्तोध्र्वकेशविकृताकृति]मुड़े हुए तथा विकृत आकृति वाले [मर्त्यमुण्डप्रालम्बभृद्] नर कपालों की माला को धारण करने वाले [भयदवक्त्रविनिर्यदग्नि:] जिसके भयंकर मुख से अग्नि निकल रही है, ऐसा [य:] जो [प्रेतव्रज:] पिशाचों का समूह [भवन्तम् प्रति] आपके प्रति [ईरित:] प्रेरित किया गया था [स:] वह [अस्य] उस असुर को [प्रतिभवम्] प्रत्येक भव में [भवदु:ख हेतु:] संसार के दु:खों का कारण [अभवत्] हुआ ।

धन्यास्त एव भुवनाधिप! ये त्रिसंध्य-
माराधयन्ति विधिवद्विधुतान्य-कृत्या: ।
भक्त्योल्लसत्पुलक-पक्ष्मल-देह-देशा:,
पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभाज: ॥३४॥
(चौपाई छन्द)
जे तुम चरण-कमल तिहुँकाल, सेवहिं तजि माया जंजाल
भाव-भगति मन हरष-अपार, धन्य-धन्य जग तिन अवतार ॥
अन्वयार्थ : [भुवनाधिप!] हे तीन लोक के नाथ! [ये] जो [जन्मभाज:] प्राणी [विधुतान्यकृत्या:] जिन्होंने अन्य काम छोड़ दिये हैं और [भक्त्या] भक्ति से [उल्लसत्] प्रकट हुए [पक्ष्मलदेहदेशा:] रोमांचों से जिनके शरीर का प्रत्येक अवयव व्याप्त है, ऐसे [सन्त:] होते हुए [विधिवत्] विधिपूर्वक [त्रिसन्ध्यम्] तीनों कालों में [तव] आपके [पादद्वयम् आराधयन्ति] चरण युगल की आराधना करते हैं । [विभो!] हे स्वामिन्! [भुवि] संसार में [ते एव] वे ही [धन्या:] धन्य हैं ।

अस्मिन्नपार-भव-वारि-निधौ मुनीश !
मन्ये न मे श्रवण-गोचरतां गतोऽसि ।
आकर्णिते तु तव गोत्र-पवित्र-मन्त्रे,
किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति ॥३५॥
भवसागर में फिरत अजान, मैं तुव सुजस सुन्यो नहिं कान
जो प्रभु-नाम-मंत्र मन धरे, ता सों विपति भुजंगम डरे ॥
अन्वयार्थ : [मुनीश!] हे मुनीन्द्र! [मन्ये] मैं समझता हूँ कि [अस्मिन्] इस [अपारभववारिनिधौ] अपार संसाररूप समुद्र में कभी भी [मे] मेरे [कर्णगोचरताम् न गत: असि] कानों की विषयता को प्राप्त नहीं हुए हो । क्योंकि [तु] निश्चय से [तव गोत्र पवित्र मन्त्रे] आपके नामरूपी मंत्र के [आकर्णिते] सुन लेने पर [विपद् विषधरी] विपत्तिरूपी नागिन [किम् वा] क्या [सविधम्] समीप [समेति] आती है ?

जन्मान्तरेऽपि तव पाद-युगं न देव !
मन्ये मया महितमीहित-दान-दक्षम् ।
तेनेह जन्मनि मुनीश! पराभवानां,
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६॥
मनवाँछित-फल जिनपद माहिं, मैं पूरब-भव पूजे नाहिं
माया-मगन फिर्यो अज्ञान, करहिं रंक-जन मुझ अपमान ॥
अन्वयार्थ : [देव!] हे देव! [मन्ये] मैं मानता हूँ कि मैंने [जन्मान्तरे अपि] दूसरे जन्म में भी [ईहितदानदक्षम्] इच्छित फल देने में समर्थ [तव पादयुगम्] आपके चरण कमल [न महितम्] नहीं पूजे, [तेन] उसी से [इह जन्मनि] इस भव में [मुनीश!] हे मुनीश! [अहम्] मैं [मथिताशयानाम्] हृदयभेदी [पराभवानाम्] तिरस्कारों का [निकेतनम्] घर [जात:] हुआ हूँ ।

नूनं न मोह-तिमिरावृतलोचनेन,
पूर्वं विभो! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि ।
मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्था:,
प्रोद्यत्प्रबन्ध-गतय: कथमन्यथैते ॥३७॥
मोहतिमिर छायो दृग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि
जो दुर्जन मुझ संगति गहें, मरम छेद के कुवचन कहें ॥
अन्वयार्थ : [विभो!] हे स्वामिन्! [मोहतिमिरावृतलोचनेन] मोहरूपी अंधकार से ढके हुए हैं नेत्र जिसके ऐसे [मया] मेरे द्वारा आप [पूर्वम्] पहले कभी [सकृद्अपि] एकबार भी [नूनम्] निश्चय से [प्रविलोकित:न असि] अच्छी तरह अवलोकित नहीं हुए हो, अर्थात् मैंने आपके दर्शन नहीं किए । [अन्यथा हि] नहीं तो [प्रोद्यत्प्रबंधगतय:] जिनमें कर्मबंध की गति बढ़ रही है ऐसे [ऐते] ये [मर्माविध:] मर्मभेदी [अनर्था:] अनर्थ [माम्] मुझे [कथम्] क्यों [विधुरयन्ती] दु:खी करते ?

आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि,
नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या ।
जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दु:खपात्रम्,
यस्मात्क्रिया: प्रतिफलन्ति न भाव-शून्या: ॥३८॥
सुन्यो कान जस पूजे पायँ, नैनन देख्यो रूप अघाय
भक्ति हेतु न भयो चित चाव, दु:खदायक किरिया बिनभाव ॥
अन्वयार्थ : [जनबान्धव!] हे जगद् बन्धो! [मया] मेरे द्वारा [आकर्णित: अपि] दर्शन किये गये हो [महित: अपि] पूजित भी हुए हो और [निरीक्षित: अपि] अवलोकित भी हुए हो फिर भी [नूनम्] निश्चय है कि [भक्त्या] भक्तिपूर्वक [चेतसि] चित्त में [न विधृत: असि] धारण नहीं किये गये हो । [तेन] उसी से [दु:खपात्रम् जात: अस्मि] दु:खों का पात्र हो रहा हूँ [यस्मात्] क्योंकि [भावशून्या:] भाव रहित [क्रिया:] क्रियाएँ [न प्रति फलन्ति] सफल नहीं होतीं ।

त्वं नाथ! दु:खि-जन-वत्सल! हे शरण्य !
कारुण्य-पुण्य-वसते! वशिनां वरेण्य ।
भक्त्या नते मयि महेश! दयां विधाय,
दुखांकुरोद्दलन-तत्परतां विधेहि ॥३९॥
महाराज शरणागत पाल, पतित-उधारण दीनदयाल
सुमिरन करहूँ नाय निज-शीश, मुझ दु:ख दूर करहु जगदीश ॥
अन्वयार्थ : [नाथ!] हे नाथ! [दु:खिजनवत्सल!] हे दुखियों पर प्रेम करने वाले [हे शरण्य] हे शरणागत प्रतिपालक! [कारुण्यपुण्य वसते!] हे दया की पवित्र भूमि! [वशिनाम् वरेण्य] हे जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ! और [महेश!] हे महेश्वर! [भक्त्या] भक्ति से [नते मयि] नम्रीभूत मुझ पर [दयाम् विधाय] दया करके [दु:खाज्र्ुर] दु:खाज्र्ुर के [उद्दलन] नाश करने में [तत्परताम्] तत्परता [विधेहि] कीजिए ।

नि:संख्य-सार-शरणं शरणं शरण्य-
मासाद्य सादित-रिपु-प्रथितावदानम् ।
त्वत्पाद-पङ्कजमपि प्रणिधान-वन्ध्यो,
वन्ध्योऽस्मि चेद्भुवन-पावन! हा हतोऽस्मि ॥४०॥
कर्म-निकंदन-महिमा सार, अशरण-शरण सुजस विस्तार
नहिं सेये प्रभु तुमरे पाय, तो मुझ जन्म अकारथ जाय ॥
अन्वयार्थ : [भुवनपावन] हे संसार को पवित्र करने वाले भगवन्! [नि:संख्यसारशरणम्] असंख्यात श्रेष्ठ पदार्थों के घर की [शरणम्] रक्षा करने वाले [शरण्यम्] शरणागत प्रतिपालक और [सादितरिपुप्रथितावदानम्] कर्मशत्रुओं के नाश से प्रसिद्ध है, पराक्रम जिनका ऐसे [त्वत्पादपज्र्जम्] आपके चरणकमलों को [आसाद्य अपि] पाकर भी [प्रणिधानबन्ध्य:] उनके ध्यान से रहित हुआ मैं [बन्ध्य: अस्मि] फलहीन हूँ [तत्] उससे [हा] खेद है कि मैं [हत: अस्मि] नष्ट हुआ जा रहा हूँ ।

देवेन्द्रवन्द्य! विदिताखिल-वस्तु-सार !
संसार-तारक! विभो! भुवनाधिनाथ! ।
त्रायस्व देव! करुणा-हृद! मां पुनीहि,
सीदन्तमद्य भयद-व्यसनाम्बुराशे: ॥४१॥
सुर-गन-वंदित दया-निधान, जग-तारण जगपति अनजान
दु:ख-सागर तें मोहि निकासि, निर्भय-थान देहु सुख-रासि ॥
अन्वयार्थ : [देवेन्द्रवन्द्य!] हे इन्द्रों के वन्दनीय! [विदिताखिलवस्तुसार!] हे सब पदार्थों के रहस्य को जानने वाले! [संसारतारक!] हे संसार समुद्र से तारने वाले! [विभो!] हे प्रभो! [भुवनाधिनाथ!] हे तीन लोक के स्वामिन्! [करुणाहृद] हे दया के सरोवर! [देव] देव! [अद्य] आज [सीदन्तम्] तड़पते हुए [माम्] मुझको [भयदव्यसनाम्बुराशे:] भयंकर दु:खों के समुद्र से [त्रायस्व] बचाओ और [पुनीहि] पवित्र करो ।

यद्यस्ति नाथ! भवदङ्घ्रि-सरोरुहाणां,
भक्ते: फलं किमपि सन्ततसञ्चिताया: ।
तन्मे त्वदेक-शरणस्य शरण्य! भूया:,
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥४२॥
मैं तुम चरण कमल गुणगाय, बहु-विधि-भक्ति करी मनलाय
जनम-जनम प्रभु पाऊँ तोहि, यह सेवाफल दीजे मोय ॥
अन्वयार्थ : [नाथ!] हे नाथ! [त्वदेकशरणस्य] केवल आप ही की है शरण जिसको ऐसे मुझे [सन्तत सञ्चिताया:] चिरकाल से सञ्चित-एकत्रित हुई [भवदंघ्रिसरोरुहाणाम्] आपके चरण कमलों की [भ्क्ते:] भक्ति का [यदि] यदि [किमपि फलम् अस्ति] कुछ फल हो, [तत्] तो उससे [शरण्य] हे शरणागत प्रतिपालक! [त्वम् एव] आप ही [अत्र भुवने] इस लोक में और [भवान्तरे अपि] परलोक में भी [स्वामि] मेरे स्वामी [भूया:] होवें ।
इत्थं समाहित-धियो विधिवज्जिनेन्द्र !
सान्द्रोल्लसत्पुलक-कञ्चुकिताङ्गभागा: ।
त्वद्बिम्ब-निर्मल-मुखाम्बुज-बद्ध-लक्ष्या,
ये संस्तवं तव विभो! रचयन्ति भव्या: ॥४३॥
जननयन 'कुमुदचन्द्र' प्रभास्वरा: स्वर्ग-सम्पदो भुक्त्वा ।
ते विगलित-मल-निचया, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥४४॥
(बेसरी छंद - षड्पद)
इहविधि श्री भगवंत, सुजस जे भविजन भाषहिं
ते निज पुण्यभंडार, संचि चिर-पाप प्रणासहिं ॥
रोम-रोम हुलसंति अंग प्रभु-गुण मन ध्यावहिं
स्वर्ग संपदा भुंज वेगि पंचमगति पावहिं ॥
यह कल्याणमंदिर कियो, कुमुदचंद्र की बुद्धि
भाषा कहत 'बनारसी', कारण समकित-शुद्धि ॥
अन्वयार्थ : [जिनेन्द्र विभो!] हे जिनेन्द्रदेव! [ये भव्या:] जो भव्यजन [इत्थम्] इस तरह [समाहितधिय:] सावधानबुद्धि से युक्त हो [त्वद्बिम्बनिर्मल-मुखाम्बुजबद्धलक्ष्या:] आपके निर्मल मुख कमल पर बांधा है लक्ष्य जिन्होंने ऐसे [सान्द्रोल्लसत्पुलककञ्चुकितांगभागा:] सघन रूप से उठे हुए रोमांचों से व्याप्त है शरीर के अवयव जिनके ऐसे [सन्त:] होते हुए [विधिवत्] विधिपूर्वक [तव] आपका [संस्तवनम्] स्तोत्र [रचयन्ति] रचते हैं, [ते] वे [जननयनकुमुदचन्द्र] हे प्राणियों के नेत्ररूपी कुमुदों-कमलों को विकसित करने के लिए चन्द्रमा की तरह शोभायमान देव! [प्रभास्वरा:] दैदीप्यमान [स्वर्गसम्पद:] स्वर्ग की सम्पत्तियों को [भुक्त्वा] भोगकर [विगलित मलनिचया:] कर्मरूपी मल से रहित हो [अचिरात्] शीघ्र ही [मोक्षम् प्रपद्यन्ते] मुक्ति को पाते हैं ।