
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
स्कन्धानां पुद्गलव्यवहारसमर्थनमेतत् । स्पर्शरसगन्धवर्णगुणविशेषैः षट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिः पूरणगलनधर्मत्वात् स्कन्धव्यक्त्याविर्भावतिरोभावाभ्यामपि च पूरणगलनोपपत्तेः परमाणवः पुद्गला इति निश्चीयन्ते । स्कन्धास्त्वनेकपुद्गलमयैकपर्यायत्वेन पुद्गलेभ्योऽनन्यत्वात्पुद्गला इति व्यवह्रियन्ते, तथैव चबादरसूक्ष्मत्वपरिणामविकल्पैः षट्प्रकारतामापद्य त्रैलोक्यरूपेण निष्पद्य स्थितवन्त इति । तथाहि - बादरबादराः, बादराः, बादरसूक्ष्माः, सूक्ष्मबादराः, सूक्ष्माः, सूक्ष्मसूक्ष्मा इति । तत्रछिन्नाः स्वयं सन्धानासमर्थाः काष्ठपाषाणादयो बादरबादराः । छिन्नाः स्वयं सन्धानसमर्थाःक्षीरघृततैलतोयरसप्रभृतयो बादराः । स्थूलोपलम्भा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्याःछायातपतमोज्योत्स्नादयो बादरसूक्ष्माः । सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलम्भाः स्पर्शरसगन्धशब्दाःसूक्ष्मबादराः । सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्गणादयः सूक्ष्माः । अत्यन्तसूक्ष्माःकर्मवर्गणाभ्योऽधो द्वयणुकस्कन्धपर्यन्ताः सूक्ष्मसूक्ष्मा इति ॥७५॥ स्कन्धों में 'पुद्गल' ऐसा जो व्यवहार है, उसका यह समर्थन है ।
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जयसेनाचार्य :
[बादर सुहुमगदाणं खंदाणं पोग्गलोत्ति ववहारो] बादर-सूक्ष्म-गत स्कन्धों में 'पुद्गल', ऐसा व्यवहार है । वह इसप्रकार -- जैसे शुद्ध निश्चय से सत्ता, चैतन्य, बोधादि शुद्ध प्राणों द्वारा जो जीते हैं, वे सिद्ध रूप जीव, हैं; तथापि व्यवहार से आयु आदि अशुद्ध प्राणों से जो जीता है, गुणस्थान-मार्गणा-स्थान आदि भेद से भिन्न / पृथक्-पृथक् है, वह भी जीव है । उसी प्रकार - 'स्कन्ध के समान जो वर्ण-गंध-रस-स्पर्श द्वारा पूरण-गलन करते हैं, इस कारण परमाणु पुद्गल हैं' । इस प्रकार श्लोक सें कहे गए लक्षण वाले परमाणु वास्तव में निश्चय से पुद्गल कहलाते हैं, तथा व्यवहार से द्वयणुक आदि अनंत परमाणु पिण्ड-रूप बादर-सूक्ष्म-गत स्कन्ध भी पुद्गल हैं, ऐसा व्यवहार होता है । [ते होंति छप्पयारा] वे छह प्रकार के होते हैं । जिनके द्वारा क्या किया गया है ? [णिप्पन्नंजेहिंतेलोक्कं] जिनके द्वारा तीन-लोक निष्पन्न है । यहाँ तात्पर्य यह है -- 'जीवादि पदार्थ जहाँ देखे जाते हैं, वह लोक है' -- ऐसा वचन होने से पुद्गलादि छह द्रव्यों से निष्पन्न यह लोक किसी अन्य पुरुष-विशेष द्वारा न किया जा रहा है, न नष्ट किया जा रहा है और न धारण किया जा रहा है ॥८२॥ |