
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
जीव एव मिथ्यात्वादिभावकर्मण: कर्ता, तस्याचेतनप्रकृतिकार्यत्वेऽचेतनत्वानुषंगात् । स्वस्यैव जीवो मिथ्यात्वादिभावकर्मण: कर्ता, जीवेन पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावकर्मणि क्रियमाणे पुद्गलद्रव्यस्य चेतनानुषंगात् । न च जीव: प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौ कर्तारौ, जीववदचेतनाया: प्रकृतेरपि तत्फलभोगानुषंगात् । न च जीव: प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वावप्यकर्तारौ, स्वभावत एव पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावानुषंगात् । ततो जीव: कर्ता, स्वस्य कर्म कार्यमिति सिद्धम् ॥३२८-३३१॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरज्ञाया: प्रकृते: स्वकार्यफलभुग्भावानुषंगात्कृति: । नैकस्या: प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गल: ॥२०३॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) कर्मैव प्रवितर्क्य कर्तृ हतकै: क्षिप्त्वात्मन: कर्तृतां कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुति: कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबंधलब्धविजया वस्तुस्थिति: स्तूयते ॥२०४॥
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जयसेनाचार्य :
[मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं] जो आत्मा स्वयं नहीं परिणमन करने वाला है उसको द्रव्य-मिथ्यात्व-प्रकृति हठात् मिथ्यादृष्टि बना देती है । [तम्हा अचेदणादे पयडी णणु कारगो पत्ता] तब हे सांख्यमतिन् ! तेरे मत से तो अचेतन-रूप यह द्रव्य-मिथ्यात्व नाम की प्रकृति ही भाव-मिथ्यात्व की करने वाली ठहरी, जीव तो फिर सर्वथा अकर्ता ही ठहरा । तब फिर उसको तो कर्म-बंध नहीं होना चाहिये, और जब कर्म-बंध नहीं, तो संसार का अभाव आया, सो यह प्रत्यक्ष विरुद्ध है । इसी प्रकार [सम्मत्ता जदि पयडी सम्मादिट्ठी करेदि अप्पाणं] सम्यक्त्व-नाम वाली प्रकृति स्वयं नहीं परिणमन करने वाले आत्मा को सम्यग्दृष्टि बना देती है [तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगा पत्ता] तो फिर चैतन्य-शून्य-प्रकृति ही तेरे मत में कर्ता ठहरी, जीव तो सम्यक्त्व परिणाम का कर्ता नहीं ठहरा अपितु अकर्ता ही रहा तो वेदक-सम्यक्त्व का अभाव ही रहा, और वेदक सम्यक्त्व के अभाव में क्षायिक-सम्यक्त्व का भी अभाव ठहरा और उससे मोक्ष का भी अभाव हुआ, तब यह प्रत्यक्ष विरोध व आगम विरोध हुआ । इस पर प्रश्न होता है कि सम्यक्त्व-प्रकृति तो कर्म का भेद है जो कि सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्-मिथ्यात्व के भेद से तीन प्रकार के होने वाले दर्शन-मोह का प्रथम भेद है वह सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है ? क्योंकि सम्यक्त्व तो भव्य जीव का परिणाम होता है जो कि निर्विकार-सदानन्द: है लक्षण जिसका ऐसा जो परमात्मा-तत्त्व उसे आदि लेकर जीवादि-सातों तत्वों के श्रद्धानरूप होकर मोक्ष का बीजभूत होता है ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि सम्यक्त्व-प्रकृति कर्म विशेष है यह ठीक है किन्तु निर्विष किया हुआ विष जैसे मारने वाला नहीं होता है वैसे ही मन्त्र स्थानीय विशुद्धि-विशेष मात्र शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम के द्वारा नष्ट कर दी गई है मिथ्यात्व शक्ति जिसकी, ऐसा वह सम्यक्त्व नामकर्म विशेष है वह क्षायोपशमिक आदि पाँच-लब्धियों के द्वारा उत्पन्न हुआ प्रथमोपशम-सम्यक्त्व उसके अनन्तर उत्पन्न जो वेदक-सम्यक्त्व उसका स्वभाव जो तत्वार्थ-श्रद्धानरूप आत्म-परिणाम उसको नष्ट नहीं करता है, इसलिये उपचार से सम्यक्त्व का हेतु होने के कारण यह कर्म विशेष भी सम्यक्त्व कहा जाता है, जो कि तीर्थंकर-नामकर्म के समान परम्परा से मुक्ति का कारण भी होता है । इसमें कोई दोष नहीं है । [अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं] अब यदि उपर्युक्त दूषण से बचने के लिए यह कहा जाय कि यह प्रत्यक्ष-भूत जीव-द्रव्य-कर्मरूप-पुद्गल-द्रव्य के शुद्धात्म-तत्त्वादिक के विषय में विपरीत अभिप्राय को पैदा करने वाले भाव-मिथ्यात्व को कर देता है किंतु स्वयं भाव-मिथ्यात्व रूप परिणमन नहीं करता है ऐसा तेरा मत है ? [तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो] तो फिर एकांत रूप से वह पुद्गल-द्रव्य ही मिथ्यादृष्टि होना चाहिये, जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होना चाहिये । ऐसी दशा में कर्म-बंध भी उसी के होना चाहिये, संसार भी उसी के, अपितु जीव के तो फिर कुछ नहीं होना चाहिये, यह प्रत्यक्ष विरोध है । [अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं] फिर इस दूषण से बचने के लिये भी यह कहा जाय कि जीव और प्रकृति दोनों कर्म-रूप पुद्गल-द्रव्य को भाव-मिथ्यात्व-रूप कर देते हैं । [तम्हा दोहिं कदंतं] उन दोनों के द्वारा किये हुये उस मिथ्यात्व के [दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं] फल को जीव और पुद्गल दोनों ही भोगें, ऐसा होना चाहिये सो इसमें अचेतन-प्रकृति के भी भोक्तापन का प्रसंग आया, यह प्रत्यक्ष में विरोध है । [अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं] यदि ऐसा कहा जाय कि एकांत से न तो प्रकृति ही करती है और न अकेला जीव ही इस कर्म को भाव मिथ्यात्व रूप करता है, [तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा] तब पुद्गल-द्रव्य ही मिथ्यात्व ठहरा, सो ऐसा कहना क्या मिथ्यापन नहीं है ? किन्तु मिथ्या ही है, क्योंकि यह [अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं] इस पूर्वोक्त वाक्य से विरुद्ध ही है । स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि यद्यपि शुद्ध-निश्चयनय से जीव शुद्ध ही है फिर भी पर्यायार्थिक-नय से कथंचित् परिणामीपना होने पर अनादि काल से धारा प्रवाह रूप से चले आये कर्मों के उदय के वश से यह जीव स्फटिक-पाषाण के समान ही रागादिरूप उपाधि-परिणाम को ग्रहण करता है । यदि एकांत से यह अपरिणामी ही हो तो फिर इसमें उपाधिरूप-परिणाम कभी घटित नहीं हो सकता है । स्फटिक-पाषाण में जपा-पुष्प की उपाधि के द्वारा परिणमन कर जाने की शक्ति है इसलिये जपा-पुष्प उस स्फटिक में उपाधि पैदा कर देता है किन्तु वही जपा-पुष्प काष्ठादिक में उपाधि पैदा नहीं करता क्योंकि वहाँ उपाधि रूप से परिणमन-शक्ति का अभाव है । ऐसी ही बात जीव के विषय में है । इस प्रकार एकांत से यदि ऐसा मान लिया जाय कि द्रव्य रूप मिथ्यात्व-प्रकृति ही कर्ता बनकर भाव-मिथ्यात्व को कर देती है तब फिर जीव भाव-मिथ्यात्व का कर्ता नहीं ठहरता है, एवं जीव में भाव-मिथ्यात्व के न होने पर कर्म का अभाव आ जाता है और कर्म के अभाव से संसार का अभाव आता है सो यह प्रत्यक्ष विरोध है । इत्यादि रूप से व्याख्यान द्वारा तृतीय स्थल में पाँच गाथाएँ पूर्ण हुई ॥३५५-३५९॥ आगे ज्ञान, अज्ञान, सुख, दुख आदि कर्म एकांत से कर्म ही करता है, आत्मा नहीं करता, ऐसे सांख्य-मत के अनुसार चलने वाले कहते है । उन्हों के प्रति नय-विभाग से यह सिद्ध करते हैं कि यह जीव कथंचित् कर्ता है । इसकी तेरह गाथायें हैं ।
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