अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथात्मज्ञानयोरेकत्वान्यत्वं चिन्तयति - यत: शेषसमस्तचेतनाचेतनवस्तुसमवायसम्बन्धनिरुत्सुकतयाऽनाद्यनन्तस्वभावसिद्ध- समवायसम्बन्धमेकमात्मानमाभिमुख्येनावलम्ब्य प्रवृत्तत्वात् तं विना आत्मानं ज्ञानं न धारयति, ततो ज्ञानमात्मैव स्यात् । आत्मा त्वनन्तधर्माधिष्ठानत्वात् ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानमन्यधर्मद्वारेणा-न्यदपि स्यात् । किं चानेकान्तोऽत्र बलवान् । एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतनत्वमात्मनो विशेषगुणाभावादभावो वा स्यात् । सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्वात् ज्ञानस्याभाव आत्मन: शेषपर्यायाभावस्तदविनाभाविनस्तस्याप्यभाव: स्यात् ॥२७॥ अब, आत्मा और ज्ञान के एकत्व-अन्यत्व का विचार करते हैं :- क्योंकि शेष समस्त चेतन तथा अचेतन वस्तुओं के साथ समवाय सम्बन्ध (अभिन्न-प्रदेशरूप सम्बन्ध; तादात्म्य सम्बन्ध) नहीं है, इसलिये जिसके साथ अनादि अनन्त स्वभाव-सिद्ध समवाय-सम्बन्ध है ऐसे एक आत्मा का अति निकटतया [अभिन्न प्रदेश-रूप से] अवलम्बन करके प्रवर्तमान होने से ज्ञान आत्मा के बिना अपना अस्तित्व नहीं रख सकता; इसलिये ज्ञान आत्मा ही है । और आत्मा तो अनन्त धर्मों का अधिष्ठान (आधार) होने से ज्ञान-धर्म के द्वारा ज्ञान है और अन्य धर्म के द्वारा अन्य भी है । और फिर, इसके अतिरिक्त (विशेष समझना कि) यहाँ अनेकान्त बलवान है । यदि यह माना जाय कि एकान्त से ज्ञान आत्मा है तो, (ज्ञानगुण आत्मद्रव्य हो जाने से) ज्ञान का अभाव हो जायेगा, (और ज्ञान-गुण का अभाव होने से) आत्मा के अचेतनता आ जायेगी अथवा विशेष-गुण का अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायेगा । यदि यह माना जाये कि सर्वथा आत्मा ज्ञान है तो, (आत्म-द्रव्य एक ज्ञान-गुणरूप हो जाने पर ज्ञानका कोई आधार-भूत द्रव्य नहीं रहने से) निराश्रयता के कारण ज्ञान का अभाव हो जायेगा अथवा (आत्मद्रव्य के एक ज्ञान-गुणरूप हो जाने से) आत्मा की शेष पर्यायों का (सुख, वीर्यादि गुणों का) अभाव हो जायेगा और उनके साथ ही अविनाभावी सम्बन्ध वाले आत्मा का भी अभाव हो जायेगा । (क्योंकि सुख, वीर्य इत्यादि गुण न हों तो आत्मा भी नहीं हो सकता) |
जयसेनाचार्य : संस्कृत
अथज्ञानमात्मा भवति, आत्मा तु ज्ञानं सुखादिकं वा भवतीति प्रतिपादयति -- णाणं अप्प त्ति मदं ज्ञानमात्माभवतीति मतं सम्मतम् । कस्मात् । वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं ज्ञानं कर्तृ विनात्मानं जीवमन्यत्र घटपटादौ न वर्तते । तम्हा णाणं अप्पा तस्मात् ज्ञायते कथंचिज्ज्ञानमात्मैव स्यात् । इति गाथापादत्रयेणज्ञानस्य कथंचिदात्मत्वं स्थापितम् । अप्पा णाणं व अण्णं वा आत्मा तु ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानं भवति,सुखवीर्यादिधर्मद्वारेणान्यद्वा नियमो नास्तीति । तद्यथा -- यदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदाज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्तः सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति । तथा सुखवीर्यादिधर्मसमूहाभावादात्मा-भावः, आत्मन आधारभूतस्याभावादाधेयभूतस्य ज्ञानगुणस्याप्यभावः, इत्येकान्ते सति द्वयोरप्यभावः । तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा न सर्वथेति । अयमत्राभिप्राय: - आत्मा व्यापको ज्ञानं व्याप्यं ततोज्ञानमात्मा स्यात्, आत्मा तु ज्ञानमन्यद्वा भवतीति । तथा चोक्तम् - व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च ॥२७॥अब ज्ञान आत्मा है, परन्तु आत्मा ज्ञान अथवा सुखादि भी है, ऐसा प्रतिपादित करते हैं - [णाणं अप्प त्ति मदं] - ज्ञान आत्मा है, यह स्वीकृत है । ज्ञान आत्मा है - ऐसा क्यों स्वीकार किया गया है ? [वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं] - ज्ञानरूप कर्ता स्वजीव के बिना अन्यत्र घड़े, कपड़े आदि में नहीं रहता हैं । [तम्हा णाणं अप्पा] - इससे जाना जाता है कि कथंचित् ज्ञान आत्मा ही है । इसप्रकार गाथा के तीन चरणों से ज्ञान का कथंचित् आत्मत्व स्थित हुआ । [अप्पा णाणं व अण्णं वा] - आत्मा ज्ञानधर्म की अपेक्षा ज्ञान है; सुख, वीर्य आदि धर्मों की अपेक्षा अन्य भी है; नियम नही है । वह इसप्रकार - यदि एकान्त से "ज्ञान आत्मा है" - यह कहा जाये तो ज्ञान गुण मात्र ही आत्मा प्राप्त होता है, सुखादि धर्मों के लिये स्थान नहीं रहता । ऐसी स्थिति में सुख, वीर्य आदि धर्म-समूहों का अभाव होने से आत्मा का अभाव होगा । आधारभूत आत्मा का अभाव होने पर आधेयभूत ज्ञानगुण का भी अभाव होगा - इसप्रकार एकान्त मानने पर दोनों का ही अभाव हो जाएगा । इसलिये आत्मा कथंचित् ज्ञान है, सर्वथा नहीं । यहाँ अभिप्राय यह है कि आत्मा व्यापक है और ज्ञान व्याप्य; इसलिये ज्ञान आत्मा हो परन्तु आत्मा ज्ञान भी है और अन्य भी है । वैसा ही कहा भी है - 'व्यापक तद् और अतद् दोनों में रहता है परन्तु व्याप्य मात्र तद् में ही रहता है । ' इसप्रकार (क्षेत्र अपेक्षा) आत्मा और ज्ञान का एकत्व तथा व्यवहार से ज्ञान का सर्वगतत्व इत्यादि कथनरूप से दूसरे स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं । |