
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथाध्यवसायं पापपुण्ययोर्बन्धहेतुत्वेन दर्शयति -- एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ताब्रह्म-परिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबन्धहेतुः । यस्तु अहिंसायां यथाविधीयतेऽध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबन्धहेतुः ॥२६३-२६४॥ जिसप्रकार अज्ञान से हिंसा के संदर्भ में अध्यवसाय किया जाता है; उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के संदर्भ में भी जो अध्यवसाय किये जाते हैं; वे सब पापबंध के एकमात्र कारण हैं और जिसप्रकार अज्ञान से अहिंसा के संदर्भ में अध्यवसाय किया जाता है; उसीप्रकार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के संदर्भ में अध्यवसान किया जाता है; वह सब पुण्यबंध का एकमात्र कारण है । |
जयसेनाचार्य :
अब इसके आगे परिणामों की मुख्यता से इन्हीं दो गाथाओं का तेरह गाथाओं से विशेष वर्णन करते हैं । उसमें पहले यह बताते हैं कि बाह्य वस्तु तो रागादि परिणामों के लिए कारण होती है तथा रागादिकरूप परिणाम बंध का कारण होते हैं -- जिस प्रकार हिंसा के विषय में किया हुआ विचार पाप-बंध का कारण होता है । उसी प्रकार झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के विषय में किया हुआ विचार भी पाप-बंध का कारण होता है जिस प्रकार अहिंसा के विषय में किया हुआ विचार पुण्य-बंध करने वाला है वैसे ही सत्य बोलने, चोरी न करने, ब्रह्मचर्य पालने और अपरिग्रह के विषय का विचार भी पुण्य के बंध का करने वाला है ॥२७५-२७६॥ इस प्रकार अव्रत पाप-बंध करने वाला है व व्रत पुण्य-बंध करने वाला है -- ऐसा कथन करने वाली दो गाथाएं पूर्ण हुईं । |