+ नयों द्वारा द्रव्य का लक्षण -
उप्पत्ती य विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो ।
वयमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया ॥11॥
उत्‍पत्तिर्वा विनाशो द्रव्‍यस्‍य च नास्‍त्‍यस्ति सद्भाव: ।
विगमोत्‍पादध्रुवत्‍वं कुर्वन्ति तस्‍यैव पर्याया: ॥११॥
उत्पाद-व्यय से रहित केवल सत् स्वभावी द्रव्य है
द्रव्य की पर्याय ही उत्पाद-व्यय-ध्रुवता धरे ॥११॥
अन्वयार्थ : द्रव्य का उत्पाद-विनाश नहीं है, सद्भाव है। विनाश, उत्पाद और ध्रुवता को उसकी ही पर्यायें करती हैं।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्रोभयनयाभ्‍यां द्रव्‍यलक्षणं प्रविभक्तम् । द्रव्‍यस्‍य हि सहक्रमप्रवृत्तगुणपर्यायसद᳭भावरूपस्‍य त्रिकालवस्‍थायिनोऽनादिनिधनस्‍य न समुच्‍छेदसमुदयौ युक्तौ । अथ तस्‍यैव पर्यायाणां सहप्रवृत्तिभाजां केषांचित् ध्रौव्‍यसंभवेऽप्‍यपरेषां क्रमप्रवृत्तिभाजां विनाशसंभवसंभावनमुपपन्नम् । ततो द्रव्‍यार्थार्पणायामनुत्‍पादमनुच्‍छेदं सत्‍स्‍वभावमेव द्रव्‍यं, तदेव पर्यायार्थार्पणायां सोत्‍पादं सोच्‍छेदं चावबोद्धव्‍यम् । सर्वविदमनवद्यं च द्रव्‍यपर्यायाणामभेदात् ॥११॥


यहाँ दोनों नयों द्वारा द्रव्य का लक्षण विभक्त किया है (अर्थात दो नयों की अपेक्षा से द्रव्य के लक्षण के विभाग किये गए हैं)

सहवर्ती गुणों और क्रमवर्ती पर्यायों के सद्भाव-रूप, त्रिकाल-अवस्थायी (त्रिकाल-स्थित रहनेवाला), अनादि-अनन्त द्रव्य के विनाश और उत्पाद उचित नहीं है । परन्तु उसी की पर्यायों के, सहवर्ती कतिपय (पर्यायों) का ध्रौव्य होने पर भी अन्य क्रमवर्ती (पर्यायों) के, विनाश और उत्पाद होना घटित होते हैं । इसलिए द्रव्य, द्रव्यार्थिक आदेश से (कथन से) उत्पाद रहित, विनाश रहित, सत्-स्वभाव-वाला ही जानना चाहिए और वही (द्रव्य) पर्यायार्थिक आदेश से उत्पाद-वाला और विनाश-वाला जानना चाहिए ।

यहाँ सब निरवद्य (निर्दोष, निर्बाध, अविरुद्ध) है, क्योंकि द्रव्य और पर्यायों का अभेद (अभिन्नपना) है ॥११॥
जयसेनाचार्य :

अब गाथा पूर्वार्ध द्वारा द्रव्यार्थिक-नय से द्रव्य का लक्षण और उत्तरार्ध द्वारा पर्यायार्थिक-नय से पर्याय का लक्षण प्रतिपादित करते हैं --

[उप्पत्ती य विणासो दव्वस्स य णत्थि] अनादि-निधन द्रव्य के द्रव्यार्थिक-नय से उत्पत्ति या विनाश नहीं है। तो क्या है? [अत्थि सब्भावो] हैं । वह क्या है? सद्भाव, सत्ता, अस्तित्व है । इसप्रकार इसके द्वारा पूर्व गाथा में कहा गया ही स्पष्ट किया गया है तथा क्षणिक एकांत मत का निराकरण किया गया है। [विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया] उसी द्रव्य की उत्पाद-व्यय-ध्रुवता को करती हैं । कर्तारूप वे कौन करती हैं? पर्यायें करती हैं ।

इससे क्या कहा गया है? द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य के ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य नहीं होते हैं; किन्तु पर्यायार्थिक-नय से होते हैं। किस दृष्टांत से यह सिद्ध होता है ? सुवर्ण, गोरस, मृत्तिका, बाल-बृद्ध-कुमारादि परिणत पुरुषों में तीनों भंगरूप से यह स्पष्ट होता है । इसप्रकार इससे पूर्व गाथा में कहे गए नित्य एकान्त मत के निराकरण को ही दृ़ढ किया गया है ।

इस गाथा में शुद्ध द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा नर-नारकादि विभाव परिणामों की उत्पत्ति-विनाश से रहित तथा पर्यायार्थिक-नय की अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न सहज परमानन्द सुख रस के आस्वादमय स्वसंवेदन ज्ञान पर्याय से परिणत, सहित शुद्ध जीवास्तिकाय नामक शुद्ध जीवद्रव्य ही उपादेय है यह सूत्र / गाथा का तात्पर्य है ॥११॥

इसप्रकार द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दो नयों की अपेक्षा (द्रव्य के) लक्षण के व्याख्यान द्वारा गाथा पूर्ण हुई ।