
अमृतचंद्राचार्य :
यह आत्मा स्वयं से तो रागादिभावों का अकारक ही है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान की द्विविधता का उपदेश नहीं हो सकता । अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान का जो द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का उपदेश (कथन) है, वह द्रव्य और भाव के निमित्त-नैमित्तिकत्व को प्रगट करता हुआ आत्मा के अकर्तृत्व को ही बतलाता है । इसलिए यह निश्चित हुआ कि परद्रव्य निमित्त है और आत्मा के रागादिभाव नैमित्तिक हैं । यदि ऐसा न माना जाये तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य अप्रत्याख्यान के कर्तृत्व के निमित्तत्व का उपदेश निरर्थक ही होगा । उसके निरर्थक हो जाने पर एक आत्मा को ही रागादिभावों का निमित्तत्व आ जायेगा, जिससे नित्यकर्तृत्व का प्रसंग आयेगा और उससे मोक्ष का अभाव सिद्ध होगा । इसलिए परद्रव्य ही आत्मा के रागादिभावों का निमित्त हो । इससे यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादि का अकारक ही है । इसप्रकार यद्यपि आत्मा रागादिभावों का अकारक ही है; तथापि जबतक वह निमित्तभूत परद्रव्य का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता; तबतक नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं होता । इसीप्रकार जबतक इन रागादिभावों का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान नहीं करता; तबतक वह इन भावों का कर्ता ही है । जब आत्मा निमित्तभूत द्रव्य का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करता है; तभी नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान होता है और जब इन भावों का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान होता है; तब वह साक्षात् अकर्ता ही है । |
जयसेनाचार्य :
अब, सम्यग्ज्ञानी जीव रागादि विकारी भावों का अकर्ता कैसे है ? सो बताते हैं -- [अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं] पूर्वकाल में अनुभव किये हुए विषयों का अनुभव करने रूप रागादि का स्मरण करना सो अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है । एवं आगामी काल में होने वाले रागादि के विषयों की आकांक्षा रूप जो अप्रत्याख्यान वह भी दो प्रकार का है । [एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा] इस प्रकार के परमागम के उपदेश से जाना जाता है कि आत्मा दोनों प्रकार के अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानों से रहित है इसलिये वह कर्मों का अकर्ता है । [अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि] द्रव्य और भाव के रूप में अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान भी दो-दो प्रकार के है । [एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा] वह अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान ही तो बंध का कारण है, ऐसा आगम का उपदेश है जिससे यह जान लिया जाता है कि द्रव्य और भावरूप जो अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान है उसमें परिणत होता हुआ आत्मा शुद्धात्मा की भावना से च्युत होता है, वह अज्ञानी ही कर्मों का करने वाला होता है किन्तु उससे विपरीत स्वभाव वाला अर्थात शुद्धात्मा की भावना में लीन रहता हुआ प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यानमय जो ज्ञानी है वह बंध कारक नहीं होता है, इसी को दृढ़ता से कहते हैं कि [जाव ण पच्चखाणं] जितने काल तक द्रव्य और भावरूप प्रत्याख्यान जो कि विकार-रहित स्व-संवेदन लक्षण वाला है, वह नहीं होता है [अप्पडिकमणं दु दव्वभावाणं कुव्वदि] और जितने काल तक द्रव्य और भावरूप अप्रतिक्रमण भी करता रहता है [आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो] तब तक परमसमाधि के न होने से वह जीव अज्ञानी होता है, जो कि कर्मों का करनेवाला होता है -- ऐसा समझना चाहिये । यहाँ यह तात्पर्य है -- जीव की अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान रूप परिणति ही कर्मों को करने वाली होती है । ज्ञानी जीव कर्मों का करने वाला नहीं होता, यह बात स्पष्ट है । यदि वह जीव कर्ता हो तो कर्त्तापन सदा बना रहे क्योंकि जीव जो कि ज्ञान-स्वभाव वाला है, सदा ही बना रहता है । अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान-रूप-भाव रागादि-विकल्प-भाव हैं अत: वे अनित्य हैं, क्योंकि वे स्वस्थभाव से च्युत हुए जीवों के ही होते हैं, इसलिए सदा नहीं होते हैं । इससे यह बात सिद्ध हो गई कि जब यह स्वस्थ-भाव से च्युत होता हुआ अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान के रूप में परिणत होता है उस समय में कर्मों का करने वाला होता है, और स्वस्थ-भाव में रहने पर फिर अकर्ता होता है यह तात्पर्य है । इस प्रकार अज्ञानी जीव की परिणतिरुप जो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान है, वही बन्ध का कारण है, किन्तु ज्ञानी जीव के बन्ध का कारण नहीं । इस कथन की मुख्यता से इस आठवें स्थल में तीन गायायें पूर्ण हुईं । अब निर्विकल्प समाधि रूप निश्चय-प्रतिक्रमण और निश्चय-प्रत्याख्यान इन दोनों से रहित जो जीव हैं, उनके बन्ध बताया गया है, यह त्यागने योग्य है, सम्पूर्ण नरक आदि के दुखों का कारण है, इसलिये हेय है अत: उस बन्ध-नाश के लिए जो भावना होती है उसे कह रहे हैं कि -- 'मैं सहज-शुद्ध ज्ञानानन्दरूप एक-स्वभाव वाला हूँ, विकल्प रहित हूँ उदासीन हूँ, निरंजन-जो निज-शुद्धात्मा उसके समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान-रूप जो निश्चय-रत्नत्रय-स्वरूप-निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुआ जो वीतराग-सहजानन्दरुप सुख उसकी अनुभूति-मात्र ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्व-संवेदन के द्वारा संवेद्य है, जानने योग्य है, प्राप्त करने योग्य है -- वह मैं हूँ, भरित अर्थात् संतृप्त अवस्था वाला हूँ, राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पंचेन्द्रियों के विषयों में होने वाला मन, वचन और काय का व्यापार तथा भावकर्म, नोकर्म, द्रव्यकर्म, ख्याति, लाभ, पूजा एवं देखे गये, सुने गये तथा अनुभव में लाए गये जो भोग उनकी आकांक्षा-रूप निदान-शल्य, माया-शल्य, और मिथ्या-शल्य इन तीनों शल्यों से रहित तथा और भी सब प्रकार के विभाव परिणामों से रहित हूँ, शून्य हूँ, तीन लोक और तीन काल में मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा शुद्ध-निश्चयनय से तो मैं ऐसा ही हूँ और ऐसे ही सब जीव हैं' -- इस प्रकार की भावना निरन्तर करनी चाहिये ॥३०५-३०७॥ इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य की बनाई हुई शुद्धात्मानुभूति के लक्षण वाली श्री समयसार जी की तात्पर्य नाम की टीका के हिन्दी रुपान्तर में जैसा कि लिख आये हैं
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