अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूति: स शुद्धनय:, सा त्वनुभूतिरात्मैव । इत्यात्मैक एव प्रद्योतते । कथं यथोदितस्यात्मनोनुभूतिरिति चेद्बद्धस्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात् । तथा हि यथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां सलिलस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांतत: सलिलास्पृश्यं बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायाम-भूतार्थम् । तथात्मनोऽनादिबद्धस्य बद्धस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्र्थमप्येकांतत: पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । यथा च मृत्तिकाया: करककरीरकर्करीकपालादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलंतमेकं मृत्तिकास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । तथात्मनो नारकादिपर्याये-णानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलंतमेकमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायाम-भूतार्थम् । यथा च वारिधेर्वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितंवारिधि- स्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । तथात्मनो वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । यथा च कांचनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्त-मितसमस्तविशेषं कांचनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्याये-णानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूय-मानतायामभूतार्थम् । यथा चापां सप्तार्चि:प्रत्ययोष्णसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्ये-कांतत: शीतमप्स्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । तथात्मन: कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्व-पर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांतत: स्वयं बोधं जीवस्वभावमुपेत्यानुभूयमानताया-मभूतार्थम् ॥१४॥ (कलश-मालिनी) न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटुपरितरंतोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंतात् जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ॥११॥ (शार्दूलविक्रीडित) भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधी- र्यद्यंत: किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देव: स्वयं शाश्वत: ॥१२॥ (वसन्ततिलका) आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्ध्वा आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकंप- मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघन: समंतात् ॥१३॥ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्मा की अनुभूति शुद्धनय है और वह अनुभूति आत्मा ही है; इसप्रकार एक आत्मा ही प्रकाशमान है । शुद्धनय, आत्मा की अनुभूति या आत्मा सब एक ही है, अलग-अलग नहीं । प्रश्न – ऐसे आत्मा की अनुभूति कैसे हो सकती है ? उत्तर – बद्धस्पृष्टादिभावों के अभूतार्थ होने से यह अनुभूति हो सकती है । अब इसी बात को पाँच दृष्टान्तों के द्वारा विस्तार से स्पष्ट करते हैं -
(कलश-रोला)
[यत्र ] जहाँ [अमी बद्धस्पृष्टभावादयः] यह बद्धस्पृष्टादिभाव [एत्य स्फुटम् उपरि तरन्तः अपि] स्पष्टतया उस स्वभाव के ऊपर तैरने पर भी [प्रतिष्ठाम् न हि विदधति] प्रतिष्ठा नहीं पाते [समन्तात्द्योतमानं सम्यक्स्वभावम्] सर्व अवस्थाओं में प्रकाशमान सम्यक्स्वभाव का [जगत् तमेव] हे जगत तुम [अनुभवतु अपगतमोहीभूय] मोह रहित होकर अनुभव करो ।पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में ॥ जो है प्रकाशित चतुर्दिक् उस एक आत्मस्वभाव का हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो ॥११॥ (कलश-रोला)
यदि [कः अपि सुधीः] कोई भी सुबुद्धि जीव [भूतंभान्तम् अभूतम् एव बन्धं] भूत, वर्तमान और भविष्य, तीनों काल के कर्मबन्ध को अपने आत्मा से [रभसात्] तत्काल / शीघ्र [निर्भिद्य] भिन्न करके तथा [मोहं] मोह (अज्ञान) को [हठात्] बलपूर्वक (पुरुषार्थ से) [व्याहत्य ] रोककर / नाश करके [अन्तः] अन्तरङ्गमें [किल अहो कलयति] अभ्यास करे / देखे तो [अयम् आत्मा] यह आत्मा [आत्म-अनुभव-एक-गम्य महिमा ] अपने अनुभव से ही जानने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है ऐसा [व्यक्त:] व्यक्त (अनुभवगोचर), [ध्रुवं] निश्चल, [शाश्वतः] शाश्वत, [नित्यं कर्म-कलङ्क-पङ्क-विकलः] नित्य कर्मकलङ्क-कर्दम से रहित [स्वयं देवः] ऐसा स्वयं देव (स्तुति करने योग्य) [आस्ते] विराजमान है । अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत् । वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ॥ तो निज अनुभवगम्य आतमा सदा विराजित । विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ॥12॥ (कलश)
[इति या शुद्धनयात्मिका आत्म-अनुभूतिः] इसप्रकार जो शुद्धनय-स्वरूप आत्मा की अनुभूति है [इयम् एव किल ज्ञान-अनुभूतिः] वही वास्तव में ज्ञान की अनुभूति है [इति बुद्ध्वा] यह जानकर तथा [आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य] आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध-घनः अस्ति] 'सदा सर्व ओर एक ज्ञानघन आत्मा है' इसप्रकार देखना चाहिये ।
शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर ॥ आतम में आतम को निश्चल थापित करके सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो ॥१३॥ |
जयसेनाचार्य :
[जो पस्स्दि अप्पाणं] जो शुद्धात्मा को जानता है, किस प्रकार ?
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notes :
चमन को देख, फिर फूल-पात को न देख
पहचान खिलाड़ी को, बस बिसात न देख मेरी डोली की गरीबी पर ओ हंसनेवाले! मेरी दुल्हन को देख, लौटती बारात न देख |