
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यथा स एव पुरुष:, स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति, तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाण:, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्तचित्तवस्तूनि निघ्नन्, रजसा न बध्यते, स्नेहाभ्यंगस्य बन्धहेतोरभावात्; तथा सम्यग्दृष्टि:, आत्मनि रागादी न कुर्वाण: सन्, तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मन:कर्म कुर्वाण:, तैरेवानेक-प्रकारकरणैस्तान्येव सचित्तचित्तवस्तूनि निघ्नन् कर्मरजसा न बध्यते, रागयोगस्य बंधहेतोर-भावात् ॥२४२-२४६॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) लोक: कर्मततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् तान्यस्मिन्करणानि संतु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत् । रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं बंधं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्रुवम् ॥१६५॥ (कलश--पृथ्वी) तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृति: । अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च ॥१६६॥ (कलश--वसन्ततिलका) जानाति य: स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मराग: । रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहु- र्मिथ्यादृश: स नियतं स च बंधहेतु: ॥१६७॥ जिसप्रकार वही पुरुष सम्पूर्ण चिकनाहट को दूर कर देने पर उसी स्वभाव से ही धूलि से भरी हुई भूमि में वहीं शस्त्र-व्यायामरूपी कर्म (कार्य) को करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकार के करणों के द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ धूलि से लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसके धूलि से लिप्त होने का कारण तेलादि के मर्दन का अभाव है । उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने में रागादि को न करता हुआ, उसी स्वभाव से बहु कर्म-योग्य पुद्गलों से भरे हुए लोक में वही मन-वचन-काय की क्रिया करता हुआ, उन्हीं अनेकप्रकार के करणों के द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ, कर्मरूपी रज से नहीं बँधता; क्योंकि उसके बंध के कारणभूत राग के योग का अभाव है । (कलश--हरिगीत)
[कर्मततः लोकः सः अस्तु] इसलिए वह (पूर्वोक्त) बहुत कर्मों से (कर्मयोग्य पुद्गलों से) भरा हुआ लोक है सो भले रहो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु] वह काय-वचन-मन का चलन-स्वरूप कर्म (योग) है सो भी भले रहो, [तानि करणानि अस्मिन् सन्तु] वे (पूर्वोक्त) करण भी उसके भले रहें [च] और [तत् चिद्-अचिद्-व्यापादनं अस्तु] वह चेतन-अचेतन का घात भी भले हो, परंतु [अहो] अहो! [अयम् सम्यग्दृग्-आत्मा] यह सम्यग्दृष्टि आत्मा, [रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन्] रागादिक को उपयोग-भूमि में न लाता हुआ, [केवलं ज्ञानं भवन्] केवल (एक) ज्ञानरूप परिणमित होता हुआ, [कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति] किसी भी कारण से निश्चयतः बन्ध को प्राप्त नहीं होता । भले ही सब कर्मपुद्गल से भरा यह लोक हो । भले ही मन-वचन-तन परिस्पन्दमय यह योग हो ॥ चिद् अचिद् का घात एवं करण का उपभोग हो । फिर भी नहीं रागादि विरहित ज्ञानियों को बंध हो ॥१६५॥ (कलश--हरिगीत)
[तथापि] तथापि (अर्थात् लोक आदि कारणों से बन्ध नहीं कहा और रागादिक से ही बन्ध कहा है तथापि) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते] ज्ञानियों को निरर्गल (स्वच्छन्दतापूर्वक) प्रवर्तना योग्य नहीं है, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्-आयतनम् एव] क्योंकि वह निरर्गल प्रवर्तन वास्तव में बन्ध का ही स्थान है । [ज्ञानिनां अकाम-कृत-कर्म तत्अकारणम् मतम्] ज्ञानियों के वाँछा-रहित कर्म (कार्य) होता है वह बन्धका कारण नहीं कहा, क्योंकि [जानाति च करोति] जानता भी है और (कर्म को ) करता भी है [द्वयं किमु न हि विरुध्यते] यह दोनों क्रियाएँ क्या विरोधरूप नहीं हैं ?तो भी निरर्गल प्रवर्तन तो ज्ञानियों को वर्ज्य है । क्योंकि निरर्गल प्रवर्तन तो बंध का स्थान है ॥ वांछारहित जो प्रवर्तन वह बंध विरहित जानिये । जानना करना परस्पर विरोधी ही मानिये ॥१६६॥ (कलश--हरिगीत)
[यः जानाति सः न करोति] जो जानता है सो करता नहीं [तु] और [यःकरोति अयं खलु जानाति न] जो करता है सो जानता नहीं । [तत् किल कर्मरागः] करना तो वास्तव में कर्म-राग है [तु] और [रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः] राग को (मुनियों ने) अज्ञानमय अध्यवसाय कहा है; [सः नियतं मिथ्यादृशः] जो कि वह (अज्ञानमय अध्यवसाय) नियम से मिथ्यादृष्टि के होता है [च] और [सः बन्धहेतुः] वह बन्ध का कारण है ।
जो ज्ञानीजन हैं जानते वे कभी भी करते नहीं । करना तो है बस राग ही जो करें वे जानें नहीं ॥ अज्ञानमय यह राग तो है भाव अध्यवसान ही । बंध कारण कहे ये अज्ञानियों के भाव ही ॥१६७॥ |
जयसेनाचार्य :
जैसे वही पूर्वोक्त पुरुष शरीर से सर्व तैलादिरूप चिकने पदार्थ को सर्वथा दूर कर धूल भरे स्थान में भी अनेक हथियारों द्वारा व्यायाम / परिश्रम करता है । यह प्रथम गाथा हुई । वहाँ वह ताल, तमाल, तम्बाकू, केलां, बाँस का बीड़ा आदि वृक्षों को छेदता है भेदता है, उनमें होने वाले सचित्त और अचित्त पदार्थों को बिगाड़ता है । यह दूसरी गाथा का अर्थ हुआ । वैशाख आदि साधनों के द्वारा उपघात करते रहने वाले उस पुरुष के जो धूल नहीं चिपकती सो क्यों ? इस प्रकार प्रश्न करने रूप में तीसरी गाथा हुई । उसका उत्तर यह है कि उस पुरुष के शरीर में तेल चुपड़ने रूप चिकनापन था उसी से धूलि चिपकती थी यह निश्चित बात है । उसी की अन्य शारीरिक चेष्टाओं से धूलि नहीं चिपकती थी अब उसके शरीर में वह तैलादि-जनित चिकनापन नहीं रहा इसलिये उसके धूलि नहीं चिपकती यह सब उत्तररूप गाथा का अभिप्राय हुआ । इस प्रकार चार गाथाओं में दृष्टान्त हुआ । अब दार्ष्टान्त कहते हैं कि [एवं सम्मादिट्ठी वट्टंतो बहुविहेसु जोगेसु] पूर्वोक्त दृष्टान्त के अनुसार सम्यग्दृष्टि अर्थात् विरत जीव भी विविध प्रकार के योगों में अर्थात् अनेक प्रकार के मन, वचन, और काय सम्बन्धी व्यायापारों में प्रवर्तमान होता हुआ भी [अकरंतो उवओगे रागादी] निर्मल आत्मा का समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र का सदभाव होने से रागादि के उपयोग स्वरूप विकारी परिणामों को नहीं करता है अत: [णेव बज्झदि रयेण] नूतन कर्मों से नहीं बंधता है । इस प्रकार तैलादिक की चिकनाहट न होने पर जैसे धूलि, नहीं चिपकने पाती वैसे ही वीतराग-सम्यग्दृष्टि जीव के रागादि-विकाररूप भाव न होने से बंध नहीं होता । इस प्रकार बंध के अभाव का कारण बताने के रूप में ये पाँच गाथायें आईं । जैसा यहाँ पातनिका में बताया था कि ज्ञानी-जीव का स्वामीपना अर्थात अधिकार तो एक शान्त-रस पर होता है किन्तु अध्यात्म के विषय में इस नाटक के प्रस्ताव में नवों रसों का स्वामीपना है -- ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार अज्ञानी के पाँच तथा ज्ञानी के पाँच मिलाकर दश गाथाओं में यह बन्ध अधिकार का पहला स्थल पूर्ण हुआ ॥२५७-२६१॥ |