एकीभाव-स्तोत्र
आ. वादीराज कृत, पद्य:पं भूधरदास
एकीभावं गत इव मया य: स्वयं कर्म-बन्धो,
घोरं दु:खं भव-भव-गतो दुर्निवार: करोति ॥
तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे! भक्तिरुन्मुक्तये चे-
ज्जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतु: ॥१॥
यो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी ।
जो मुझ-कर्म प्रबंध करत भव भव दुःख भारी ॥
ताहि तिहांरी भक्ति जगतरवि जो निरवारै ।
तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदारै ॥१॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र! जबकि आपकी समीचीन भक्ति के द्वारा चिर-परिचित और अत्यन्त दु:खदायी एवं आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह मिले हुए कर्म-बंधन भी दूर किये जाते हैं, तब दूसरा ऐसा कौन सा संताप का कारण है जो कि उस भक्ति के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता ?
ज्योतीरूपं दुरित-निवहध्वान्त-विध्वंस-हेतुं,
त्वामेवाहुर्जिनवर! चिरं तत्त्व-विद्याभियुक्ता:
चेतोवासे भवसि च मम स्फार-मुद्भासमान-
स्तस्मिन्नंह: कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे॥२॥
तुम जिन जोतिस्वरुप दुरित अँधियारि निवारी ।
सो गणेश गुरु कहें तत्त्व-विद्याधन-धारी ॥
मेरे चित्त घर माहिं बसौ तेजोमय यावत ।
पाप तिमिर अवकाश तहां सो क्यों करि पावत ॥२॥
अन्वयार्थ : हे नाथ जब आपको, अतिशय बुद्धि के धारक गणधरादि देवों ने, पापरूपी अंधकार को नाश करने के लिए सूर्य के समान कहा है और आप मेरे मन-मंदिर में अच्छी तरह से प्रकाशमान भी हो रहे हैं, तब उसमें पापरूपी अंधकार कैसे ठहर सकता है ?
आनन्दाश्रु-स्नपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्,
यश्चायेत त्वयि दृढ-मना: स्तोत्र-मन्त्रैर्भवन्तम्
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक-मध्यान्-
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधय: काद्रवेया:॥३॥
आनँद-आँसू वदन धोंय तुम जो चित्त आने ।
गदगद सरसौं सुयश मन्त्र पढ़ि पूजा ठानें ॥
ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी ।
भाजें थानक छोड़ देह बांबइ के वासी ॥३॥
अन्वयार्थ : आपके चित्त में प्रवेश करने पर, मन गदगद होने से आनन्द-अश्रुओं से मुख को भिगोते हुए सरसों और प्रकृष्ट मन्त्रों द्वारा जिसने आपकी पूजा की ठान ली उसके अनेक प्रकार की चिरकाल की व्याधियाँ उसी प्रकार दूर हो जाती हैं जैसे कि मन्त्रों द्वारा वाम्बी से सर्प निकाल दिया जाता है ।
प्रागेवेह त्रिदिव-भवनादेष्यता भव्यपुण्यात्,
पृथ्वी-चक्रं कनकमयतां देव! निन्ये त्वयेदम् ।
ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वान्तगेहं प्रविष्ट-
स्तत्किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि ॥४॥
दिवि तें आवन-हार भये भवि भाग-उदय बल ।
पहले ही सुर आय कनकमय कीन महीतल ॥
मन-गृह ध्यान-दुवार आय निवसो जगनामी ।
जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी ॥४॥
अन्वयार्थ : जब कि आपके स्वर्गलोक से माता के गर्भ में आने के छह महीने पहले ही देवों ने इस पृथ्वीमण्डल को सुवर्णमय बना दिया, तो फिर जिसके अन्त:करणरूप मंदिर के ध्यान द्वार द्वारा आप प्रविष्ट हो जाएं उसका शरीर यदि सुवर्णमय हो जाय तो इसमें क्या आश्चर्य है ?
लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निर्निमित्तेन बन्धु-
स्त्वय्येवासौ सकल-विषया शक्तिरप्रत्यनीका ।
भक्ति-स्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्त-शय्यां
मय्युत्पन्नं कथमिव तत: क्लेश-यूथं सहेथा: ॥५॥
प्रभु सब जग के बिना-हेतु बांधव उपकारी ।
निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहांरी ॥
भक्ति रचित मम चित्त सेज नित वास करोगे ।
मेरे दुःख-संताप देख किम धीर धरोगे ॥५॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! आप संसारी जीवों के अकारण बंधु हैं और आपकी सकल पदार्थ विषयक यह अपूर्व एवं अनन्तशक्ति प्रतिपक्षी कर्मों के प्रतिघात से रहित है, क्योंकि वह कर्म के क्षय से उत्पन्न हुई है। फिर आप चिरकाल तक हमारे पवित्र मन-मंदिर में निवास करते हुए भी क्या दु:खों को नाश नहीं करेंगे अर्थात् अवश्य ही करेंगे। जो भद्र मानव आपका भक्तिपूर्वक निरन्तर ध्यान एवं चिन्तन करता है उसके दु:ख दूर होना तो सहज ही है किन्तु उसके जटिल कर्मों का बंधन भी ढीला पड़ कर नष्ट हो जाता है और आत्मा विकसित होता हुआ परमात्मा पद को प्राप्त कर लेता है।
जन्माटव्यां कथमपि मया देव! दीर्घं भ्रमित्वा,
प्राप्तैवेयं तव नय-कथा स्फार-पीयूष-वापी ।
तस्या मध्ये हिमकर-हिम-व्यूह-शीते नितान्तं,
निर्मग्नं मां न जहति कथं दु:ख-दावोपतापा: ॥६॥
भव वन में चिरकाल भ्रम्यों कछु कहिय न जाई ।
तुम थुति-कथा-पियूष-वापिका भाग से पाई ॥
शशि तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम ।
करत न्हौन ता माहिं क्यों न भवताप बुझै मम ॥६॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन्! मुझे इस संसाररूप विषम अटवी में भ्रमण करते हुए और दु:खों को सहते हुए अनन्तकाल बीत गया है। अब मुझे बड़े भारी भाग्योदय से यह आपकी स्याद्वादरूप अमृतरस से भरी हुई वापिका बावड़ी प्राप्त हुई है जो चन्द्रमा और बर्फ़ से भी अत्यन्त शीतल है। ऐसी वापिका में उन्मज्जन करते हुए मेरे क्या थोड़े से दु:ख सन्ताप दूर न होंगे?
पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं,
हेमाभासो भवति सुरभि: श्रीनिवासश्च पद्म: ।
सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे,
श्रेय: किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति ॥७॥
श्रीविहार परिवाह होत शुचिरुप सकल जग ।
कमल कनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग ॥
मेरो मन सर्वंग परस प्रभु को सुख पावे ।
अब सो कौन कल्यान जो न दिन-दिन ढिग आवे ॥७॥
अन्वयार्थ : सकल परमात्मा अरहंत जब जीवन्मुक्तरूप सयोगकेवली अवस्था में विहार करते हैं तब उनके विहार से तीनों लोक पवित्र हो जाते हैं और देवगण उनके पवित्र चरणों के नीचे कमलों की रचना कर दिया करते हैं और वे कमल जब जिनेन्द्र देव के चरणों के स्पर्श से सुवर्ण सी कान्ति वाले सुगंधित एवं लक्ष्मी के निवास बन जाते हैं, तब मेरा मन आपको सर्वाङ्ग रूप से स्पर्श कर रहा है अर्थात् मेरे मन मंदिर में चैतन्य जिनप्रतिमा का सर्वाङ्गरूप से स्पर्श हो रहा है अतएव मुझे कल्याणकों का प्राप्त होना उचित ही है। जो भव्यप्राणी जिनेन्द्र भगवान का निष्कपट रूप से भक्तिपूर्वक स्मरण, चिंतन एवं ध्यान करता है उसे सर्व सुख प्राप्त होते ही हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है
पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्ति-पात्र्या पिबन्तं,
कर्मारण्यात्-पुरुष-मसमानन्द-धाम-प्रविष्टम् ।
त्वां दुर्वार-स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमिं,
क्रूराकारा: कथमिव रुजा कण्टका निर्लुठन्ति ॥८॥
भव तज सुख पद बसे काम मद सुभट संहारे ।
जो तुमको निरखंत सदा प्रिय दास तिहांरे ॥
तुम-वचनामृत-पान भक्ति अंजुलि सों पीवै ।
तिन्हैं भयानक क्रूर रोगरिपु कैसे छीवै ॥८॥
अन्वयार्थ : हे भगवन्! कर्मरूपी वन से निकलकर आपने अनुपम अनंत सुखस्वरूप आनन्दधाम को प्राप्त किया है तथा आप दुर्जय कामदेव के मद को हरण करने वाले हैं। आपको देखने वाले और भक्तिरूपी पात्र से आपके अमृतरूपी वचनों को पाने वाले भव्यपुरुषों को फिर क्रूर आकार वाले रोग रूपमयी काँटे कैसे पीड़ा दे सकते हैं? अर्थात् नहीं दे सकते
पाषाणात्मा तदितरसम: केवलं रत्न-मूर्ति-
र्मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्न-वर्ग: ।
दृष्टि-प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां,
प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतु: ॥९॥
मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर ।
ऐसे और अनेक रतन दीखें जग अंतर ॥
देखत दृष्टि प्रमान मानमद तुरत मिटावे ।
जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावे ॥९॥
अन्वयार्थ : पत्थर का बना हुआ मानस्तंभ भी दूसरे साधारण पत्थरों के समान ही है। रत्नमय होना उसकी कोई विशेषता नहीं कही जा सकती, क्योंकि उसके समान और भी रत्न होते हैं परन्तु उनमें मान हरण करने की शक्ति नहीं होती, इस कारण से मानस्तंभ में मनुष्यों के मान हरण करने की शक्ति का अस्तित्व मालूम नहीं होता। अतएव यह स्पष्ट है कि उसकी ऐसी शक्ति में आपकी समीपता ही कारण है। यदि आपकी समीपता न होती तो गौतम जैसे महामानी विद्वानों का अभिमान कैसे दूर होता? इस कारण उस रत्नमयी मानस्तंभ में यह अपूर्वशक्ति आपके प्रसाद से ही प्राप्त हुई जान पड़ती है
हृद्य: प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्ति-शैलोपवाही,
सद्य: पुंसां निरवधि-रुजा धूलिबन्धं धुनोति ।
ध्यानाहूतो हृदय-कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्ट-
स्तस्याशक्य: क इह भुवने देव! लोकोपकार: ॥१०॥
प्रभुतन पर्वत परस पवन उर में निबहे है ।
ता सों तत छिन सकल रोग रज बाहिर ह्वै है ॥
जा के ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं ।
कौन जगत उपकार-करन समरथ सो नाहीं ॥१०॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! जबकि आपके शरीर के पास से बहने वाली वायु भी, लोगों के तरह-तरह के रोग दूर कर देती है, तब आप जिस भव्यपुरुष के हृदय में विराजमान हो जाते हैं वह संसार के प्राणियों का कौन सा उपकार नहीं कर सकता-अर्थात् लोक की सच्ची-सजीव सेवा करना अथवा आहार पान, औषधादि के द्वारा दीन दु:खियों की सेवा कर उन्हें दु:ख से उन्मुक्त करना तो सरल है परन्तु जब कोई भद्रमानव जिनेन्द्र भगवान को अपने हृदयवर्ती बना लेता है अर्थात् चैतन्य जिनप्रतिमा को अपने हृदय-कमल में अंकित कर लेता है और स्तुति पूजा-ध्यानादि के द्वारा उनके पवित्र गुणों का स्तवन-पूजन वंदनादि किया करता है एवं उनके नक्शे कदम पर चलकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने लगता है तब उस भव्य पुरुष के अनादिकालीन कर्मबंधन भी उसी तरह शिथिल होने लगते हैं जिस तरह चन्दन के वृक्ष पर मोर के आने पर सर्पों के बंधन ढीले पड़ कर नीचे खिसकने लगते हैं
जानासि त्वं मम भवे-भवे यच्च यादृक्च दु:खं,
जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि ।
त्वं सर्वेश: सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या,
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव! एव प्रमाणम् ॥११॥
जनम जनम के दुःख सहे सब ते तुम जानो ।
याद किये मुझ हिये लगें आयुध से मानों ॥
तुम दयाल जगपाल स्वामि मैं शरन गही है ।
जो कुछ करनो होय करो परमान वही है ॥११॥
अन्वयार्थ : हे भगवन्! इस चतुर्गति रूप संसार में अनादिकाल से भ्रमण करते हुए मैंने जो घोर दु:ख भोगे हैं और भोग रहा हूँ, जिनका स्मरण करना भी शस्त्र घात के समान दु:खदाई है। उनको आप अच्छी तरह से जानते ही हैं। आप सिर्फ़ जानते ही नहीं हैं किन्तु सबके अकारण बंधु और दयालु हैं। इसीलिए मैं भक्तिपूर्वक आपकी शरण में आया हूँ। ऐसी दशा में मुझे क्या करना चाहिए? यह आप ही समझ सकते हैं। मैंने तो अपनी दशा आपके सामने प्रकट करा दी है
प्रापद्दैवं तव नुति-पदैर्जीवकेनोपदिष्टै:,
पापाचारी मरण-समये सारमेयोऽपि सौख्यम् ।
क: सन्देहो यदुपलभते वासव-श्री-प्रभुत्वं,
जल्पञ्जाप्यैर्मणिभिरमलैस्-त्वन्-नमस्कार-चक्रम् ॥१२॥
मरन-समय तुम नाम मंत्र जीवक तें पायो ।
पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो ॥
जो मणिमाला लेय जपे तुम नाम निरंतर ।
इन्द्र-सम्पदा लहे कौन संशय इस अंतर ॥१२॥
अन्वयार्थ : जबकि एक पापी कुत्ता भी मृत्यु के समय जीवन्धर कुमार द्वारा बताये हुए मंत्राऽक्षरों के ध्यान से यक्षों का स्वामी यक्षेन्द्र हो सकता है तब निर्मल मणियों के द्वारा आपके नमस्कारमंत्र का ध्यान करने वाला भद्र मानव यदि इन्द्र की विभूति को प्राप्त कर ले तो इसमें क्या आश्चर्य है अर्थात् कुछ नहीं है
शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा,
भक्तिर्नो चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम् ।
शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो,
मुक्ति-द्वारं परिदृढ-महामोह-मुद्रा-कवाटम् ॥१३॥
जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै ।
अनवधि सुख की सार भक्ति कूंची नहिं लांघे ॥
सो शिव वांछक पुरुष मोक्ष पट केम उघारे ।
मोह मुहर दिढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारै ॥१३॥
अन्वयार्थ : विशुद्धज्ञान और निर्मल चारित्र के रहते हुए भी यदि जिनेन्द्र को भक्तिमय अथवा सम्यग्दर्शनरूप-कुंजी नहीं है तो फिर महा मिथ्यात्वरूप मुद्रा से अंकित मोक्षमंदिर का द्वार कैसे खोला जा सकता है? अर्थात् भक्तिरूपी कुंचिका के बिना मुक्तिद्वार का खुलना नितान्त कठिन है परन्तु जिस भद्रमानव के पास जिनेन्द्र की भक्तिरूपी अथवा सम्यग्दर्शनरूपी कुंजी है, वह बहुत जल्दी ही मुक्ति को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन मोक्षमहल की पहली सीढ़ी है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र भी मिथ्या कहलाते हैं अत: मुक्ति के इच्छुक पुरुषों को सबसे पहले सम्यग्दर्शन का प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है
प्रच्छन्न: खल्वय-मघ-मयैरन्धकारै: समन्तात्,
पन्था मुक्ते: स्थपुटित-पद: क्लेश-गर्तैरगाधै: ।
तस्कस्तेन व्रजति सुखतो देव! तत्त्वावभासी,
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारती रत्न-दीप: ॥१४॥
शिवपुर केरो पंथ पाप-तम सों अतिछायो ।
दुःख सरुप बहु कूप-खाई सों विकट बतायो ॥
स्वामी सुख सों तहां कौन जन मारग लागें!
प्रभु-प्रवचन मणि दीप जोन के आगे आगे ॥१४॥
अन्वयार्थ : हे देव! मुक्ति का मार्ग मिथ्यात्वरूप अज्ञान अंधकार से व्याप्त है, आच्छादित है और अगाध दु:खरूप गड्ढों से विषम है, दुष्प्रवेश है। ऐसा होने पर भी यदि सप्ततत्त्वों के स्वरूप को प्रकाशित करने वाला अथवा सप्त तत्त्वों के द्वारा मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाला-आपकी पवित्र दिव्यध्वनिरूप वाणीरूपी दीपक का प्रकाश आगे-आगे नहीं होता, तो ऐसा कौन पुरुष है जो आपकी वाणीरूप दीपक के प्रकाश के बिना ही उस कंटकाकीर्ण विषम मार्ग से सुखपूर्वक गमन कर सकता है? और अपने इष्टस्थान को सुगमता से प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है अर्थात् कोई नहीं। अस्तु: हे नाथ! आपकी पवित्र वाणीरूपी दीपक के प्रकाश से ही संसारी जीव हेयोपादेयरूप तत्वों का परिज्ञान करते हैं और उसी के अनुकूल आचरण कर कर्मबंधन से छूटने का उपाय करते हैं। अर्थात् मोक्ष के साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण करते हैं उन्हें अपने जीवन में उतारते हैं साथ ही रत्नत्रय की पूर्णता एवं परम प्रकर्षता से ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों का समूल नाशकर कृत-कृत्य अवस्था को प्राप्त करते हैं और अनन्तकाल तक उस आत्मोत्थ अव्याबाध निराकुल सुख का अनुभव करते रहते हैं। यह सब वीतराग भगवान की उस दिव्यवाणी का ही माहात्म्य एवं प्रभाव है
आत्म-ज्योतिर्निधि-रनवधि-र्द्रष्टुरानन्द-हेतु:,
कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितो योऽनवाप्य: परेषाम् ।
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाज:,
स्तोत्रैर्बन्ध-प्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-खनित्रै: ॥१५॥
कर्म पटल भू माहिं दबी आतम निधि भारी ।
देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी ॥
तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै ।
थुति कुदाल सों खोद बंद भू कठिन विदारै ॥१५॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार पृथ्वी में गड़े हुए धन को कुदाल से कठोर भूमि को खोदकर निकाल लेते हैं, ठीक उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मरूप पुद्गल पिण्डों से आच्छादित अपनी ज्ञानादिरूप आत्मसम्पदा को आपके पवित्र स्तवनरूप कुदाल से कर्मबंधनरूप अतिशय कठोर भूमि को खोदकर निकाल लेते हैं परन्तु मिथ्यादृष्टियों को वह नहीं प्राप्त होती
प्रत्युत्पन्ना नय-हिमगिरे-रायता चामृताब्धे:,
या देव! त्वत्पद-कमलयो: संगता भक्ति-गङ्गा
चेतस्तस्यां मम रुचि-वशादाप्लुतं क्षालितांह:,
कल्माषं यद्भवति किमियं देव! सन्देह-भूमि:॥१६॥
स्याद् वाद-गिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई ।
तुम चरणांबुज परस भक्ति गंगा सुखदाई ॥
मो चित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरव तामें ।
अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय या में ॥१६॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! स्याद्वादनयरूप हिमालय से निकली और मोक्षरूपी समुद्र तक लम्बी यह आपकी भक्तिरूपी गंगा मुझे बड़े भारी भाग्योदय से प्राप्त हुई है, गंगा में स्नान करने से जिस तरह शरीर का बाह्य मैल धुल जाता है और वह स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार आपकी भक्तिरूपी गंगा में स्नान करने से, उसमें गोता लगाने से यदि मेरे अन्त:करण की पापरूप कालिका धुलकर मेरा मन पवित्र-राग-द्वेषादि विभावभावों से रहित निर्विकार हो जाये, तो इसमें क्या संदेह है? अर्थात् कुछ नहीं है
प्रादुर्भूत-स्थिर-पद-सुख त्वामनुध्यायतो मे,
त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा ।
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्ति-मभ्रेषरूपां,
दोषात्मानोऽप्यभिमत-फलास्त्वत्-प्रसादाद्भवन्ति ॥१७॥
तुम शिव सुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो ।
मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो ॥
यदपि झूठ है तदपि त्रप्ति निश्चल उपजावे ।
तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावे ॥१७॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! आपके पवित्र ज्ञानादि अनंत गुणों का ध्यान एवं चिन्तन करते-करते जो परमात्मा है सो मैं हूँ सो परमात्मा है जब ऐसी निर्विकल्पात्मक अभेद बुद्धि उत्पन्न हो जाती है सो यद्यपि यह मिथ्या है तो भी निश्चल आनन्द को प्रकट करती है। बहुत कहने से क्या, सदोषी पतितात्मा पुरुष भी आपके सामीप्य एवं प्रसाद से अभिमतफल को प्राप्त करते ही हैं
मिथ्यावादं मल-मपनुदन्सप्तभङ्गी-तरङ्गै-
र्वागम्भोधि-र्भुवन-मखिलं देव! पर्येति यस्ते ।
तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्चेतसैवाचलेन,
व्यातन्वन्त: सुचिर-ममृतासेवया तृप्नुवन्ति ॥१८॥
वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापे ।
भंग-तरंगिनि विकथ-वाद-मल मलिन उथापे ॥
मन सुमेरु सों मथे ताहि जे सम्यग्ज्ञानी ।
परमामृत सों तृप्त होहिं ते चिरलों प्रानी ॥१८॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! सप्तभंगरूपतरंगों से अथवा अनेकांत के माहात्म्य से शरीरादिक बाह्य पदार्थों में आत्मत्व बुद्धिरूपी जीव के विपरीताभिनिवेश को दूर करने वाले आपके वचन समुद्र का जो भव्य प्राणी निरन्तर अभ्यास मनन एवं परिशीलन करता है अर्थात् आगमोक्त विधि से अभ्यास कर चित्त की निश्चलतारूप परम समाधि को प्राप्त करता है वह शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है और अनन्तकाल तक यहाँ सुख में मग्न रहता है। यह सब आपके वचन समुद्र का ही माहात्म्य है
आहार्येभ्य: स्पृहयति परं य: स्वभावादहृद्य:,
शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्य: ।
सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्य: परेषां,
तत्किं भूषा-वसन-कुसुमै: किं च शस्त्रैरुदस्त्रै: ॥१९॥
जो कुदेव छविहीन वसन भूषन अभिलाखे ।
वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे ॥
तुम सुंदर सर्वांग शत्रु समरथ नहिं कोई ।
भूषन वसन गदादि ग्रहन काहे को होई ॥१९॥
अन्वयार्थ : आचार्य वादिराज ने इस श्लोक में सच्चे देव का यथार्थ स्वरूप दिखलाते हुए जिनेन्द्र देव की अन्य हरिहरादिक देवों से सर्वोत्कृष्टता प्रकट की है, उन्हें ही निर्दोष और वास्तविक देव बताया है, क्योंकि संसार में बहुत से जीव अपनी अज्ञतावश देवत्वविहीन पुरुषों में भी देव की कल्पना कर लेते हैं। जिनका चित्त राग-द्वेष से मलिन है, दूषित है-जो स्वभाव से ही कांतिहीन एवं अमनोज्ञ है और अनेक प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों से सुसज्जित हैं-अथवा बहुमूल्य वस्त्राभूषण और स्त्री, गदा आदि अस्त्रों से जिनकी पहचान होती है, जो नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों से शरीर को अलंकृत करने की इच्छा करते हैं, जिन्हें शत्रुओं से सदा भय बना रहता है अतएव गदा-त्रिशूल आदि अस्त्रों को धारण किए हुए हैं, जैनधर्म ऐसे भेषी रागी-द्वेषी पुरुषों को देव नहीं कहता और न उनमें देवत्व का वास्तविक लक्षण ही घटित होता है। परन्तु जिनेन्द्र भगवान स्वभाव से ही मनोज्ञ हैं-कान्तिवान् हैं अत: वे कृत्रिम वस्त्राभूषणों से शरीर को अलंकृत नहीं करते हैं उन्होंने देह भोगों का खुशी-खुशी त्याग किया है और मोह शत्रु पर विजय प्राप्त की है। इसके सिवाय उन्हें किसी शत्रु आदि का कोई भय नहीं है और न संसार में उनका कोई शत्रु-मित्र ही है, वे सबको समानदृष्टि से देखते हैं, चाहे पूजक और निंदक कोई भी क्यों न हो, किसी से भी उनका राग-द्वेष नहीं है। उनके आत्मतेज या तपश्चरण विशेष की सामर्थ्य से कट्टर बैरी भी अपने बैर-विरोध को छोड़कर शान्त हो जाते हैं अत: ऐसे पूर्ण अहिंसक, परम वीतराग और क्षीणमोही परमात्मा को सुन्दर वस्त्राभूषणों और अस्त्र-शस्त्रों से क्या प्रयोजन हो सकता है? अर्थात् कुछ नहीं
इन्द्र: सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते,
तस्यैवेयं भव-लय-करी श्लाघ्यता-मातनोति ।
त्वं निस्तारी जनन-जलधे: सिद्धि-कान्ता-पतिस्त्वं,
त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाघ्यते स्तोत्रमित्थम् ॥२०॥
सुरपति सेवा करे कहा प्रभु प्रभुता तेरी ।
सो सलाघना लहै मिटे जग सों जग फेरी ॥
तुम भव जलधि जिहाज तोहि शिव कंत उचरिये ।
तुही जगत-जनपाल नाथ थुति की थुति करिये ॥२०॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! इन्द्र आपकी सेवा, वन्दना, पूजा, स्तुति आदि करता है, केवल इसी से आपकी कोई महत्ता और प्रशंसा नहीं हो सकती है, क्योंकि इन्द्र तो आपकी समीचीन भक्ति एवं स्तुति, पूजादि से महान पुण्य का संचय करता है और वह भक्ति उसके लिए भवलयकरी संसार का नाश करने वाली होती है। इसी से वह एक भवावतारी हो जाता है अर्थात् मनुष्य का एक भव धारण करके ही मोक्ष चला जाता है परन्तु आप संसार-समुद्र से स्वयं तरने और तारने वाले हैं और मुक्तिरूपी लक्ष्मी के अधिपति हैं तथा संसार के समस्त जीवों के अकारण बंधु हैं-उन्हें संसार के दु:खों से छुटाने वाले हैं और हेयोपादेयरूप तत्वों का परिज्ञान कराते हैं इसलिए आप उनके प्रभु हैं, आपने जिस उच्च आदर्श को प्राप्त किया है वही संसारी जीवों के द्वारा प्राप्त करने योग्य हैं, इन्हीं सब कारणों से आपकी महत्ता एवं प्रभुता संसार में प्रकट होती है
वृत्तिर्वाचामपर-सदृशी न त्वमन्येन तुल्य:,
स्तुत्युद्गारा: कथमिव ततस्त्वय्यमी न: क्रमन्ते ।
मैवं भूवंस्तदपि भगवन्! भक्ति-पीयूष-पुष्टा-
स्ते भव्यानामभिमत-फला: पारिजाता भवन्ति ॥२१॥
वचन जाल जड़ रुप आप चिन्मूरति झांई ।
तातैं थुति आलाप नाहिं पहुंचे तुम तांई ॥
तो भी निर्फल नाहिं भक्ति रस भीने वायक ।
संतन को सुर तरु समान वांछित वरदायक ॥२१॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! हमारे वचनों की प्रवृत्ति अन्य अल्पज्ञ जीवों के समान ही है परन्तु आप राग-द्वेषादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुके हैं अत: आपकी तुलना अन्य अल्पज्ञ संसारी जीवों से नहीं की जा सकती है, क्योंकि आप सच्चिदानन्द, परमब्रह्म परमात्मा हैं। यद्यपि हमारे स्तुतिरूपी उद्गार आपके समीप तक नहीं पहुँचते हैं, तो भी आपकी समीचीन भक्तिरूप-अमृत से पुष्ट हुए ये स्तुतिरूप उद्गार भव्य जीवों के लिए कल्पवृक्ष के समान इच्छित फल के देने वाले होते हैं
कोपावेशो न तव न तव क्वापि देव! प्रसादो,
व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयै-वानपेक्षम् ।
आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधि-र्वैर-हारी,
क्वैवं भूतं भुवन-तिलक! प्राभवं त्वत्परेषु ॥२२॥
कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहूं नहिं धारो ।
अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहांरो ॥
तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये ।
यह प्रभुता जगतिलक कहां तुम बिन सरदहिये ॥२२॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! आपको न किसी से राग और न द्वेष, आप न किसी पर प्रसन्न ही होते हैं और न किसी को अपने क्रोध का भाजन ही बनाते हैं, क्योंकि आप परम वीतरागी हैं, राग-द्वेषादि के अभावरूप परम उपेक्षाभाव को अंगीकार किए हुए हैं परन्तु फिर भी, आपकी आज्ञा त्रैलोक्यवर्ती जीवों के द्वारा मान्य है तथा आपकी समीपता वैर-विरोध का नाश करने वाली है। साथ ही, आपकी प्रशांत मुद्रा मुमुक्षु जीवों के लिए साक्षात् मोक्षमार्ग को प्रकट करती है, उसके ध्यान एवं चिंतन से भव्यात्मा आत्मा के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान करते हैं और उसी तरह चैतन्य जिनप्रतिमा बनने का अभ्यास करते हैं अतएव जैसा प्रभाव आपका है वैसा अन्य हरिहरादिक देवों का कहाँ हो सकता है? क्योंकि वे रागी-द्वेषी हैं, अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर अनुग्रह करते हैं और निंदकों पर रुष्ट होते हैं उन्हें शाप दे देते हैं परन्तु हे देव! ये सब बातें आप में नहीं हैं, पूजक और निन्दकों पर आपका समान भाव रहता है क्योंकि आप जिन हैं, इन सब विकारों को जीत चुके हैं अत: आप जैसा प्रभाव अन्य किसी भी देवी-देवता का नहीं हो सकता है
देव! स्तोतुं त्रिदिव-गणिका-मण्डली-गीत-कीर्तिं,
तोतूर्ति त्वां सकल-विषय-ज्ञान-मूर्तिंर्जनो य: ।
तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्था-
स्तत्त्वग्रन्थ-स्मरण-विषये नैष मोमूर्ति मत्र्य: ॥२३॥
सुरतिय गावें सुजश सर्वगत ज्ञान स्वरुपी ।
जो तुमको थिर होहिं नमैं भवि आनंद रुपी ॥
ताहि छेमपुर चलन वाट बाकी नहिं हो हैं ।
श्रुत के सुमरन माहिं सो न कबहूं नर मोहै ॥२३॥
अन्वयार्थ : हे भगवन्! जो भद्र मानव आपकी समीचीन भक्ति करता है और आपके पवित्र अनन्तज्ञानादि गुणों की स्तुति करता है, उनका चिन्तवन और मनन करता है, वह शीघ्र ही कर्मबंधन को काटकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है और कर्मबंध के विनाश से पूर्णज्ञानी होता हुआ फिर कभी भी अज्ञान को प्राप्त नहीं होता है
चित्ते कुर्वन्निरवधि-सुख-ज्ञान-दृग्वीर्य-रूप,
देव! त्वां य: समय-नियमादाऽऽदरेण स्तवीति ।
श्रेयोमार्गं स खलु सुकृती तावता पूरयित्वा,
कल्याणानां भवति विषय: पञ्चधा पञ्चितानाम् ॥२४॥
अतुल चतुष्टय रूप तुम्हें जो चित में धारे ।
आदर सों तिहुं काल माहिं जग थुति विस्तारे ॥
सो सुकृत शिव पंथ भक्ति रचना कर पूरे ।
पंच कल्यानक ऋद्धि पाय निहचै दुःख चूरे ॥२४॥
अन्वयार्थ : अनन्तचतुष्टयस्वरूप हे नाथ! जो भव्य पुरुष आपका आदरपूर्वक भक्ति से स्तवन करता है, वह पुण्यात्मा पंचकल्याणकों का पात्र होता हुआ मोक्षमार्ग का नेता होता है
भक्ति-प्रह्व-महेन्द्र-पूजित-पद! त्वत्कीर्तने न क्षमा:
सूक्ष्म-ज्ञान-दृशोऽपि संयमभृत: के हन्त मन्दा वयम् ।
अस्माभि: स्तवन-च्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते
स्वात्माधीन-सुखैषिणां स खलु न: कल्याण-कल्पद्रुम: ॥२५॥
अहो जगत पति पूज्य अवधि ज्ञानी मुनि हारे ।
तुम गुन कीर्तन माहिं कौन हम मंद विचारे ॥
थुति छल सों तुम विषै देव आदर विस्तारे ।
शिव सुख-पूरनहार कलपतरु यही हमारे ॥२५॥
अन्वयार्थ : हे नाथ! आप जैसे परमयोगीन्द्र की, जब द्वादशांग का पाठी इन्द्र भक्तिपूर्वक स्तुति करता है और चार ज्ञान के धारक गणधरादिक भी आपको अपनी स्तुति का विषय बनाते हैं तथा अनेक ऋद्धियों के धारक क्षीणकाय मुनिपुंगव भी जब आपके गुणों की स्तुति करते हैं, तो भी वह पूर्णतया आपकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हो पाते, ऐसी अवस्था में आचार्य वादिराज अपनी लघुता प्रकट करते हुए कहते हैं कि तब मुझ जैसा मन्दमति पुरुष आप जैसे जगद्वन्द्य परमात्मा की स्तुति करने में कैसे समर्थ हो सकता है? अस्तु, आपके गुणों में जो अनुराग प्रकट किया है-भक्ति से इस स्तवनरूप पुष्पमाला को गूँथा है, सो उक्त गुणानुराग ही आत्महितैषी मोक्ष के इच्छुक हम जैसे पुरुषों का कल्याण करने वाला हो, अथवा मेरी आत्मोन्नति में सहायक हो
वादिराजमनु शाब्दिक-लोको, वादिराजमनु तार्किक-सिंह:
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते, वादिराजमनु भव्य-सहाय: ॥२६॥
वादिराज मुनि तें अनु, वैयाकरणी सारे ।
वादिराज मुनि तें अनु, तार्किक विद्यावारे ॥
वादिराज मुनि तें अनु, हैं काव्यन के ज्ञाता ।
वादिराज मुनि तें अनु, हैं भविजन के त्राता ॥२६॥
(दोहा)
मूल अर्थ बहु विधि कुसुम, भाषा सूत्र मँझार ।
भक्ति माल 'भूधर' करी, करो कंठ सुखकार ॥