
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
कुतोऽनागतमुदयं ज्ञानी नाकांक्षतीति चेत् - ज्ञानी हि तावद् ध्रुवत्वात् स्वभावभावस्य टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो नित्यो भवति, यौ तु वेद्यवेदकभावौ तौ तूत्पन्नप्रध्वंसित्वाद्विभावभावानां क्षणिकौ भवत: । तत्र यो भाव: कांक्षमाणं वेद्यभावं वेदयते स यावद्भवति तावत्कांक्षमाणो वेद्यो भावो विनश्यति; तस्मिन् विनष्टे वेदको भाव: किं वेदयते ? यदि कांक्षमाणवेद्यभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्वं स विनश्यति; कस्तं वेदयते ? यदि वेदकभावपृष्ठभावी भावोन्यस्तं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्वं स विनश्यति; किं स वेदयते ? इति कांक्षमाणभाववेदनानवस्था । तां च विजानन् ज्ञानी न किंचिदेव कांक्षति ॥२१६॥ (कलश--स्वागता) वेद्यवेदकविभावचलत्वाद् वेद्यते न खलु कांक्षितमेव । तेन कांक्षति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति ॥१४७॥ स्वभाव के ध्रुव होने से ज्ञानी तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-स्वभाव-स्वरूप नित्य है और विभाव-भावों के उत्पाद-व्ययरूप होने से वेद्य-वेदक-भाव क्षणिक हैं । यहाँ कांक्षमाण (जिसकी कांक्षा की जावे, उस) वेद्यभाव का वेदन करनेवाला वेदक-भाव जबतक उत्पन्न होता है, तबतक कांक्षमाण वेद्य-भाव नष्ट हो जाता है । उस वेद्य-भाव के नष्ट हो जाने पर वेदक-भाव किसका वेदन करे ? यदि यह कहा जाये कि कांक्षमाण वेद्य-भाव के बाद होनेवाले अन्य वेद्य-भाव का वेदन करता है तो यह बात भी संभव नहीं है; क्योंकि उस अन्य वेद्य-भाव के उत्पन्न होने के पूर्व ही वह वेदक-भाव नष्ट हो जाता है । ऐसी स्थिति में उस अन्य वेद्य-भाव का वेदन कौन करता है ? इसके उत्तर में यदि यह कहा जाये कि उस वेदक-भाव के बाद होनेवाला अन्य वेदक-भाव उसका वेदन करता है तो यह भी संभव नहीं है; क्योंकि उस अन्य वेदक-भाव के उत्पन्न होने के पूर्व ही वह वेद्य-भाव विनष्ट हो जाता है । ऐसी स्थिति में वह दूसरा वेदक-भाव किसका वेदन करता है ? इसप्रकार कांक्षमाण भाव के वेदन में अनवस्था दोष आता है । उस अनवस्था को जानता हुआ ज्ञानी कुछ भी नहीं चाहता । (कलश--हरिगीत)
[वेद्य-वेदक-विभाव-चलत्वात्] वेद्य-वेदक रूप विभावभावों की चलता (अस्थिरता) होने से [खलु कांक्षितम् एव वेद्यते न] वास्तव में वाँछित का वेदन नहीं होता; [तेन विद्वान् किञ्चन कांक्षति न] इसलिये ज्ञानी कुछ भी वाँछा नहीं करता; [सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति] सबके प्रति अत्यन्त विरक्तता को (वैराग्यभाव को) प्राप्त होता है ।
हम जिन्हें चाहें अरे उनका भोग हो सकता नहीं । क्योंकि पल-पल प्रलय पावें वेद्य-वेदक भाव सब ॥ बस इसलिए सबके प्रति अति ही विरक्त रहें सदा । चाहें न कुछ भी जगत में निजतत्त्वविद विद्वानजन ॥१४७॥ |
जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि भोगों की वांछा नहीं करता है -- [जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उभयं] जो कोई रागादि रूप विकल्प है वह तो वेदन करने वाला, अर्थात अनुभव करने वाला है अत: कर्ता है, और जो साता के उदय से होने वाला कर्म-रूप-भाव रागादि-विकल्प से अनुभव किया जाता है, वे दोनों ही भाव, अर्थ-पर्याय की अपेक्षा से अपने-अपने समय में होकर नष्ट हो जाते हैं, क्षणिक हैं । [तं जाणगो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि] अतएव वर्तमान में व आगामी काल में भी होने वाले वेध्य-वेदक-रूप दोनों भावों को विनश्वर जानता हुआ तत्त्वज्ञानी जीव उन दोनों में से किसी को कभी नहीं चाहता है ॥२१३॥ |