अन्वयार्थ : [णागफणीए मूलं] नागफणी की जड़, हथिनी का मूत्र, [णागं होइ भच्छवाएण] सिन्दूर एवं सीसा नामक धातु को धौंकनी से [धम्मंत्तं] धौंक कर अग्नि पर तपाने से [सुवण्णं] सुवर्ण बन जाता है ।
[कम्मं हवेइ किट्टं] कर्म कीट है, [रागादि कालिया अह विभाओ] रागादि कालिमा है, [सम्मत्तणाणचरणं परमोसहमिदि] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परम औषधि है, [झाणं हवेइ अग्गी] ध्यान को अग्नि [वियाणाहि] जानो, [तवयरणं भत्तली समक्खादो] बारह प्रकार का तप धौंकनी है, [जीवो हवेइ लो] जीव लोहा है ।
मुक्ति की प्राप्ति के लिए [हं] उक्त धौंकनी को [धमियव्वो परमजोईहिं] परमयोगियों को धौंकना चाहिए ।
अमृतचंद्राचार्य जयसेनाचार्य notes
जयसेनाचार्य :
नागफणी, थूहर की जड़, हथिनी का मूत्र, गर्भनाग अर्थात् सिन्दूर-द्रव्य और नाग अर्थात् सीसा धातु इनको धोंकनी से अग्नि पर तपाने पर यदि पुण्योदय हो तो स्वर्ण बन जाता है ॥२३१॥ वैसे ही
द्रव्य-कर्म तो कीट है,
रागादि-विभाव-परिणाम कालिका है,
भेदाभेद-रूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र नाम की परमौषधि है ऐसा जानो ।
वीतराग-विकल्प-रहित-समाधि ध्यान है वही अग्नि है और
आसन्न-भव्य-जीवरूप लोहा है ।
उस भव्य (लोहे) का पूर्वोक्त सम्यक्त्वादि-रूप (औषध) तथा ध्यान-रूप (अग्नि) के साथ संयोग मिलाकर परम-योगी लोगों को बारह प्रकार के तपश्चरण-रूप (धमनी) में धमना चाहिये इस प्रकार करने से जैसे लोहा स्वर्ण बन जाता है वैसे ही मोक्ष भी हो जाता है । इसमें भट्ट और चार्वाक मत वालों को सन्देह नहीं करना चाहिये ॥२३२-२३३॥