
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यथा खलु शिल्पी सुवर्णकारादि: कुंडलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, हस्तकुट्ट-कादिभि: परद्रव्यपरिणामात्मकै: करणै: करोति, हस्तकुट्टकादीनि परद्रव्यपरिणामात्मकानि कर-णानि गृह्णाति, ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुंडलादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽ-न्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहार: । तथात्मापि पुण्यपापादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, कायवाङ्मनोभि: पुद्गल-द्रव्यपरिणामात्मकै: करणै: करोति, कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति, सुखदु:खादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्व-व्यवहार: । यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दु:खलक्षण-मात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; तत: परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चय: । तथात्मापि चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दु:खलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; तत: परिणामपरि-णामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चय: ॥३४९-३५५॥ (कलश--नर्दटक) ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयत: स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् । न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव तत: ॥२११॥ (कलश--पृथ्वी) बहिर्लुठति यद्यपि स्फुटदनंतशक्ति: स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम् । स्वभावनियतं यत: सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुल: किमिह मोहित: क्लिश्यते ॥२१२॥ (कलश--रथोद्धता) वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य क: किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि ॥२१३॥ (कलश--रथोद्धता) यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुन: किंचनापि परिणामिन: स्वयम् । व्यावहारिकदृशैव तन्मतं नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ॥२१४॥ जिसप्रकार शिल्पी
जिसप्रकार वही शिल्पी करने का इच्छुक होता हुआ चेष्टारूप अर्थात् कुण्डलादि करने के अपने परिणामरूप और हस्तादि के व्यापाररूप जो स्व-परिणामात्मक कर्म करता है तथा चेष्टा-रूप दु:ख-स्वरूप कर्म के स्व-परिणामात्मक फल को भोगता है और एक-द्रव्यत्व के कारण कर्म और कर्म-फल से अनन्य होने से तन्मय (कर्म-मय और कर्म-फल-मय) है; इसलिए परिणाम-परिणामीभाव से कर्ता-कर्मपने और भोक्ता-भोग्यपने का निश्चय है । उसीप्रकार आत्मा भी करने का इच्छुक होता हुआ चेष्टा-रूप अर्थात् रागादि परिणाम-रूप और प्रदेशों के व्यापार-रूप जो आत्म-परिणामात्मक कर्म करता है, चेष्टा-रूप कर्म के आत्म-परिणामात्मक दु:ख-रूप फल को भोगता है और एक-द्रव्यत्व के कारण उनसे अनन्य होने से तन्मय है; इसलिए परिणाम-परिणामीभाव से वही कर्ता-कर्मपन और भोक्ता-भोग्यपन का निश्चय है । (कलश--दोहा)
[ननु परिणाम एव किल विनिश्चयतः कर्म] वास्तव में परिणाम ही निश्चय से कर्म है, और [सः परिणामिन एव भवेत्, अपरस्य न भवति] परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी का ही होता है, अन्य का नहीं (क्योंकि परिणाम अपने-अपने द्रव्य के आश्रित हैं, अन्य के परिणाम का अन्य आश्रय नहीं होता); [इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति] और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, [च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न] तथा वस्तु की एकरूप (कूटस्थ) स्थिति नहीं होती; [ततः तद् एव कर्तृ भवतु] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्म की कर्ता है (यह निश्चयसिद्धांत है) ।अरे कभी होता नहीं, कर्त्ता के बिन कर्म । निश्चय से परिणाम ही, परिणामी का कर्म ॥ सदा बदलता ही रहे, यह परिणामी द्रव्य । एकरूप रहती नहीं, वस्तु की थिति नित्य ॥२११॥ (कलश--रोला)
[स्वयं स्फुटत्-अनन्त-शक्ति:] जिसकी स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है, ऐसी वस्तु [बहिः यद्यपि लुठति] अन्य वस्तु के बाहर यद्यपि लोटती है [तथापि अन्य-वस्तु अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति] तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तु के भीतर प्रवेश नहीं करती, [यतः सकलम् एव वस्तु स्वभाव-नियतम् इष्यते] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने-अपने स्वभाव में निश्चित हैं, ऐसा माना जाता है । [इह] ऐसा होने पर भी, [मोहितः] मोहितजीव, [स्वभाव-चलन-आकुलः] अपने स्वभाव से चलित होकर आकुल होता हुआ, [किम् क्लिश्यते] क्यों क्लेश पाता है ?यद्यपि आतमराम शक्तियों से है शोभित । और लोटता बाहर-बाहर परद्रव्यों के ॥ पर प्रवेश पा नहीं सकेगा उन द्रव्यों में । फिर भी आकुल-व्याकुल होकर क्लेश पा रहा ॥२१२॥ (कलश--रोला)
[इह च] इस लोक में [येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न] एक वस्तु अन्य वस्तु की नहीं है, [तेन खलु वस्तु तत् वस्तु] इसलिये वास्तव में वस्तु वस्तु ही है - [अयम्निश्चयः] यह निश्चय है । [कः अपरः] ऐसा होने से कोई अन्य वस्तु [अपरस्य बहिः लुठन् अपिहि] अन्य वस्तु के बाहर लोटती हुई भी [किं करोति] उसका क्या कर सकती है ?एक वस्तु हो नहीं कभी भी अन्य वस्तु की । वस्तु वस्तु की ही है - ऐसा निश्चित जानो ॥ ऐसा है तो अन्य वस्तु यदि बाहर लोटे । तो फिर वह क्या कर सकती है अन्य वस्तु का ॥२१३॥ (कलश--रोला)
[वस्तु] एक वस्तु [स्वयम् परिणामिनः अन्य-वस्तुनः] स्वयं परिणमित होती हुई अन्य वस्तु का [किंचन अपि कुरुते] कुछ भी कर सकती है [यत् तु] ऐसा जो माना जाता है, [तत् व्यावहारिक-दृशा एव मतम्] वह व्यवहार-दृष्टि से ही माना जाता है । [निश्चयात्] निश्चय से [इह अन्यत् किम् अपि न अस्ति] इस लोक में अन्य वस्तु को अन्य वस्तु कुछ भी नहीं (अर्थात् एक वस्तु को अन्य वस्तु के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं) है ।
स्वयं परिणमित एक वस्तु यदि परवस्तु का । कुछ करती है - ऐसा जो माना जाता है ॥ वह केवल व्यवहारकथन है निश्चय से तो । एक दूसरे का कुछ करना शक्य नहीं है ॥२१४॥ |
जयसेनाचार्य :
जैसे भूतलपर हम देखते हैं कि सुनार आदि कारीगर स्वर्ण के कुण्डलादि आभूषण को बनाता है । किन से बनाता है ? हथौड़े आदि उपकरणों के द्वारा बनाता है । उन हथौड़े आदि उपकरणों को अपने हाथ में ग्रहण करता है तव उन सोने के कुण्डलादि आभूषणों से और हथौड़े आदि उपकरणों से वह तन्मय नहीं हो जाता । वैसे ही ज्ञानी जीव भी निश्चय वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान से च्युत होता हुआ द्रव्य-कर्मों को करता है । किन के द्वारा करता है ? कर्मों के उत्पादन करने वाले मन-वचन-काय के उपकरणों द्वारा करता है । वैसे ही यह जीव भी कर्मोदय के वश होकर कर्मों के उत्पादन करने वाले मन-वचन-काय के व्यापार-रूप कर्मों के उत्पादन करने वाले उपकरणों के साथ तन्मय नहीं होता, किन्तु अपने टंकोत्कीर्ण ज्ञायक-पने से यह जीव उनसे भिन्न ही रहता है । जैसे सुनारादि कारीगर सोने के कुण्डलादि बन जाने पर उनका आहार-पानादि-रूप जो कुछ मूल्य प्राप्त करता है और उसे भोगता भी है, फिर भी वह उस अशन-पानादि से तन्मय नहीं होता है । वैसे ही जीव भी अपनी शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुए मनोहर आनन्द-मयी सुख के स्वाद को नहीं पाता हुआ बाह्य में दीखने वाले अशन-पानादि-रूप शुभ और अशुभ कर्म के फल को भोगता है फिर भी वह अशन-पानादिरूप नहीं बन जाता । [एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दरिसणं समासेण] इस पूर्वोक्त रीति से चार गाथाओं द्वारा हे भाई द्रव्य-कर्म के कर्त्तापन और भोक्तापन रूप जो व्यवहार-नय है उसका मत या दृष्टांत या उदाहरण संक्षेप में बताया गया है । [सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकदं तु जं होदि] अब इसके आगे निश्चय-नय का वचन रूप व्याख्यान कहा जाता है उसको सुनो, जो की रागादि विकल्प के द्वारा सम्पादित एवं आत्मा के परिणाम द्वारा किया होता है । [जह सिप्पिओ दु चेट्ठं कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो से] जैसे सुनारादि कारीगर अपने मन में जब इस प्रकार का विचार करता है कि मैं इस-इस प्रकार के कुण्डलादि बनाऊँ तब वह उस विचार-रूप चेष्ठा से अभिन्न अर्थात तन्मय होता है । [तह जीवो वि य कम्मं कुवदि हवदि य अणण्णो से] वैसे ही केवलज्ञानादि की अभिव्यक्ति होना है स्वरूप जिसका ऐसा जो कार्य-समयसार उसका जो साधक निर्विकल्प समाधि रूप कारण-समयसार उसका अभाव हो जाने पर यह अज्ञानी जीव अशुद्ध-उपादान अशुद्ध-निश्चयनय के द्वारा मिथ्यात्व-रागादिरूप भाव-कर्म को करने वाला होता है तब उस समय उस भाव-कर्म के साथ अभिन्न होता है । यह भाव-कर्म के कर्तापन की गाथा हुई । [जह चेट्ठं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिओ होदि] जैसे कि कारीगर अपने मन में यह विचार करता है कि मैं अमुक-अमुक प्रकार के कुण्डलादि बनाऊं ऐसा विचार करता हुआ वह नियम से अपने चित्त में आकुल-व्याकुलतारूप दु:ख को प्राप्त होता है उस विचार से वह केवल दु:खी ही नहीं होता, किन्तु [तत्तो सिया अणण्णो] उसके अनुभव में आने वाले दुख-रूप विकल्प से अभिन्न ही रहता है । [तह चेट्ठंतो दुही जीवो] उसी प्रकार अज्ञानी-जीव भी विशुद्ध-ज्ञान-दर्शनादि की अभिव्यक्ति रूप जो कार्य-समयसार व उस कार्य-समयसार का साधक जो निश्चय रत्नत्रयात्मक कारण-समयसार है उसके लाभ में अर्थात् अभाव में, सुख-दुखादि के भोक्तापन के काल में हर्ण-विषादादि-रूप चेष्ठा को करता हुआ वह अपने मन में दुखी होता है, तब वह उस हर्ष-विषादादि रूप चेष्ठा के साथ अशुद्ध-उपादान रूप अशुद्ध-निश्चयनय के द्वारा अभिन्न अर्थात तन्मय होकर रहता है । इस प्रकार पूर्व-कथित रीति से सुनार आदि के दृष्टांत द्वारा जैसे बताया गया है वैसे यह अज्ञानी जीव निर्विकल्प-रूप स्व-संवेदन ज्ञान से च्युत होकर व्यवहार-नय के द्वारा तो द्रव्य-कर्म को करता है व उसे भोगता है इसी प्रकार अशुद्ध-निश्चय-नय के द्वारा भाव-कर्म को करता है और भोगता है, इस प्रकार के व्याख्यान को लेकर इस छठे स्थल में ये सात गाथायें पूर्ण हुईं ॥३८०-३८६॥ इस प्रकार आत्मा के भिन्न कर्तृत्व और अभिन्न कर्तृत्व को बताकर आगे यह बतलाते हैं कि ज्ञान ज्ञेय-वस्तु को जानता है फिर भी निश्चय-नय से उससे तन्मय नहीं होता । जैसे कि सफेद मिट्टी दीवाल को सफेद करती है फिर भी वह मिट्टी दीवाल से भिन्न रहती है । इस प्रकार निश्चय की मुख्यता से पाँच गाथाएँ कहकर, आगे की पाँच गाथाओं में यह बतलाते हैं कि खडिया दीवाल को सफेद कर देती है -- यह व्यवहार है, वैसे ही ज्ञान भी ज्ञेय-वस्तु को जानता है -- यह व्यवहार है । इस प्रकार दोनों मिलाकर दस गाथायें हैं -- |