+ सम्यग्दृष्टि अपने और पर के स्वभाव का ज्ञाता होता है -
उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं । (198)
ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को ॥210॥
उदयविपाको विविध: कर्मणां वर्णितो जिनवरै:
न तु ते मम स्वभावा: ज्ञायकभावस्त्वहमेक: ॥१९८॥
उदय कर्मों के विविध-विध सूत्र में जिनवर कहें ।
किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ॥१९८॥
अन्वयार्थ : [जिणवरेहिं] जिनेन्द्र भगवान ने [कम्माणं] कर्मों के [उदयविवागो] उदय का विपाक (फल) [विविहो] अनेक प्रकार का [वण्णिदो] कहा है; किन्तु [ते] वे [मज्झ] मेरे [सहावा] स्वभाव [ण दु] नहीं हैं; [अहमेक्को] मैं तो एक [जाणगभावो] ज्ञायक-भाव [दु] ही हूँ ।
Meaning : The Omniscient Lord has enumerated various outcomes of the fruition of karmas. These outcomes are not my nature. I am just one, the knower.

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
सम्यग्दृष्टिः सामान्येन स्वपरावेवं तावज्जानाति -
ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावा: । एष टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम्‌ । अस्ति किल रागो नाम पुद्‌गलकर्म, तदुदयविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भाव:, न पुनर्मम स्वभाव: । एष टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम्‌ ॥१९८॥


जो कर्म के उदय के विपाक से उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं है । मैं तो यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भाव-स्वभाव हूं ।

जयसेनाचार्य :

आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि सामान्य रूप से अपने और पर के स्वभाव को अनेक प्रकार से जानता है :-

[उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं] ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय का फल ज्ञान को ढंकने आदि के भेद से अनेक प्रकार का श्री जिनेन्द्र भगवान, ने बतलाया है । [ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को] वह कर्मोदय का प्रकार ज्ञानावरणादि भेद रूप से वह मेरा स्वभाव नहीं है, क्योंकि मैं तो टांकी से उकेरी हुई वस्तु जैसे सदा एक-सी रहती है वैसे ही सदा बने रहने वाले परमानन्द और ज्ञायक एक स्वभाव का धारक हूँ । इस प्रकार से सम्यग्दृष्टि विरागी जीव सामान्य रूप से अपने और पर के स्वभाव को जानता है । सामान्य रूप से क्यों कहा ? कारण-मैं क्रोध रूप हूँ या मान रूप हूँ इस प्रकार की विवक्षा का अभाव है । जिसमें विवक्षा का अभाव हो उसे सामान्य कहते हैं ऐसा नियम है ।

इस प्रकार भेदभाव रूप से ज्ञान और वैराग्य दोनों के सामान्य व्याख्यान की मुख्यता से पाँच गाथाएँ पूर्ण हुई । इसके आगे १० गाथाओं तक और भी ज्ञान और वैराग्य शक्ति का विशेष वर्णन करते हैं ॥२१०॥