
जयसेनाचार्य :
[कोविदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज] कौन समझदार साधु इस समय ऐसा कह सकता है कि [रूवमिणं पच्चक्खमेव दिट्ठं] आत्मा के स्वरूप को मैंने प्रत्यक्ष ही देख लिया है, जैसा कि चतुर्थकाल में केवलज्ञानी देख लिया करते थे परन्तु ऐसा तो कोई भी नहीं कहता । कहना तो यह है कि वह आत्म-स्वरुप [परोक्खणाणे पवट्ठंतं] केवलज्ञान की अपेक्षा से जो परोक्ष है ऐसा श्रुतज्ञान में अर्थात मानसिक-ज्ञान में प्रगट हो जाता है । भावार्थ यह है कि यद्यपि शुद्ध-निश्चयनय से रागादि-विकल्प रहित स्वसंवेदनरूप-भावश्रुतज्ञान, केवलज्ञान की अपेक्षा से परोक्ष ही है तथापि सर्व-साधारण को होने वाला जो इन्द्रिय--मनोजनित सविकल्प-ज्ञान होता है, उसकी अपेक्षा से वह प्रत्यक्ष है । अत: स्व-संवेदनज्ञान के द्वारा जाना जाता है इसलिये प्रत्यक्ष होता है पर केवल-ज्ञान की दृष्टि में तो वह परोक्ष ही होता है । किन्तु सर्वथा परोक्ष ही है ऐसा नहीं कहा जा सकता, अपितु सोचो कि चतुर्थ काल में भी केवली भगवान क्या आत्मा को हाथ में लेकर दिखलाते हैं ? अर्थात नहीं, वे अपनी दिव्य-ध्वनि के द्वारा कहकर चले जाते हैं । तो भी दिव्य-ध्वनि सुनने के काल में सुननेवालों के लिए आत्मा का स्वरूप परोक्ष ही होता है । तत्पश्चात् श्रोता लोग परम-समाधि स्वीकार करते हैं उस ध्यानस्थ अवस्था में ही वह उनके प्रत्यक्ष होता है -- अनुभव गोचर होता है वैसा ही आज भी हो सकता है । इस प्रकार परोक्ष आत्मा का किस प्रकार ध्यान किया जाता है । इसका समाधान करते हुए दो गाथाएँ समाप्त हुईं ॥१९८॥ |