+ गुण-पर्याय -
भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगा ।
सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा ॥16॥
भावा जीवाद्या जीवगुणाश्‍चेतना चोपयोग: ।
सुरनरनारकतिर्यञ्चो जीवस्‍य च पर्याया: बहव: ॥१६॥
जीवादि ये सब भाव हैं जिय चेतना उपयोगमय
देव-नारक-मनुज-तिर्यक् जीव की पर्याय हैं ॥१६॥
अन्वयार्थ : जीवादि भाव हैं। चेतना और उपयोग जीव के गुण हैं तथा देव, मनुष्य, नारकी, तिर्यंच आदि अनेक जीव की पर्यायें हैं।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्र भावगुणपर्याया: प्रज्ञापिता: । भावा हि जीवादय: पट् पदार्था: । तेषां गुणा: पर्यायाश्‍च प्रसिद्धा: । तथापि जीवस्‍य वक्ष्‍यमाणोदाहरणप्रसिद्धयर्थमभिधीयन्‍ते । गुणा हि जीवस्‍य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना, कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना, चैतन्‍यानुविधायिपरिणामलक्षण: सविकल्‍पनिर्विकल्‍परूप: शुद्धाशुद्धतया सकलविकलतां दधानो द्वेधोपयोगश्‍च । पर्यायास्‍त्‍वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्ता: शुद्धा:, सूत्रोपात्तास्‍तु सुरनारकतिर्यङ᳭मनुष्‍यलक्षणा: परद्रव्‍यसंबन्‍धनिर्वृत्तत्‍वादशुद्धाश्‍चेति ॥१६॥


यहाँ भावों, गुणों और पर्यायें बतलाते हैं ।

जीवादि छह पदार्थ वे 'भाव' हैं । उनके गुण और पर्यायें हैं, तथापि आगे (अगली गाथा में) जो उदाहरण देना है उसकी प्रसिद्धि के हेतु जीव के गुणों और पर्यायों का कथन किया जाता है --

जीव के गुणों, ज्ञानानुभूति-स्वरूप शुद्ध-चेतना तथा कार्यानुभूति-स्वरूप और कर्म-फलानुभूति-स्वरूप अशुद्ध-चेतना है और *चैतन्यानुविधायी--परिणाम-स्वरूप, सविकल्प-निर्विकल्प-रूप, शुद्धता-अशुद्धता के कारण सकलता-विकलता को धारण करने वाला, दो प्रकार का उपयोग है (अर्थात् जीव के गुणों शुद्ध-अशुद्ध चेतना तथा दो प्रकार के उपयोग हैं)

जीव की पर्यायें इसप्रकार है -- अगुरुलघु-गुण की हानि-वृद्धि से उत्पन्न पर्यायें शुद्ध पर्यायें हैं और सूत्र में (इस गाथा में) कही हुई, देव-नारक-तिर्यंच-मनुष्य रूप पर्यायें पर-द्रव्य के सम्बन्ध से उत्पन्न होती है, इसलिए अशुद्ध पर्यायें हैं ॥१६॥

*चैतन्य-अनुविधायी परिणाम अर्थात् चैतन्य का अनुसरण करने वाला परिणाम, वह उपयोग है । सविकल्प उपयोग को ज्ञान और निर्विकल्प उपयोग को दर्शन कहा जाता है । ज्ञानोपयोग के भेदों में से मात्र केवलज्ञान ही शुद्ध होने से सकल / अखंड / परिपूर्ण है और अन्य सब अशुद्ध होने से विकल / खंडित / अपूर्ण हैं; दर्शानोपयोग के भेदों में से मात्र केवलदर्शन ही शुद्ध होने से सकल है और अन्य सब अशुद्ध होने से विकल हैं ।
जयसेनाचार्य :

अब पूर्व गाथा में कहे गए गुण-पर्याय भावों का प्रकृष्ट-रूप में ज्ञान कराते हैं--

[भावा जीवादीया] भाव पदार्थ हैं । वे कौन हैं? जीवादि छह द्रव्य; धर्मादि चार द्रव्यों के गुण-पर्यायों को आगे यथा-स्थान विशेष-रूप से कहें । यहाँ तो जीव के गुण कहते हैं । [जीव गुणा चेदणा य उवओगा] जीव के गुण हैं । वे कौन हैं? वे शुद्धाशुद्ध रूप से दो प्रकार की चेतना और ज्ञान दर्शन उपयोग हैं -- इसप्रकार यह संग्रह वाक्य, वार्तिक, समुदाय-कथन, तात्पर्यार्थ-कथन, सपिण्डितार्थ कथन है। (अब इसका विस्तार करते हैं।) वह इसप्रकार --

ज्ञान चेतना शुद्ध चेतना कहलाती है, कर्मचेतना और कर्मफल चेतना अशुद्ध कहलाती है । उस तीन प्रकार की चेतना का आगे चेतनाधिकार में विस्तार से व्याख्यान करते हैं। अब उपयोग को कहते हैं -- सविकल्प ज्ञानोपयोग, निर्विकल्प दर्शनोपयोग है । ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है । मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान - ये पाँच सम्यज्ञान और कुमति, कुश्रुत, विभंगरूप से तीन अज्ञान - इसप्रकार ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है। वहाँ केवलज्ञान निरावरण / आवरणरहित होने से क्षायिक शुद्ध है । मतिज्ञान आदि शेष सात ज्ञान सावरण / आवरण सहित होने से क्षायोपशमिक अशुद्ध हैं । चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल-दर्शन रूप से दर्शनोपयोग चार प्रकार का है । उनमें से केवल-दर्शन निरावरण होने से क्षायिक शुद्ध है। चक्षु आदि तीन दर्शन सावरण होने से क्षायोपशमिक अशुद्ध हैं । अब जीव की पर्यायें कहते हैं - [सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा] जीव की देव, मनुष्य, नारक, तिर्यंच रूप विभाव द्रव्य पर्यायें अनेक हैं । विशेष यह है कि पर्यायें दो प्रकार की हैं - द्रव्य-पर्यायें और गुण-पर्यायें ।

द्रव्यपर्याय का लक्षण कहते हैं - अनेक द्रव्य स्वरूपों में एक यान के समान अनेक द्रव्य स्वरूप की एकता के ज्ञान में निबन्धन / कारणभूत पर्याय द्रव्य-पर्याय है । वह द्रव्य-पर्याय भी दो प्रकार की है समान-जातीय और असमान-जातीय।

समान-जातीय (का स्वरूप) कहते हैं दो तीन या चार इत्यादि परमाणु पुद्गल-द्रव्य मिलकर स्कन्ध होते हैं, इसप्रकार अचेतन में दूसरे अचेतन के साथ सम्बन्ध होने से समान-जातीय कहलाती है ।

असमानजातीय का स्वरूप कहते हैं - दूसरे भव में जाने वाले जीव की शरीर नोकर्म रूप पुद्गल के साथ मनुष्य-देवादि पर्याय में उत्पत्ति, चेतन जीव का अचेतन पुद्गल द्रव्य के साथ सम्बन्ध होने से असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय कहलाती है। अनेक द्रव्य स्वरूपों में एक रूप ये समान-जातीय और असमान-जातीय द्रव्य-पर्यायें जीव-पुद्गल में ही होती हैं तथा अशुद्ध ही हैं । ये अशुद्ध क्यों हैं? अनेक द्रव्यों का परस्पर संश्लेष रूप से संबन्ध होने के कारण ये अशुद्ध हैं । धर्मादि अन्य / शेष द्रव्यों के परस्पर संश्लेष सम्बन्ध से पर्याय नहीं होती है; अत: उनकी परद्रव्य सम्बंध से अशुद्ध पर्याय भी घटित नहीं होती ।

अब गुण-पर्यायें कही जाती हैं। वे भी स्वभाव-विभाव के भेद से दो प्रकार की हैं। गुणों की अपेक्षा अन्वयरूप से एकत्व की प्रतिपत्ति / जानकारी में निबंधन / कारणभूत गुण-पर्यायें हैं। आम्रफल में हरे-पीले आदि रंगों के समान वे एक द्रव्य-गत ही होती हैं। हरे-पीले आदि रंगों रूप गुण-पर्यायें किसकी हैं? मतिज्ञानादि रूप से अन्य ज्ञान रूप परिणमन करने वाली जीव की पर्यायों के समान ये पुद्गल की हैं। इसप्रकार जीव-पुद्गल की विभाव गुण रूप पर्यायें जानना चाहिये। अगुरुलघु गुण की षट्हानि-वृद्धिरूप स्वभाव गुण-पर्यायें सभी द्रव्यों की साधारण / समान हैं। इसप्रकार स्वभाव-विभाव गुण-पर्यायें जानना चाहिए ।

अथवा दूसरे प्रकार द्वारा (दूसरी पद्धति से) अर्थ-व्यंजन पर्याय रूप से पर्यायें दो प्रकार की हैं। वहाँ सूक्ष्म, क्षणक्षयी (प्रति समय नष्ट होने वाली), वचन अगोचर, अविषय (छद्मस्थज्ञान की विषय न बनने वाली) अर्थ पर्यायें हैं । तथा स्थूल (परम्परापेक्षा) चिरकाल-स्थाई (दीर्घकाल पर्यन्त वैसी ही रहने वाली), वचन-गोचर, छद्मस्थ के दृष्टि-गोचर (ज्ञान की विषय बनने वाली) व्यंजन पर्यायें हैं। ये विभावरूप व्यंजन-पर्यायें जीव की नर-नारकादि रूप हैं। जीव की स्वभाव व्यजंन पर्याय सिद्धरूप है । जीव की अशुद्ध अर्थ पर्यायें कषायों की षट्स्थानगत (षट्गुणी) हानि-वृद्धि रूप, विशुद्धि-संक्लेश रूप, शुभाशुभ लेश्या स्थानों के रूप में जानना चाहिये ।

पुद्गल की विभाव अर्थ पर्यायें द्वयणुकादि स्कन्धों में वर्णान्तरादि (एक वर्ण से अन्य वर्ण रूप होना इत्यादि) रूप होती हैं तथा पुद्गल की विभाव व्यंजन पर्यायें द्वयणुकादि स्कन्धों में ही चिरकाल स्थायी रूप में जानना चाहिए ।

शुद्ध अर्थ पर्यायें तो अगुरुलघु गुण की षट् हानि-वृद्धि रूप से पहले ही स्वभाव गुण-पर्यायों के व्याख्यान काल में सभी द्रव्यों की कही गई हैं ।

पहले [जेसिं अत्थि सहाओ] इत्यादि (५वीं) गाथा में जो जीव पुद्गल की स्वभाव-विभाव द्रव्य पर्यायें और स्वभाव-विभाव गुणपर्यायें कही गई हैं; ये अर्थ-व्यजंन पर्यायें उनमें से ही हैं । इस गाथा में जो द्रव्य-पर्यायें और गुण-पर्यायें कहीं हैं वे उस ५वीं गाथा में से ही हैं, तो यहाँ पृथक् से उन्हें किसलिये कहा गया? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर) एक समयवर्ती अर्थ पर्यायें कहलाती हैं और चिरकाल स्थायी व्यंजन पर्यायें कहलाती हैं -- इसप्रकार कालकृत भेद का ज्ञान कराने के लिए यहाँ उन्हें पुन: कहा है। यहाँ सिद्धरूप शुद्ध पर्याय परिणत शुद्ध जीवास्तिकाय नामक शुद्धात्मद्रव्य उपादेय है, -- यह भावार्थ है ॥१६॥