+ पुद्गल उपादानरूप से स्वयं ही कर्मपने रूप परिणमित -
अत्ता कुणदि सहावं तत्थ गया पोग्गला सहावेहिं । (64)
गच्छन्ति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा ॥71॥
आत्मा करोति स्वभावं तत्र गताः पुद्गलाः स्वभावैः ।
गच्छन्ति कर्मभावमन्योन्यावगाहावगाढाः ॥६४॥
आतम करे क्रोधादि तब पुद्गल अणु निजभाव से ।
करमत्व परिणत होय अर अन्योन्य अवगाहन करें ॥६४॥
अन्वयार्थ : आत्मा अपने (मोह-राग-द्वेषादि) भाव को करता है; (तब) अन्योन्य अवगाहरूप से प्रविष्ट वहाँ स्थित पुद्गल, अपने भावों से कर्मभाव को प्राप्त होते हैं।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अन्याकृतकर्मसम्भूतिप्रकारोक्तिरियम् ।
आत्मा हि संसारावस्थायां पारिणामिकचैतन्यस्वभावमपरित्यजन्नेवानादिबन्धन-बद्धत्वादनादिमोहरागद्वेषस्निग्धैरविशुद्धैरेव भावैर्विवर्तते । स खलु यत्र यदा मोहरूपंरागरूपं द्वेषरूपं वा स्वस्य भावमारभते, तत्र तदा तमेव निमित्तीकृत्य जीवप्रदेशेषु परस्परावगाहेनानुप्रविष्टाः स्वभावैरेव पुद्गलाः कर्मभावमापद्यन्त इति ॥६४॥


अन्य द्वारा किये गए बिना कर्म की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, उसका यह कथन है ।

आत्मा वास्तव में संसार-अवस्था में परिणामिक चैतन्य-स्वभाव को छोड़े बिना ही अनादि बंधन द्वारा बद्ध होने से अनादि मोह-राग-द्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे अविशुद्ध भावों-रूप से ही विवर्तन को प्राप्त होता है (परिणमित होता है) । वह (सन्सारस्थ आत्मा) वास्तव में जहां और जब मोह-रूप, राग-रूप या द्वेष-रूप ऐसे अपने भाव को करता है, वहां और उसी समय उसी भाव को निमित्त बनाकर पुद्गल अपने भावों से ही जीव के प्रदेशों में (विशिष्टता-पूर्वक) परस्पर अवगाह-रूप से प्रविष्ट हुए कर्म-भाव को प्राप्त होते हैं ॥६४॥

स्निग्ध = चिकने; चिकनाई-वाले । (मोह-राग-द्वेष कर्म-बन्ध में निमित्त-भूत होने के कारण उन्हें स्निग्धता की उपमा दी जाती है । इसलिए, यहाँ अविशुद्ध भावों को 'मोह-राग-द्वेष द्वारा स्निग्ध' कहा है ।)
जयसेनाचार्य :

[अत्ता] आत्मा, [कुणदि] करता है । क्या करता है ? [सहावं] स्वभाव, राग-द्वेष-मोह सहित परिणाम करता है ।

प्रश्न – राग-द्वेष-मोह रहित और निर्मल चैतन्य-ज्योति सहित वीतराग आनन्द-रूप परिणमन स्वभाव कहलाता है; (आप) रागादि विभाव परिणाम को स्वभाव शब्द से कैसे कहते हैं ? इसका परिहार करते हैं -

उत्तर –
बंध का प्रकरण होने से अशुद्ध निश्चय की अपेक्षा रागादि भाव परिणाम भी स्वभाव कहा जाता है -- इसप्रकार दोष नहीं है ।

[तत्थगया] उस आत्म-शरीर से अवगाहित क्षेत्र में गत, स्थित हैं । वे कौन स्थित हैं ? [पोग्गला] कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गल स्कन्ध स्थित हैं । [गच्छन्ति कम्मभावं] वे कर्मभाव, द्रव्य-कर्म-रूप पर्याय को प्राप्त होते हैं, कर्म-रूप परिणमित होते हैं । करण-भूत किससे परिणमित होते हैं ? [सहावेहिं] निश्चय की अपेक्षा अपने उपादान कारण से उस रूप परिणमित होते हैं । कैसे परिणमित होते हैं ? जैसा अन्योन्य-अवगाह सम्बन्ध है, वैसे ही परिणमित होते हैं । कैसे होते हुए परिणमित होते हैं ? [अवगाढा] क्षीर-नीर न्याय से संश्लिष्ट होते हुए परिणमित होते हैं -- ऐसा अभिप्राय है ॥७१॥