
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
सम्यग्दृष्टिः सामान्येन स्वपरावेवं तावज्जानाति - ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावा: । एष टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम् । अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदयविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भाव:, न पुनर्मम स्वभाव: । एष टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम् ॥१९८॥ जो कर्म के उदय के विपाक से उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं है । मैं तो यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भाव-स्वभाव हूं । |
जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि सामान्य रूप से अपने और पर के स्वभाव को अनेक प्रकार से जानता है :- [उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं] ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय का फल ज्ञान को ढंकने आदि के भेद से अनेक प्रकार का श्री जिनेन्द्र भगवान, ने बतलाया है । [ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को] वह कर्मोदय का प्रकार ज्ञानावरणादि भेद रूप से वह मेरा स्वभाव नहीं है, क्योंकि मैं तो टांकी से उकेरी हुई वस्तु जैसे सदा एक-सी रहती है वैसे ही सदा बने रहने वाले परमानन्द और ज्ञायक एक स्वभाव का धारक हूँ । इस प्रकार से सम्यग्दृष्टि विरागी जीव सामान्य रूप से अपने और पर के स्वभाव को जानता है । सामान्य रूप से क्यों कहा ? कारण-मैं क्रोध रूप हूँ या मान रूप हूँ इस प्रकार की विवक्षा का अभाव है । जिसमें विवक्षा का अभाव हो उसे सामान्य कहते हैं ऐसा नियम है । इस प्रकार भेदभाव रूप से ज्ञान और वैराग्य दोनों के सामान्य व्याख्यान की मुख्यता से पाँच गाथाएँ पूर्ण हुई । इसके आगे १० गाथाओं तक और भी ज्ञान और वैराग्य शक्ति का विशेष वर्णन करते हैं ॥२१०॥ |