
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
पापास्रवभूतभावप्रपञ्चाख्यानमेतत् । तीव्रमोहविपाकप्रभवा आहारभयमैथुनपरिग्रहसञ्ज्ञाः, तीव्रकषायोदयानुरञ्जितयोग-प्रवृत्तिरूपाः कृष्णनीलकापोतलेश्यास्तिस्रः, रागद्वेषोदयप्रकर्षादिन्द्रियाधीनत्वम्, राग-द्वेषोद्रेकात्प्रियसंयोगाप्रियवियोगवेदनामोक्षणनिदानाकाञ्क्षणरूपमार्तम्, कषायक्रूराशयत्वाद्धिंसा-ऽसत्यस्तेयविषयसंरक्षणानन्दरूपं रौद्रम्, नैष्कर्म्यं तु शुभकर्मणश्चान्यत्र दुष्टतया प्रयुक्तं ज्ञानम्, सामान्येन दर्शनचारित्रमोहनीयोदयोपजनिताविवेकरूपो मोहः, — एषः भावपापास्रव-प्रपञ्चोद्रव्यपापास्रवप्रपञ्चप्रदो भवतीति ॥१३८॥ - इति आस्रवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम् । यह, पापास्रव-भूत भावों के विस्तार का कथन है ।
इस प्रकार आस्रव-पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ । अब, संवर-पदार्थ का व्याख्यान है । १अनुरंजित= रंगी हुई। (कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति वह लेश्या है। वहाँ, कृष्णादि तीन लेश्याएँ तीव्र कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप है। ) २प्रकर्ष= उत्कर्ष, उग्रता । ३उद्रेक= बहुलता, अधिकता । ४क्रूर= निर्दय, कठोर, उग्र । |
जयसेनाचार्य :
इसप्रकार द्रव्य-पापास्रव के कारणभूत पूर्व सूत्र में कहे गए भाव-पापास्रव का विस्तार जानना चाहिए, ऐसा अभिप्राय है ॥१४८॥ दूसरी बात यह है कि पुण्य-पाप दोनों का पहले व्याख्यान किया जा चुका है, वह ही पर्याप्त था, पुण्य-पाप आस्रव का व्याख्यान किसलिए किया? ऐसा प्रश्न होने पर परिहार कहते हैं / करते हैं -- जलप्रवेश द्वार से जल आस्रव के समान पुण्य-पाप दोनों आस्रवित होते हैं, आते हैं; इस कारण उन्हें आस्रव कहा । यहाँ आगमन मुख्य है; परन्तु वहाँ तो पुण्य-पाप दोनों के आगमन के बाद स्थिति-अनुभाग बंध रूप से अवस्थान मुख्य है, इतना दोनों में अन्तर है । इसप्रकार नौ पदार्थ-प्रतिपादक द्वितीय महाधिकार में पुण्य-पाप आस्रव के व्याख्यान की मुख्यता वाली छह गाथाओं के समुदाय द्वारा छठवाँ अन्तराधिकार पूर्ण हुआ । अब ख्याति, पूजा, लाभ, दृष्ट, श्रुत, अनुभूत / भोगों की आकांक्षारूप निदान बन्ध आदि समस्त शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प से रहित शुद्धात्म-संवित्ति लक्षण परम उपेक्षा संयम से साध्य संवर के व्याख्यान में [इंदियकसाय] इत्यादि तीन गाथा द्वारा समुदाय-पातनिका है । |