अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथास्यात्मन: शुद्धोपयोगानुभावात्स्वयंभुवो भूतस्य कथमिन्द्रियैर्विना ज्ञानानन्दाविति संदेहमुदस्यति । अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणघातिकर्मा, क्षायोपशमिकज्ञानदर्शनासंपृक्त-त्वादतीन्द्रियो भूत: सन्निखिलान्तरायक्षयादनन्तवरवीर्य:, कृत्स्नज्ञानदर्शनावरणप्रलयादधिककेवलज्ञानदर्शनाभिधानतेजा:, समस्तमोहनीयाभावादत्यन्तनिर्विकारचैतन्यस्वभाव-मात्मानमासादयन् स्वयमेव स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं च भूत्वा परिणमते । एवमात्मनो ज्ञानानन्दौ स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिन्द्रियैर्विनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दौ संभवत: ॥१९॥ अब, शुद्धोपयोगके प्रभाव से स्वयंभू हुए इस (पूर्वोक्त) आत्मा के इन्द्रियों के बिना ज्ञान और आनन्द कैसे होता है ? ऐसे संदेह का निवारण करते हैं :- शुद्धोपयोग के सामर्थ्य से जिसके घाति-कर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं, क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन के साथ असंपृक्त (संपर्क रहित) होने से जो अतीन्द्रिय हो गया है,
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जयसेनाचार्य : संस्कृत
अथ तं पूर्वोक्तसर्वज्ञं ये मन्यन्ते ते सम्यग्दृष्टयोभवन्ति, परम्परया मोक्षं च लभन्त इति प्रतिपादयति -- पक्खीणघादिकम्मो ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयस्वरूपपरमात्मद्रव्यभावनालक्षणशुद्धोपयोगबलेन प्रक्षीण-घातिकर्मा सन् । अणंतवरवीरिओ अनन्तवरवीर्यः । पुनरपि किंविशिष्टः । अहियतेजो अधिकतेजाः । अत्रतेजः शब्देन केवलज्ञानदर्शनद्वयं ग्राह्यम् । जादो सो स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा जातः संजातः । कथंभूतः ।अणिंदियो अनिन्द्रिय इन्द्रियविषयव्यापाररहितः । अनिन्द्रियः सन् किं करोति । णाणं सोक्खं च परिणमदिकेवलज्ञानमनन्तसौख्यं च परिणमतीति । तथाहि -- अनेन व्याख्यानेन किमुक्तं भवति । आत्मा तावन्निश्चयेनानन्तज्ञानसुखस्वभावोऽपि व्यवहारेण संसारावस्थायां कर्मप्रच्छादितज्ञानसुखः सन्पश्चादिन्द्रियाधारेण किमप्यल्पज्ञानं सुखं च परिणमति । यदा पुनर्निर्विकल्पस्वसंवित्तिबलेन कर्माभावोभवति तदा क्षयोपशमाभावादिन्द्रियाणि न सन्ति स्वकीयातीन्द्रियज्ञानं सुखं चानुभवति । ततः स्थितंइन्द्रियाभावेऽपि स्वकीयानन्तज्ञानं सुखं चानुभवति । तदपि कस्मात् । स्वभावस्य परापेक्षानास्तीत्यभिप्रायः ॥२०॥ [पक्खीणघादिकम्मो] ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय स्वरूप परमात्म-द्रव्य की भावना लक्षण शुद्धोपयोग के बल से घातिकर्म रहित होते हुये । [अणंतवरवीरिओ] अनन्त उत्कृष्ट वीर्यवाले है । घातिकर्मों से रहित और अनन्तवीर्य सम्पन्न वे और किन विशेषताओं सहित है? [अहियतेजो] अधिक तेज युक्त हैं । यहाँ तेज शब्द से केवलज्ञान और केवलदर्शन- ये दोनों ग्रहण करना चाहिये । [जादो सो] वे घातिकर्म रहित इत्यादि पूर्वोक्त लक्षण सम्पन्न आत्मा उत्पन्न हुये हैं । वे आत्मा कैसे उत्पन्न हुये हैं? [अणिंदियो] अनिन्द्रिय-इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति से रहित-रूप से उत्पन्न हुये हैं । अनिन्द्रिय होकर वे क्या करते हैं? [णाणं सोक्खं च परिणमदि] केवलज्ञान और अनन्त सुख रूप से परिणमित हैं । वह इसप्रकार- इस व्याख्यान से क्या कहा गया है? निश्चय से अनन्त ज्ञान-सुख स्वभावी आत्मा भी व्यवहार से संसार अवस्था में कर्मों से ढंके हुये ज्ञान-सुख रूप होता हुआ, पश्चात् इन्द्रियों के आधार से कुछ थोड़े से ज्ञान और सुख रूप परिणमित होता है । जब निर्विकल्प स्व-संवेदन के बल से कर्म का अभाव होता है, तब क्षयोपशम का अभाव हो जाने से इन्द्रियाँ नहीं होने पर भी अपने अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख का अनुभव करता है । इससे यह फलित हुआ कि इन्द्रियों का अभाव होने पर भी अपने अनन्त ज्ञान और सुख का अनुभव होता है । इन्द्रियों के अभाव में अनन्त ज्ञानादि का अनुभव कैसे हो सकता है? स्वभाव को पर की अपेक्षा नहीं होती; अत: इन्द्रियों के बिना भी अनन्त ज्ञानादि का अनुभव हो जाता है- ऐसा अभिप्राय है ॥२०॥ |