
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
परान् जीवान् दु:खयामि सुखयामीत्यादि, बंधयामि मोचयामीत्यादि वा, यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि, परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात्, खकुसुमं लुनामीत्य-ध्यवसानवन्मिथ्यारूपं, केवलमात्मनोऽनर्थायैव । कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारीति चेत् -- यत्किल बंधयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्बन्धनं मोचनं जीवानाम् । जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयो: स्वपरिणामयो: अभावान्न बध्यते, न मुच्यते; सरागवीतरागयो: स्वपरिणामयो: सद्भावात्तस्याध्यव-सायस्याभावेऽपि बध्यते, मुच्यते च । तत: परत्राकिंचित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि, ततश्च मिथ्यैवेति भाव: ॥२६६-२६७॥ (कलश--अनुष्टुभ्) अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहित: । तत्किंचनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ॥१७१॥ मैं पर-जीवों को दु:खी करता हूँ, सुखी करता हूँ - इत्यादि तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ - इत्यादि जो अध्यवसान हैं; वे सब पर-भाव का पर में व्यापार न होने के कारण अपनी अर्थ-क्रिया करनेवाले नहीं हैं; इसलिए 'मैं आकाश-पुष्प को तोड़ता हूँ' - ऐसे अध्यवसान की भाँति मिथ्यारूप हैं, मात्र अपने अनर्थ के लिए ही हैं । यदि कोई यह कहे कि अध्यवसान अपनी क्रिया करने से अकार्यकारी है - इसका आधार क्या है तो उससे कहते हैं कि 'मैं बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ' - ऐसे अध्यवसान की अपनी अर्थ-क्रिया जीवों को बाँधना-छोड़ना है; किन्तु वह जीव तो हमारे इस अध्यवसाय का सद्भाव होने पर भी स्वयं के सराग परिणाम के अभाव से नहीं बँधता और स्वयं के वीतराग-परिणाम के अभाव से मुक्त नहीं होता; तथा हमारे उस अध्यवसाय के अभाव होने पर भी स्वयं के सराग-परिणाम के सद्भाव से बँधता है और स्वयं के वीतराग-परिणाम के सद्भाव से मुक्त होता है । इसलिए पर में अकिंचित्कर होने से हमारे ये अध्यवसानभाव अपनी अर्थ-क्रिया करनेवाले नहीं हैं; इसीलिए मिथ्या भी हैं - ऐसा भाव है । (कलश--दोहा)
[अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः] इस निष्फल (निरर्थक)अध्यवसाय से मोहित होता हुआ [आत्मा] आत्मा [तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति] ऐसा कुछ भी नहीं है जिसरूप अपनेको न करता हो (अपने को सर्वरूप करता है) ।
निष्फल अध्यवसान में, मोहित हो यह जीव । सर्वरूप निज को करे, जाने सब निजरूप ॥१७१॥ |
जयसेनाचार्य :
[दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि] मैं इन जीवों को दुखी या सुखी कर रहा हैं, बांध रहा हूँ या छुडा रहा हूँ । [जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा] यह जो तेरी बुद्धि है वह निरर्थक है, कोई भी प्रयोजन सिद्ध करने वाली नहीं है, यह स्पष्ट है इसलिये यह मिथ्या है, झूठी है व्यर्थ है । क्योंकि जब तक उन जीवों को साता-वेदनीय तथा असाता-वेदनीय का उदय न हो तब तक तेरे विचार मात्र से उनको सुख या दु:ख नहीं हो सकता है । इसी प्रकार जब तक उनका अपना विचार अशुद्ध या शुद्ध न हो तब तक तेरे विचार मात्र से उनका बँध जाना और मुक्त हो जाना नहीं हो सकता है ॥२७८॥ इस पर शिष्य प्रश्न करता है अध्यवसान क्रियाकारी क्यों नहीं है ? [अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि] जब कि सब ही संसारी जीव अपने में होने वाले मिथ्यात्व या रागादि अध्यवसान का निमित्त लेकर ही नवीन कर्म के बंध से जकड़ लिये जाते हैं -- ऐसा ही नियम है [मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ते] शुद्धात्मा के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र रूप निश्चय-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, उस मोक्षमार्ग में स्थित होने पर अर्थात आत्म-ध्यान में तल्लीन होकर मुक्त हो सकते हैं तब [किं करेसि तुमं] हे दुरात्मन् ! तू वहाँ क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं, अपितु तेरा विचार व्यर्थ ही ठहरता है ॥२७९॥ |