अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा समस्तविपक्षक्षोदक्षमातिनिस्तुष-युक्त्यवलंबनजन्मा निर्मलविज्ञानघनांतर्निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतशुद्धात्मतत्त्वानुशासनजन्मा अनवरतस्यंदिसुन्दरानंदमुद्रितामंदसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च य: कश्चनापि ममात्मन: स्वो विभवस्तेन समस्तेनाप्ययं तमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेहमिति बद्धव्यवसायोऽस्मि । किंतु यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यम् । यदि तु स्खलेयं तदा तु न छलग्रहणजागरूकैर्भवितव्यम् ॥५॥ कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चेत् यहाँ वास्तव में
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जयसेनाचार्य :
[तं एयत्तविहत्त] उस पूर्वोक्त एकत्व-विभक्त शुद्धात्मा का जो कि अभेद-रत्नत्रय के साथ एकमेक होकर रहता है एवं मिथ्यात्व तथा रागादि से रहित है ऐसे उस परमात्मा के स्वरूप को [दाएहं] दिखलाता हूँ [अप्पणो सविहवेण] अपने आपकी बुद्धि के वैभव से अर्थात् आगम, तर्क और परम-गुरुओं के उपदेश के साथ होने वाले स्व-संवेदन-प्रत्यक्ष के द्वारा । [जदि दाएज्ज] यदि बतला सकूँ तो [पमाणं] अपने स्व-संवेदन-ज्ञान के द्वारा तौलकर हे भव्यों ! आप लोग उसे स्वीकार करना । [चुक्केज्ज] यदि चूक जाऊँ तो [छलं ण घेत्तव्वं] दुर्जन के समान उलटा अभिप्राय नहीं ग्रहण कर लेना ॥५॥ |
notes :
गुलाब कहां से आया, क्या फर्क पड़ता है? ऐतिहासिक चित्त इसी चिंता में पड़ जाता है कि गुलाब कहां से आया! आया तो बाहर से है; उसका नाम ही कह रहा है। नाम संस्कृत का नहीं है, हिंदी का नहीं है। गुल का अर्थ होता है: फूल; आब का अर्थ होता है: शान। फूल की शान! आया तो ईरान से है, बहुत लंबी यात्रा की है। लेकिन यह भी पता हो कि ईरान से आया है गुलाब, तो गुलाब के सौंदर्य का थोड़े ही इससे कुछ अनुभव होगा! गुलाब शब्द की व्याख्या भी हो गई तो भी गुलाब से तो वंचित ही रह जाओगे। गुलाब की पंखुड़ियां तोड़ लीं, पंखुड़ियां गिन लीं, वजन नाप लिया, तोड़—फोड़ करके सारे रसायन खोज लिए—किन—किन से मिलकर बना है, कितनी मिट्टी, कितना पानी, कितना सूरज—तो भी तो गुलाब के सौंदर्य से वंचित रह जाओगे। ये गुलाब को जानने के ढंग नहीं हैं। गुलाब की पहचान तो उन आंखों में होती है, जो गुलाब के इतिहास में नहीं उलझती, गुलाब की भाषा में नहीं उलझतीं, गुलाब के विज्ञान में नहीं उलझतीं; जो सीधे-सीधे, नाचते हुए गुलाब के साथ नाच सकता है; जो सूरज में उठे गुलाब के साथ उसके सौंदर्य को पी सकता है; जो भूल ही सकता है अपने को गुलाब में, डुबा सकता है अपने को गुलाब में और गुलाब को अपने में डूब जाने दे सकता है -- वही जानेगा। संतों के वचन गुलाब के फूल हैं। विज्ञान, गणित, तर्क और भाषा की कसौटी पर उन्हें मत कसना, नहीं तो अन्याय होगा। वे तो हैं, अर्चनाएं हैं, प्रार्थनाएं हैं। वे तो आकाश की तरह उठी हुई आंखें हैं। वे तो पृथ्वी की आकांक्षाएं हैं -- चांदत्तारों को छू लेने के लिए। उस अभीप्सा को पहचानना। वह अभीप्सा समझ में आने लगे तो संतों का हृदय तुम्हारे सामने खुलेगा। फूलों को सोने की कसने की कसौटी पर कस—कस कर मत देखना, नहीं तो सभी फूल गलत हो जाएंगे। |