अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भवतीत्यभिप्रैति - अस्य खलु भगवत: समस्तावरणक्षयक्षण एव सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिबलाधान-हेतुभूतानि प्रतिनियतविषयग्राहीण्यक्षाणि तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपै: समरसतया समन्तत: सर्वैरेवेन्द्रियगुणै: समृद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षममनश्वरं लोकोत्तरज्ञानजातस्य, अक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया न किंचनापि परोक्षमेव स्यात् ॥२२॥ अब अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होने से ही इन भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं है, ऐसा अभिप्राय प्रगट करते हैं :- समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही
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जयसेनाचार्य : संस्कृत
अथ सर्वं प्रत्यक्षं भवतीत्यन्वयरूपेण पूर्वसूत्रे भणितमिदानीं तु परोक्षं किमपि नास्तीति तमेवार्थं व्यतिरेकेण दृढयति -- णत्थि परोक्खं किंचि वि अस्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्ति । किंविशिष्टस्य । समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स समन्ततः सर्वात्मप्रदेशैः सामस्त्येन वा स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छित्तिरूप-सर्वेन्द्रियगुणसमृद्धस्य । तर्हि किमक्षसहितस्य । नैवम् । अक्खातीदस्स अक्षातीतस्येन्द्रियव्यापाररहितस्य,अथवा द्वितीयव्याख्यानम् - अक्ष्णोति ज्ञानेन व्याप्नोतीत्यक्ष आत्मा तद्गुणसमृद्धस्य । सदा सर्वदासर्वकालम् । पुनरपि किंरूपस्य । सयमेव हि णाणजादस्स स्वयमेव हि स्फुटं केवलज्ञानरूपेण जातस्यपरिणतस्येति । तद्यथा - अतीन्द्रियस्वभावपरमात्मनो विपरीतानि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानीन्द्रियाण्यतिक्रान्तस्य जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तपदार्थयुगपत्प्रत्यक्षप्रतीतिसमर्थमविनश्वरमखण्डैकप्रतिभासमयं केवलज्ञानं परिणतस्यास्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्तीति भावार्थः ॥२२॥ अब पूर्व गाथा (बाईसवीं गाथा) में सब प्रत्यक्ष है- ऐसा अन्वय (अस्ति-विधि) रूप से कथन किया था; यहाँ परोक्ष कुछ भी नहीं है, इसप्रकार उसी अर्थ को व्यतिरेक (नास्ति-निषेध) रूप से दृढ़ करते है - [णत्थि परोक्खं किंचि वि] - उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है । किस विशेषता वाले उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है? [समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स] - सभी आत्मप्रदेशों से अथवा पूर्णरूप से स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द की जानकारीरूप सभी इन्द्रियों के गुणों से समृद्ध उन केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है । तो क्या इन्द्रियसहित केवली के, कुछ भी परोक्ष नहीं है? ऐसा नहीं है । [अक्खातीदस्स] - इन्द्रिय व्यापार से रहित केवली के, कुछ भी परोक्ष नहीं है । अथवा दूसरा व्याख्यान- जो ज्ञान से व्याप्त होता है, जानता है; वह आत्मा है; उस आत्मा के गुणों से समृद्ध इन्द्रिय व्यापार से रहित केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं हैं । [सदा] - हमेशा ही उन्हें कुछ भी परोक्ष नहीं हैं । वे केवली भगवान किस विशेषता वाले हैं? [सयमेव हि णाणजादस्स] - स्वयं ही वास्तव में केवलज्ञानरूप से परिणत उन केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है । वह इसप्रकार-अतीन्द्रिय स्वभावी परमात्मा से विपरीत क्रम से प्रवृति की कारणभूत इन्द्रियों से रहित तीनलोक, तीनकालवर्ती समस्त पदार्थों को एक-साथ जानने में समर्थ, अविनाशी, अखण्ड एक-प्रतिभासमय (ज्योतिस्वरूप) केवलज्ञानरूप से परिणत उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है, यह भाव है | इसप्रकर केवली के सभी प्रत्यक्ष है- इस कथनरूप से प्रथम स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई । |