
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
य: खलु पुद्गलकर्मविपाकभवेभ्यो भावेभ्यश्चेतयितात्मानं निवर्तयति, स तत्कारणभूतं पूर्वंकर्म प्रतिक्रामन् स्वयमेव प्रतिक्रमणं भवति । स एव तत्कार्यभूतमुत्तरं कर्म प्रत्याचक्षाण: प्रत्याख्यानं भवति । स एव वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यंतभेदेनोपलभमान: आलोचना भवति । एवमयं नित्यं प्रतिक्रामन्, नित्यं प्रत्याचक्षाणो, नित्यमालोचयंश्च, पूर्वकर्मकार्येभ्य उत्तरकर्म-कारणेभ्यो भावेभ्योऽत्यंतं निवृत्त:, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यंतभेदेनोपलभमान:, स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरंतरचरणाच्चारित्रं भवति । चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भाव: ॥३८३-३८६॥ (कलश--उपजाति) ज्ञानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम् । अज्ञानसंचेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बंध: ॥२२४॥ जो आत्मा पुद्गलकर्म के विपाक से हुए भावों से स्वयं को छुड़ाता है, दूर रखता है; वह आत्मा उन भावों के कारणभूत पूर्वकर्मों का प्रतिक्रमण करता हुआ स्वयं ही प्रतिक्रमण है, वही आत्मा उन भावों के कार्यभूत उत्तर-कर्मों का प्रत्याख्यान करता हुआ स्वयं ही प्रत्याख्यान है और वही आत्मा वर्तमान कर्मविपाक को अपने से भिन्न अनुभव करता हुआ आलोचना है । इसप्रकार वह आत्मा सदा प्रतिक्रमण करता हुआ, सदा प्रत्याख्यान करता हुआ और सदा आलोचना करता हुआ पूर्वकर्मों के कार्यरूप और उत्तरकर्मों के कारणरूप भावों से अत्यन्त निवृत्त होता हुआ और वर्तमान कर्म-विपाक को अपने से अत्यन्त भिन्न अनुभव करता हुआ अपने में ही, अपने ज्ञान-स्वभाव में ही निरन्तर चरने से, लीन रहने से चारित्र है । इसप्रकार चारित्र-स्वरूप होता हुआ आत्मा स्वयं को ज्ञान-मात्र चेतनारूप अनुभव करता है; इसलिए स्वयं ही ज्ञान-चेतना है - ऐसा आशय है । (कलश--रोला)
[नित्यं ज्ञानस्य संचेतनया एव ज्ञानम् अतीव शुद्धम् प्रकाशते] निरन्तर ज्ञान की संचेतना से ही ज्ञान अत्यन्त शुद्ध प्रकाशित होता है; [तु] और [अज्ञानसंचेतनया] अज्ञान की संचेतना से [बन्धः धावन्] बंध दौड़ता हुआ [बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि] ज्ञान की शुद्धता को रोकता है, अर्थात् ज्ञान की शुद्धता नहीं होने देता।
ज्ञान-चेतना शुद्ध ज्ञान को करे प्रकाशित । शुद्धज्ञान को रोके नित अज्ञान-चेतना ॥ और बंध की कर्ता यह अज्ञान-चेतना । यही जान चेतो आतम नित ज्ञान-चेतना ॥२२४॥ |
जयसेनाचार्य :
अब इसके आगे निश्चय-प्रतिक्रमण, निश्चय-प्रत्याख्यान और निश्चय-आलोचना के रूप परिणत हुआ स्वयं तपोधन ही अभेद-नय से निश्चय-चारित्र होता है ऐसा व्याख्यान आगे की गाथाओं में करते हैं -- [णियत्तदे अप्पयं तु जो] जो कारण-समयसार
प्रश्न – किससे दूर करता है ? उत्तर – [कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं तत्तो] अनेक प्रकार के विस्तार से विस्तीर्ण जो पूर्वकाल के किए शुभाशुभ कर्म हैं उनसे दूर कर लेता है । [सो पडिक्कमणं] वह पुरुष ही अभेद-नय से निश्चय-प्रतिक्रमण होता है । तथा [णियत्तदे जो] अनन्त-ज्ञानादि स्वरूप जो आत्म-द्रव्य, उसका समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव स्वरूप अभेद-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, ऐसे परम सामायिक में स्थित होकर आत्मा को बचा लेता है । प्रश्न – किससे बचा लेता है ? उत्तर – [कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि बज्झदि भविस्सं तत्ते] शुभ और अशुभ-रूप अनेक प्रकार के फैलाव में फैला हुआ भविष्यत-कालीन कर्म जिस मिथ्यात्व या रागादि-रूप परिणाम के होने पर बनाता है उस परिणाम से बचा लेता है, दूर कर रखता है । [सो पच्चक्खाणं हवे चेदा] इस प्रकार के गुणवाला वह तपोधन ही अभेद-नय से निश्चय-रूप प्रत्याख्यान होता है ऐसा जानना चाहिये । तथा [जो चेददि] सदा बना रहने वाला जो आनन्द, वही है एक स्वभाव जिसका ऐसे शुद्धात्मा के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप जो अभेद-रत्नत्रय-वाले एवं सुख और दु:ख तथा जीवन और मरण आदि के विषय में समभाव रखने वाले, सब ओर उपेक्षा रखने वाले, संयम में स्थित होकर वेदता है, अनुभव करता है जानता है । क्या जानता है ? कि [जं तं] जो कोई कर्म है वह [दोसं] मेरा किया हुआ दोष है, किंतु वह मेरा स्वरूप नहीं है । प्रश्न – वह कौन सा कर्म ? उत्तर – [उदिण्णं] जो कि उदय में आ रहा है । प्रश्न – फिर वह कैसा है ? उत्तर – कि [सुहमसुहं] शुभ और अशुभ-रूप है । प्रश्न – फिर वह कैसा है उत्तर – कि [अणेयवित्थरविसेसं] मूल और उत्तर प्रकृति के भेद से अनेक प्रकार के फैलाव में फैला हुआ है । [संपडि य] जो कि वर्तमान-काल में स्पष्ट हो रहा है [सो आलोयणं चेदा] सो वह उपर्युक्त प्रकार से जानने वाला आत्मा ही अभेद-नय से आलोचना रूप होता है ऐसा जानना चाहिये । [णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वदि णिच्चं पडिक्कमदि जो य णिच्चं आलोचेयदि] निश्चय-रत्नत्रय है लक्षण जिसका, ऐसा जो शुद्धात्मा का स्वरूप है उसमें स्थित होकर जो जीव उपर्युक्त निश्चय-प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और आलोचना रूप अनुष्ठान, नित्य ही सदा काल करता रहता है, [सो दु चरित्तं हवदि चेदा] वह सचेतन पुरुष ही अभेद-नय निश्चय-चारित्र होता है क्योंकि शुद्धात्मा के स्वरूप में चरण करना तल्लीन होना सो चारित्र है, इस प्रकार का आर्ष-वचन है । इस प्रकार निश्चय-प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना और चारित्र के व्याख्यान रूप से इस आठवें स्थल में चार गाथाय पूर्ण हुईं ॥३९७-४००॥ |