अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
तत्र तावत्समय एवाभिधीयते - योऽयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावे अवतिष्ठमानत्वात् उत्पादव्ययध्रौव्यैक्यानुभूतिलक्षणया सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदितविशददृशिज्ञप्तिज्योतिरनंतधर्माधिरूढैकधर्मित्वादुद्योत-मानद्रव्यत्व: क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्याय: स्वपराकारावभासनसमर्थ-त्वादुपात्तवैश्वरूप्यैकरूप: प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्त्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारण- चिद्रूपतास्वभावसद्भावाच्चाकाशधर्माधर्मकालपुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यंतमनंतद्रव्यसंकरेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनाट्टङ्कोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थ: स समय: । समयत एकत्वेन युगपज्जनाति गच्छति चेति निरुक्ते: अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासन-समर्थविद्यासमुत्पादकविवेकज्योतिरुद्गमनात्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्ति-रूपात्मतत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्त्तते तदा दर्शनज्ञानचारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जनन् गच्छंश्च स्वसमय इति । यदा त्वनाद्यविद्याकंदलीमूलकंदायमानमोहानुवृत्तितंत्रतया दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपा- दात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावैकत्वगतत्वेन वर्त्तते तदापुद्गलकर्मप्रदेश-स्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जनन् गच्छंश्च परसमय इति प्रतीयते । एवं किल समयस्य द्वैविध्य-मुद्धावति ॥२॥ अथैतद्बाध्यते आगे गाथा के पूर्वार्द्ध से स्व-समय और उत्तरार्द्ध से पर-समय को कहता हूँ ऐसा अभिप्राय मन में रखकर आचार्य देव आगे का सूत्र कहते हैं - वह समय नामक जीव पदार्थ
जब यह समय (जीव) सब पदार्थों का प्रकाशन करने में समर्थ केवल-ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली भेद-विज्ञान-ज्योति के उदय होने से सभी पर-द्रव्यों से अपनापन तोड़कर, अपने दर्शन-ज्ञान-स्वभाव में है नियतवृत्ति जिसकी, ऐसे आत्म-तत्त्व में एकाकार होकर प्रवृत्ति करता है; तब दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित होने से अपने स्वरूप को एकत्व-रूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ स्व-समय कहलाता है । जब यह समय (जीव) अनादि अविद्यारूपी कंद के जड़ की गाँठ के समान (अनादि) परिपुष्ट मोह के उदयानुसार प्रवृत्ति की अधीनता से दर्शन-ज्ञान-स्वभाव में नियत-वृत्ति-रूप आत्म-तत्त्व से अपनापन तोड़कर पर-द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकतारूप से लीन होकर प्रवृत्त होता है, तब पुद्गल-कर्म के प्रदेशों में स्थित होने से युगपत् ही पर में एकाकार होकर जानता और परिणमता हुआ परसमय कहलाता है । इसप्रकार इस समय (जीव) की स्वसमय और परसमय - यह द्विविधता (दोपना) प्रगट होती है । |
जयसेनाचार्य :
[जीवो] जो शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभाव रूप निश्चय प्राण के द्वारा तथा अशुद्ध-निश्चय-नय से क्षायोपशमिक-रूप अशुद्ध-भाव-प्राणों द्वारा और असद्भूत व्यवहार-नय से यथासंभव द्रव्य-प्राणों द्वारा जो जी रहा है, आगे जीता रहेगा और जो पूर्व में जीता था, वह जीव है । [चरित्तदंसणणाणट्ठि दो तं हि ससमयं जाण] वह जीव जब चारित्र, दर्शन और ज्ञान में स्थित रहता है, उस समय उसे स्व-समय समझो । अर्थात्
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notes :
बहिरंतरप्पभेयं, परसमयं भण्णए जिणिंदेहिं
श्री जिनेन्द्र देव ने बहिरात्मा और अंतरात्मा इन दोनों भेदों को परसमय कहा है और परमात्मा स्वकसमय / स्वसमय है । अब इन भेदों को गुणस्थानों में समझो ।परमप्पा सगसमयं, तब्भेयं जाण गुणट्ठाणे ॥र.सा.-१२८॥ मिस्सोत्ति बाहिरप्पा, तरतमया तुरिय अंतरप्पजहण्णा
मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थान तक के जीव तरतमता से बहिरात्मा हैं । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य अंतरात्मा हैं । सात गुणस्थान तक मध्यम अंतरात्मा हैं और क्षीण मोह-बारहवें गुणस्थान वाले उत्तम अंतरात्मा हैं तथा तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान वाले और सिद्ध भगवान परमात्मा हैं ।सत्तेत्तिमज्झिमंतर, खीणुत्तर परमजिणसिद्धा ॥र.सा.-१२९॥ जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओध परसमओ (१५५)
स्वभाव नियत जीव यदि अनियत गुण-पर्याय वाला होता है तो वह पर-समय है; तथा यदि वह स्व-समय को करता है, तो कर्म-बंध से छूट जाता है ।जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो ॥पं.का.१६३॥ जो परदव्वम्हि सुहं असुहं रायेण कुणदि जदि भावं (१५६)
जो (जीव) राग से परद्रव्य में यदि शुभ-अशुभ भाव करता है, तो वह जीव स्वचारित्र से भ्रष्ट परचारित्र रूप आचरण करने वाला होता है ।सो सगचरित्तभट्ठो परचरियचरो हवदि जीवो ॥प.का.१६४॥ आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोथ भावेण (१५७)
आत्मा के जिस भाव से पुण्य या पाप का आस्रव होता है, वह उससे परचारित्र वाला होता है -- ऐसा 'जिन' प्ररूपित करते हैं ।सो तेण परचरित्तो हवदित्ति जिणा परूवेंति ॥पं.का.१६५॥ जो सव्वसंगमुक्को, णण्णमणो अप्पणं सहावेण
जो सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर एकाग्र मन होता हुआ स्वभाव से निश्चल होकर आत्मा को जानता है और देखता है वह जीव स्वचरित का आचरण करता है ।जाणदि पस्सदि णियदं, सो सगचरियं चरदि जीवो ॥पं.का.-१५८॥ चरियं सगं सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा (१५९)
परद्रव्यात्मक भावों से रहित स्वरूप वाला जो दर्शन-ज्ञान के विकल्प को आत्मा से अविकल्प / अभिन्न रूप आचरण करता है, वह स्वचारित्र का आचरण करता है ।
दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो ॥पं.का.१६७॥ |