
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित्परायत्तत्वं द्योतितम् । परमाणुप्रचलनायत्त: समय: । नयनपुटघटनायत्तो निमिष: । तत्संख्याविशेषत: काष्ठा कला नाली च । गमनमणिगमनायत्तो दिवारात्र: । तत्संख्याविशेषत: मास:, ऋतु:, अयनं, संवत्सर: इति । एवंविधो हि व्यवहारकाल: केवलकालपर्यायमात्रत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात् परायत्त इत्युपमीयत इति ॥२४॥ यहाँ व्यवहार-काल का कथंचित पराश्रितपना दर्शाया है । परमाणु के गमन के आश्रित समय है; आँख के मिचने से आश्रित निमेष है; उसकी (निमेष की) अमुक संख्या काष्ठा, कला और घडी होती है; सूर्य के गमन के आश्रित अहोरात्र होता है, और उसकी (अहोरात्र की) अमुक संख्या से मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं । ऐसा व्यवहार-काल केवल काल की पर्याय-मात्र-रूप से अवधारणा अशक्य होने से (पर की अपेक्षा बिना -- परमाणु, आँख, सूर्य आदि पर पदार्थों की अपेक्षा बिना -- व्यवहार-काल का माप निश्चित करना अशक्य होने से) उसे 'पराश्रित' ऐसी उपमा दी जाती है ॥२४॥ |
जयसेनाचार्य :
अब निश्चय से परमार्थ-काल की पर्याय होने पर भी समय आदि व्यवहार-काल के, जीव-पुद्गल की नवीन-पुरानी आदि परिणति से व्यक्त होने के कारण, कथंचित् परायत्तता / पराधीनता को प्रकाशित करते हैं--
प्रश्न – जो सूर्य की गति आदि क्रिया-विशेषरूप अन्य द्वारा ज्ञात होता है अथवा जो जातक / उत्पन्न होनेवाले अन्य के ज्ञान का कारण है, वही काल है, इससे भिन्न कोई द्रव्य-काल नहीं है ? उत्तर – ऐसा नहीं है। जो सूर्य की गति आदि द्वारा व्यक्त होता है, वह पूर्वोक्त समय आदि पर्याय रूप व्यवहारकाल है और जो सूर्य के गति आदि परिणमन में सहकारी कारणभूत है, वह द्रव्यरूप निश्चय काल है । प्रश्न – सूर्य के गति आदि परिणमन में धर्मद्रव्य सहकारी कारण है; (तब फिर) काल से क्या प्रयोजन है? उत्तर – ऐसा नहीं है । गतिरूप परिणमन में धर्मद्रव्य भी सहकारी कारण है और कालद्रव्य भी; क्योंकि सहकारी कारण अनेक भी होते हैं । घट की उत्पत्ति में कुम्भकार, चक्र, चीवर आदि के समान; मछलियों को जलादि के समान, मनुष्यों को गाड़ी आदि के समान; विद्याधरों को विद्या, मंत्र, औषधि आदि के समान; देवों को विमान के समान, इत्यादि के समान कालद्रव्य गति में कारण है । यह कहाँ कहा गया है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं '[पोग्गल...] जीव पुद्गल-करण से और स्कन्ध काल-करण से क्रियावान हैं' ऐसा आगे पंचास्तिकाय सं. गाथा ९८, उत्तरार्ध में कहा गया है । प्रश्न – पुद्गल परमाणु जितने काल में एक प्रदेश का अतिक्रमण करता है, उतने प्रमाण का समयरूप से व्याख्यान किया गया; तो क्या उस एक समय में पुद्गल द्वारा चौदह राजू प्रमाण गमन के काल में जितने प्रदेश हैं, उतने समय होते हैं ? उत्तर – ऐसा नहीं है । एक प्रदेश के अतिक्रमण द्वारा जो समय की उत्पत्ति कही गई, वह मंदगति से गमन द्वारा कही है; तथा जो एक समय में चौदह राजू गमन कहा है, वह अक्रम से शीघ्र गति की अपेक्षा कहा गया है, इसप्रकार इसमें दोष नहीं है । यहाँ दृष्टांत कहते हैं -- जैसे कोई देवदत्त सौ दिन में सौ योजन जाता है, वही विद्या के प्रभाव से उतना ही एक दिन में चला जाता है; तो क्या वहाँ सौ दिन हैं? नहीं, एक ही है, उसीप्रकार शीघ्रगति से गमन होने पर चौदह राजू गमन में भी एक समय ही है -- इसप्रकार दोष नहीं है ॥२५॥ |