अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथ निश्चयस्तुतिमाह । तत्र ज्ञेयज्ञायकसंक रदोषपरिहारेण तावत् -- यः खलु निरवधिबन्धपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्तस्वपरविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौश-लोपलब्धान्तःस्फु टातिसूक्ष्मचित्स्वभावावष्टम्भबलेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येन्द्रियाणि, प्रति-विशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया खण्डशः आकर्षन्ति प्रतीयमानाखण्डैकचिच्छक्तितया भावेन्द्रियाणि, ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धप्रत्यासत्तिवशेन सह संविदा परस्परमेकीभूतानिव चिच्छक्तेः स्वयमेवानुभूयमानासंगतया भावेन्द्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिन्द्रियार्थांश्च सर्वथा स्वतः पृथक्करणेनविजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंक रदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन सर्वेभ्यो द्रव्यान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः । अब, (तीर्थंकर-केवली की) निश्चय-स्तुति कहते हैं । उसमें पहले ज्ञेय-ज्ञायक के संकर-दोष का परिहार करके स्तुति कहते हैं :-
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जयसेनाचार्य :
[जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं] जो जीव द्रवेन्द्रिय -- भावेन्द्रिय-रूप पंचेंद्रियों के विषयों को जीतकर शुद्ध-ज्ञान-चेतना गुण से परिपूर्ण अपने शुद्ध आत्मा को मानता है, जानता है, अनुभव करता है, संचेतना है, अर्थात् शुद्धात्मा से तन्मय होकर रहता है, [तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू] उस पुरुष को ही निश्चय-नय के जानने वाले साधु लोग जितेन्दिय कहते हैं । भावार्थ यह है कि स्पर्श आदि पाँचों इंद्रियों के विषय तो ज्ञेय हैं और उनको जानने वाली द्रवेन्द्रिय, भावेन्द्रिय-रूप स्पर्शनादि पाँचों इन्दियाँ हैं और उनका जीव के साथ जो संकर है / संयोग सम्बन्ध है वहीं दोष है, उस दोष को जो परम समाधि के बल से जीत लेता है वही जिन है । यह पहली निश्चय-स्तुति हुई । |
notes :
दुक्खे णज्जदि णाणं णाणं णाऊण भावणा दुक्खं
प्रथम तो [णाणं] ज्ञान ही [दुक्खे] दुःख से [णज्जदि] प्राप्त होता है, कदाचित् [णाणं] ज्ञान भी प्राप्त करे तो उसको [णाऊण] जानकर उसकी [भावणा] भावना करना, बारंबार अनुभव करना [दुक्खं] दुःख से (दृढ़तर सम्यक् पुरुषार्थसे) होता है और कदाचित् [भावियमई] ज्ञान की भावना सहित भी [जीवो] जीव हो जावे तो [विसयेसु] विषयों को [दुक्खं] दुःख से [विरज्जए] त्यागता है ।भावियमई व जीवो विसयेसु विरज्जए दुक्खं ॥शी.पा.--३॥ णाणं णाऊण णरा केई विसयाइभावसंसत्त ।
कई [णरा] पुरुष [णाणं] ज्ञान को [णाऊण] जानकर भी [केई] कदाचित् [विसयाइभावसंसत्त] विषयरूप भावों में आसक्त होते हैं [विसएसु] विषयों से [विमोहिया] विमोहित होने पर ये [मूढ़ा] मूढ़ / मोही [चादुरगदिं] चतुर्गति रूप संसार में [हिंडंति] भ्रमण करते हैं ।हिंडंति चादुरगदिं विसएसु विमोहिया मूढ़ा ॥७॥ णरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणवेसु दुक्खाइं
[विसयासिया] विषयों में आसक्त [जीवा] जीव [णरएसु] नरक में अत्यंत [वेयणाओ] वेदना पाते हैं, [तिरिक्खए] तिर्चंचों में तथा [माणवेसु] मनुष्यों में [दुक्खाइं] दुःखों को पाते हैं और [देवेसु] देवो में उत्पन्न हों वहाँ [वि] भी [दोहग्गं] दुर्भाग्यपना [लहंति] पाते हैं ।
देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासिया जीवा ॥२३॥ |