
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
ज्ञानोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत् । तत्राभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं केवलज्ञानं कुमतिज्ञानं कुश्रुतज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति नामाभिधानम् । आत्मा ह्यनंतसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्धज्ञानसामान्यात्मा । स खल्वनादिज्ञानावरणकर्मावच्छन्नप्रदेश: सत्, यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदाभिनिबोधिकज्ञानम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादनिन्द्रियावलंबाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तत् श्रुतज्ञानम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदवधिज्ञानम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव परमनोगतं मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तन्मन:पर्ययज्ञानम्, यत्सकलावरणात्यंतक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं विशेषेणावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलज्ञानम् । मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम्, मिथ्यादर्शनोदयसहचरितं श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानम्, मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमवधिज्ञानमेव विभंगज्ञानम् इति स्वरूपाभिधानम् । इत्थं मतिज्ञानादिज्ञानोपयोगाष्टकं व्याख्यातम् ॥४०॥ यह, ज्ञानोपयोग के भेदों के नाम और स्वरूप का कथन है । वहां,
(अब उनके स्वरूप का कथन किया जाता है :-) आत्मा वास्तव में अनंत, सर्व आत्म-प्रदेशों में व्यापक, विशुद्ध ज्ञान-सामान्य-स्वरूप है । वह (आत्मा) वास्तव में अनादि ज्ञानावरण-कर्म से आच्छादित प्रदेशवाला वर्तता हुआ,
इस प्रकार मतिज्ञानादि आठ ज्ञानोपयोगों का व्याख्यान किया गया ॥४०॥ |
जयसेनाचार्य :
अब ज्ञानोपयोग के भेदों के नाम प्रतिपादित करते हैं -- आभिनिबोधिक (मति-ज्ञान), श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मन:पर्यय-ज्ञान और केवल-ज्ञान -- ये ज्ञान के पाँच भेद हैं तथा कुमति-ज्ञान, कुश्रुत-ज्ञान, विभंग-ज्ञान -- ये तीन मिथ्याज्ञान हैं । यहाँ यह भावार्थ है जैसे एक ही सूर्य मेघ के आवरणवश अपनी प्रभा की अपेक्षा अनेक प्रकार के भेदों को प्राप्त हो जाता है; उसीप्रकार निश्चय-नय से अखण्ड एक प्रतिभास स्वरूपी आत्मा भी व्यवहार-नय से कर्म समूह से वेष्टित होता हुआ मतिज्ञान आदि भेदों द्वारा अनेक प्रकार के भेदों को प्राप्त हो जाता है ॥४१॥ |