+ राग ही सम्पूर्ण अनर्थ-परम्पराओं का मूल -
धरिदुं जस्स ण सक्को चित्तंभामो बिणा दु अप्पाणं । (166)
रोधो तस्स ण विज्जदि सुहासुहकदस्स कम्मस्स ॥176॥
धर्तुं यस्य न शक्यम् चित्तोद्भ्रामं विना त्वात्मानम् ।
रोधस्तस्य न विद्यते शुभाशुभकृ तस्य क र्मणः ॥१६६॥
चित भ्रम से रहित हो निशंक जो होता नहीं
हो नहीं सकता उसे संवर अशुभ अर शुभ दुःख का ॥१६६॥
अन्वयार्थ : जो चित्त के भ्रमण से रहित आत्मा को धारण करने में / रखने में समर्थ नहीं है, उसके शुभाशुभ कर्मों का निरोध नहीं होता है ।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
रागलवमूलदोषपरम्पराख्यानमेतत् ।
इह खल्वर्हदादिभक्तिरपि न रागानुवृत्तिमन्तरेण भवति । रागाद्यनुवृत्तौ चसत्यां बुद्धिप्रसरमन्तरेणात्मा न तं कथञ्चनापि धारयितुं शक्यते । बुद्धिप्रसरे चसति शुभस्याशुभस्य वा कर्मणो न निरोधोऽस्ति । ततो रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसन्तानइति ॥१६६॥


यह, रागलव-मूलक दोष-परम्परा का निरूपण है (अर्थात् अल्प राग जिसका मूल है ऐसी दोषों की संतति का यही कथन है)

यहाँ (इस लोक में) वास्तव में अर्हंतादि के ओर की भक्ति भी राग-परिणति के बिना नहीं होती । रागादि परिणति होने पर, आत्मा बुद्धिप्रसार रहित (चित्त के भ्रमण से रहित) अपने को किसी प्रकार नहीं रख सकता; और बुद्धिप्रसार होने पर (चित्त का भ्रमण होने पर), शुभ तथा अशुभ कर्म का निरोध नहीं होता । इसलिए, इस अनर्थ-संतति का मूल राग-रूप क्लेश का विलास ही है ॥१६६॥

बुद्धिप्रसार = विकल्पों का विस्तार; चित का भ्रमण; मन का भटकना; मन की चंचलता ।

जयसेनाचार्य :

[धरिदुं जस्स ण सक्को] कर्मता को प्राप्त जो धरने के लिए / निकालने के लिए समर्थ नहीं है । [चित्तंभामो] चित्तभ्रम अथवा विचित्र-भ्रम, आत्मा की भ्रांति उसे कैसे निकालने में समर्थ नहीं है ? [विणा दु अप्पाणं] आत्मा के बिना, निज शुद्धात्मा की भावना के बिना उसे निकालने में समर्थ नहीं है; [रोधो तस्स ण विज्जदि] उसके रोध, संवर नहीं है । उसके किसका संवर नहीं है ? [सुहासुहकदस्स कम्मस्स] उसके शुभाशुभ-कृत कर्म का संवर नहीं है ।

वह इसप्रकार -- जो वह नित्यानन्द एक स्वभावी निजात्मा की भावना नहीं करता है, उसे माया-मिथ्या-निदान, तीन शल्य-प्रभृति समस्त विभाव-रूप बुद्धि का प्रसार / विस्तार / फैलाव धरना / रोकना नहीं आता है; और उसके निरोध का अभाव होने पर (उनके नहीं रुक पाने के कारण) शुभाशुभ कर्मों का संवर नहीं होता है ।

इससे यह निश्चित हुआ कि रागादि विकल्प ही समस्त अनर्थ-परम्पराओं के मूल हैं॥१७५॥