अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
आस्तां तावद्बन्धप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यन्ते । यतो ह्यनन्त-धर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभि: कैश्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणो: स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेश: । परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीतानन्तपर्यायतयैकं किंचिन्मिलितास्वादमभेद-मेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं, ज्ञायक एवैक: शुद्ध: ॥७॥ तर्हि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत् इस ज्ञायक-भाव के बंध-पर्याय के निमित्त से अशुद्धता होती है - यह बात तो दूर ही रहो, इसके तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी नहीं हैं; क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं - ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतानेवाले कितने ही धर्मो के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का; यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, व्यवहार-मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है; किन्तु परमार्थ से देखा जाये तो अनन्त पर्यायों को एक द्रव्य पी गया होने से, जो एक है - ऐसे कुछ मिले हुए आस्वाद-वाले, अभेद, एक-स्वभावी तत्त्व का अनुभव करनेवाले को दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है और चारित्र भी नहीं है; एक शुद्ध ज्ञायक ही है । |
जयसेनाचार्य :
[ववहारेण] सदभूत-व्यवहारनय से [उवदिस्सदि] कहा जाता है [णाणिस्स] कि ज्ञानी जीव के [चरित्तदंसणं णाणं] चारित्र, दर्शन और ज्ञान है जो कि उसके स्वरूप में है । किन्तु, [ण वि णाणं ण चरितं ण दंसणं] शुद्ध-निश्चयनय से तो न ज्ञान, न चारित्र है और न दर्शन है । तो फिर क्या है ? कि [जाणगो] ज्ञायक मात्र है, शुद्ध चैतन्य-स्वभाव है [सुद्धो] जो कि रागादि रहित शुद्ध है । सार यह है कि -- जैसे अभेदरूप निश्चयनय से अग्नि एक ही है फिर भी भेदरूप व्यवहार के द्वारा
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notes :
अक्षाज्ज्ञानं रुचिर्मोहाद्देहाद्धत्तं च नास्ति यत् ।
इस आत्मा के मुक्त हो जाने पर न तो इन्द्रियों से ज्ञान होता है, न मोह से जन्य रुचि होती है और न शारीरिक आचरण होता है, अत: ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों आत्म-स्वरूप ही हैं ।
आत्मन्यस्मिंशिवीभूते तस्मादात्मैव तत्त्रयम् ॥उपासकाद्यन-२४५॥ |