अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथैवं ज्ञानिनोऽर्थै: सहान्योन्यवृत्तिमत्त्वेऽपि परग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावेन सर्वं पश्यतो-ऽध्यवस्यतश्चात्यन्तविविक्तत्वं भावयति - अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञान-स्वरूपेण विपरिणम्य निष्कम्पोन्मज्जज्योतिर्जात्यमणिकल्पो भूत्वाऽवतिष्ठमान: समन्तत: स्फुरितदर्शनज्ञानशक्ति:, समस्तमेव नि:शेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते । अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थकसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षणलक्षणक्रियाविराम: प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुन: परमाकारान्तरमपरिणममान: समन्ततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव ॥३२॥ अब, इसप्रकार (व्यवहार से) आत्मा की पदार्थों के साथ एक दूसरे में प्रवृत्ति होने पर भी, (निश्चय से) वह पर का ग्रहण -त्याग किये बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना सबको देखता-जानता है इसलिये उसे (पदार्थों के साथ) अत्यन्त भिन्नता है ऐसा बतलाते हैं :- यह आत्मा, स्वभाव से ही परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का तथा पर-द्रव्यरूप से परिणमित होने का (उसके) अभाव होने से, स्व-तत्त्वभूत केवल-ज्ञानरूप से परिणमित होकर निष्कंप निकलने वाली ज्योति-वाला उत्तम मणि जैसा होकर रहता हुआ,
१निःशेषरूप से = कुछ भी किंचित् मात्र शेष न रहे इस प्रकार से २साक्षात्कार करना = प्रत्यक्ष जानना ३ज्ञप्ति-क्रिया का बदलते रहना = अर्थात् ज्ञान में एक ज्ञेय को ग्रहण करना और दूसरे को छोड़ना सो ग्रहण-त्याग है; इस प्रकार का ग्रहण-त्याग वह क्रिया है, ऐसी क्रिया का केवली-भगवान के अभाव हुआ है ४आकारान्तर = अन्य आकार |
जयसेनाचार्य : संस्कृत
अथ ज्ञानिनः पदार्थैः सह यद्यपि व्यवहारेण ग्राह्यग्राहकसम्बन्धोऽस्ति तथापिसंश्लेषादिसम्बन्धो नास्ति, तेन कारणेन ज्ञेयपदार्थैः सह भिन्नत्वमेवेति प्रतिपादयति -- गेण्हदि णेव ण मुंचदि गृह्णाति नैव मुञ्चति नैव ण परं परिणमदि परं परद्रव्यं ज्ञेयपदार्थं नैव परिणमति । स कःकर्ता । केवली भगवं केवली भगवान् सर्वज्ञः । ततो ज्ञायते परद्रव्येण सह भिन्नत्वमेव । तर्हि किं परद्रव्यं न जानाति । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं तथापि व्यवहारनयेन पश्यतिसमन्ततः सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्जानाति च सर्वं निरवशेषम् । अथवा द्वितीयव्याख्यानम् — अभ्यन्तरेकामक्रोधादि बहिर्विषये पञ्चेन्द्रियविषयादिकं बहिर्द्रव्यं न गृह्णाति, स्वकीयानन्तज्ञानादिचतुष्टयं च न मुञ्चति यतस्ततः कारणादयं जीवः केवलज्ञानोत्पत्तिक्षण एव युगपत्सर्वं जानन्सन् परं विकल्पान्तरं न परिणमति । तथाभूतः सन् किं करोति । स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानज्योतिषा जात्यमणिकल्पोनिःकम्पचैतन्यप्रकाशो भूत्वा स्वात्मानं स्वात्मना स्वात्मनि जानात्यनुभवति । तेनापि कारणेन परद्रव्यैःसह भिन्नत्वमेवेत्यभिप्रायः ॥३३॥ एवं ज्ञानं ज्ञेयरूपेण न परिणमतीत्यादिव्याख्यानरूपेण तृतीयस्थले गाथापञ्चकं गतम् । अब, यद्यपि व्यवहार से ज्ञानी का पदार्थों के साथ ग्राह्यग्राहक-ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है, तथापि संश्लेषादि सम्बन्ध नहीं है, अत: ज्ञेय पदार्थों के साथ उनकी भिन्नता ही है; ऐसा प्रतिपादित करते हैं - [गेण्हदि णेव ण मुंचदि] - ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं हैं, [ण परं परिणमदि] - परद्रव्य रूप ज्ञेय पदार्थों का परिणमन नहीं करते । ग्रहण करने, छोड़ने और परिणमन करनेरूप क्रिया को नहीं करने वाले कर्तारूप वे कौन हैं? [केवली भगवं] - केवली भगवान--सर्वज्ञ परद्रव्य को
अथवा दूसरा व्याख्यान - यतः सर्वज्ञ अन्तरंग में काम-क्रोधादि को एवं बाह्य विषयों में पंचेन्द्रिय विषयादिक बाह्य द्रव्य को ग्रहण नहीं करते, अपने अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय को छोड़ते नहीं हैं, अत: ये जीव केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय से ही एक साथ सबको जानते हुए अन्य विकल्परूप परिणमित नहीं होते । ऐसे होते हुये वे केवली क्या करते हैं? आत्मतत्त्व से उत्पन्न केवलज्ञानरुपी ज्योति द्वारा स्फटिक मणि के समान अत्यन्त स्थिर चैतन्य-प्रकाशरूप होकर अपने आत्मा को, अपने आत्मा द्वारा, अपने आत्मा में अनुभव करते हैं। इस कारण भी परद्रव्य के साथ ज्ञान की पृथकता ही है - यह अभिप्राय है । इसप्रकार ज्ञान ज्ञेयरूप से परिणमित नहीं होता, इत्यादि व्याख्यानरूप तीसरे स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं । |