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द्रष्टयशतक-स्तोत्र
द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि
भव्यात्मनां विभव-संभव-भूरिहेतु ।
दुग्धाब्धि-फेन-धवलोज्जल-कूटकोटी-
नद्ध-ध्वज-प्रकर-राजि-विराजमानम् ॥1॥

द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भुवनैकलक्ष्मी-
धामर्द्धिवर्द्धित-महामुनि-सेव्यमानम् ।
विद्याधरामर-वधूजन-मुक्तदिव्य-
पुष्पाज्जलि-प्रकर-शोभित-भूमिभागम् ॥2॥

द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भवनादिवास-
विख्यात-नाक-गणिका-गण-गीयमानम् ।
नानामणि-प्रचय-भासुर-रश्मिजाल-
व्यालीढ-निर्मल-विशाल-गवाक्षजालम् ॥3॥

द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं सुर-सिद्ध-यज्ञ-
गन्धर्व-किन्नर-करार्पित-वेणु-वीणा ।
संगीत-मिश्रित-नमस्कृत-धारनादै-
रापूरिताम्बर-तलोरु-दिगन्तरालम् ॥4॥

द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं विलसद्विलोल-
मालाकुलालि-ललितालक-विभ्रमाणम् ।
माधुर्यवाद्य-लय-नृत्य-विलासिनीनां
लीला-चलद्वलय-नूपुर-नाद-रम्यम् ॥5॥

द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं मणि-रत्न-हेम-
सारोज्ज्वलैः कलश-चामर-दर्पणाद्यैः ।
सन्मंगलैः सततमष्टशत-प्रभेदै-
र्विभ्राजितं विमल-मौक्तिक-दामशोभम् ॥6॥

द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं वरदेवदारु-
कर्पूर-चन्दन-तरुष्क-सुगन्धिधूपैः ।
मेघायमानगगने पवनाभिवात-
चञ्चच्चलद्विमल-केतन-तुंग-शालम् ॥7॥

द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं धवलातपत्र-
च्छाया-निमग्न-तनु-यक्षकुमार-वृन्दैः ।
दोधूयमान-सित-चामर-पंक्तिभासं
भामण्डल-द्युतियुत-प्रतिमाभिरामम् ॥8॥

द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं विविधप्रकार-
पुष्पोपहार-रमणीय-सुरत्नभूमिः ।
नित्यं वसन्ततिलकश्रियमादधानं
सन्मंगलं सकल-चन्द्रमुनीन्द्र-वन्द्यम् ॥9॥

द्दष्टं मयाद्य मणि-काञ्चन-चित्र-तुंग-
सिंहासनादि-जिनबिम्ब-विभूतियुक्तम् ।
चैत्यालयं यदतुलं परिकीर्तितं मे
सन्मंगलं सकल-चन्द्रमुनीन्द्र-वन्द्यम् ॥10॥