अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथ शुद्धोपयोगजन्यस्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्य कारकान्तरनिरपेक्षतयाऽत्यन्तमात्मायतत्त्वं द्योतयति – अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगभावनानुभावप्रत्यस्तमितसमस्तघातिकर्मतया समुपलब्ध-शुद्धानन्तशक्तिचित्स्वभाव:, शुद्धानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेन स्वतंत्रत्वाद्गृहीतकर्तृत्वाधिकार:, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन्, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानवि-परिणमन स्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुबिभ्राण:, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमन स्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं दधान:, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमन समये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्रुवत्वालम्बनादपादानत्वमुपाद-दान:, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाण:; स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमान:, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नघातिकर्माण्य-पास्य स्वयमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । अतो न निश्चयत: परेण सहात्मन: कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति; यत: शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतन्त्रर्भूयते ॥१६॥ अब, शुद्धोपयोग से होनेवाली शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष (स्वतंत्र) होने से अत्यन्त आत्माधीन है (लेशमात्र पराधीन नहीं है) यह प्रगट करते हैं :- शुद्ध उपयोग की भावना के प्रभाव से समस्त घाति-कर्मों के नष्ट होने से जिसने शुद्ध अनन्त-शक्तिवान चैतन्य स्वभाव को प्राप्त किया है, ऐसा यह (पूर्वोक्त) आत्मा,
यहाँ यह कहा गया है कि - निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बन्ध नहीं है, कि जिससे शुद्धात्म-स्वभाव की प्राप्ति के लिये सामग्री (बाह्य साधन) ढूँढने की व्यग्रता से जीव (व्यर्थ ही) परतंत्र होते हैं । |
जयसेनाचार्य : संस्कृत
अथ शुद्धोपयोगजन्यस्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्य भिन्नक ारक निरपेक्षत्वेनात्माधीनत्वं प्रकाशयति-- तह सो लद्धसहावो यथा निश्चयरत्नत्रयलक्षणशुद्धोपयोगप्रसादात्सर्वं जानाति तथैव सःपूर्वोक्तलब्धशुद्धात्मस्वभावः सन् आदा अयमात्मा हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो स्वयम्भूर्भवतीति निर्दिष्टःकथितः । किंविशिष्टो भूतः । सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो भूदो सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितश्च भूतः संजातः । कथम् । सयमेव निश्चयेन स्वयमेवेति । तथाहि -- अभिन्नकारकचिदानन्दैकचैतन्यस्वभावेन स्वतन्त्रत्वात्कर्ता भवति । नित्यानन्दैकस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति । शुद्धचैतन्यस्वभावेनसाधकतमत्वात्करणकारकं भवति । निर्विकारपरमानन्दैकपरिणतिलक्षणेन शुद्धात्मभावरूपकर्मणा समाश्रियमाणत्वात्संप्रदानं भवति । तथैव पूर्वमत्यादिज्ञानविकल्पविनाशेऽप्यखण्डितैकचैतन्य-प्रकाशेनाविनश्वरत्वादपादानं भवति । निश्चयशुद्धचैतन्यादिगुणस्वभावात्मनः स्वयमेवाधारत्वादधिकरणंभवतीत्यभेदषट्कारकीरूपेण स्वत एव परिणममाणः सन्नयमात्मा परमात्मस्वभाव-केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे यतो भिन्नकारकं नापेक्षते ततः स्वयंभूर्भवतीति भावार्थः ॥१६॥ [तह सो लद्धसहावो] जैसे निश्चय रत्नत्रय लक्षण शुद्धोपयोग के प्रसाद से (यह आत्मा) सभी को जानता है, उसी प्रकार पूर्वोक्त (पन्द्रहवीं गाथा में कहे) शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त करता हुआ, [आदा] यह आत्मा [हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो] स्वयंभू है, ऐसा कहा गया है । वह आत्मा कैसा होता हुआ स्वयंभू है ? [सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो भूदो] सर्वज्ञ और सम्पूर्ण लोक के (विविध) राजाओं द्वारा पूजित होता हुआ स्वयंभू है । वह स्वयंभू कैसे है? [सयमेव] वह निश्चय से स्वयं ही स्वयंभू है । वह इसप्रकार-
|