
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिंगममकारेण मिथ्याहंकारं कुर्वन्ति,तेऽनादिरूढव्यवहारमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं न पश्यन्ति । (वियोगिनी) व्यवहारविमूढद्रष्टयः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः । तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम् ॥२४२॥ (स्वागता) द्रव्यलिंगममकारमीलितै-द्रर्श्यते समयसार एव न । द्रव्यलिंगमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः ॥२४३॥ आगे कहते हैं कि जो सहज शुद्ध परमात्मानुभूति लक्षण वाले भाव-लिंग से तो रहित हैं, किन्तु द्रव्य-लिंग में ही ममता करते हैं वे आज भी समयसार को नहीं जानते -- मैं श्रमण हूँ या मैं श्रमणोपासक (श्रावक) हूँ - इसप्रकार द्रव्य-लिंग में ही जो पुरुष ममत्व-भाव से मिथ्या अहंकार करते हैं; अनादिरूढ़ व्यवहार-विमूढ़, प्रौढ़-विवेक-वाले निश्चय पर अनारूढ़ वे पुरुष निश्चित-रूप से परमार्थ-सत्य समयसार (शुद्धात्मा) को नहीं देखते हैं । (कलश--हरिगीत)
[व्यवहार-विमूढ-दृष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति] जिनकी दृष्टि (बुद्धि) व्यवहार में ही मोहित है ऐसे पुरुष परमार्थ को नहीं जानते, [इह तुष-बोध-विमुग्ध-बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम्] जैसे जगत में जिनकी बुद्धि तुष के ज्ञान में ही मोहित है (मोह को प्राप्त हुई है) ऐसे पुरुष तुष को ही जानते हैं, तंदुल (चावल) को नहीं जानते ।तुष माहिं मोहित जगतजन ज्यों एक तुष ही जानते । वे मूढ़ तुष संग्रह करें तन्दुल नहीं पहिचानते ॥ व्यवहारमोहित मूढ़ त्यों व्यवहार को ही जानते । आनन्दमय सद्ज्ञानमय परमार्थ नहीं पहिचानते ॥२४२॥ (हिंदी--हरिगीत)
[द्रव्यलिङ्ग-ममकार-मीलितैः समयसारः एव न दृश्यते] जो द्रव्यलिंग में ममकार के द्वारा अंध (विवेक रहित) हैं, वे समयसार को ही नहीं देखते; [यत् इह द्रव्यलिंगम्किल अन्यतः] क्योंकि इस जगत में द्रव्यलिंग तो वास्तव में अन्य द्रव्य से होता है, [इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः] मात्र यह ज्ञान ही निज से (आत्म-द्रव्य से) होता है ।
यद्यपी परद्रव्य है द्रवलिंग फिर भी अज्ञजन । बस उसी में ममता धरें द्रवलिंग मोहित अन्धजन ॥ देखें नहीं जानें नहीं सुख-मय समय के सार को । बस इसलिए ही अज्ञजन पाते नहीं भवपार को ॥२४३॥ |
जयसेनाचार्य :
[पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु कुव्वंति जे ममत्तिं] वीतराग-स्वरूप स्व-संवेदन-ज्ञान लक्षण वाले ऐसे भाव-लिंग से जो रहित हैं ऐसे निर्ग्रन्थ-रूप पाखण्डियों के द्रव्य-लिंगों में और कोपीन आदि चिह्न-वाले गृहस्थ के द्रव्य-लिंगों में, जो कि अनेक प्रकार के हैं, उनमें जो ममता किये बैठे हैं, [तेहिं ण णादं समयसारं] वे लोग निश्चय-समयसार को नहीं जानते । वह निश्चय-कारण-समयसार कैसा है ? कि जो तीन-लोक और तीन-काल में ख्याति, पूजा, लाभ, मिथ्यात्व, काम और क्रोधादि समस्त पर-द्रव्यों के आलम्बन से उत्पन्न होने वाले शुभ तथा अशुभ-संकल्प-विकल्प से रहित है और चिदानंदमयी एक स्वभाव-रूप शुद्धात्म-तत्त्व का समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और आचरण तद्रूप जो अभेद-रत्नत्रयमयी निर्विकल्प-समाधि, उससे उत्पन्न हुआ वीतराग सहज अपूर्व परम-आह्लाद-रूप सुख-रस का अनुभवन करना, वही हुआ परम समरसी-भाव-रूप परिणाम, उसके आलम्बन से पूर्ण-कलश के समान भरा-पूरा है और केवल-ज्ञानादि अनंत-चतुष्टय की प्रकटता-रूप साक्षात् उपादेय-भूत कार्य-समयसार का उत्पादक है ऐसा जो निश्चय कारण-समयसार है, उसको नहीं जानते ॥४३७॥ |