
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अर्हदादिभक्तिमात्ररागजनितसाक्षान्मोक्षस्यान्तरायद्योतनमेतत् । यः खल्वर्हदादिभक्तिविधेयबुद्धिः सन् परमसंयमप्रधानमतितीव्रं तपस्तप्यते, सतावन्मात्ररागकलिकलङ्कितस्वान्तः साक्षान्मोक्षस्यान्तरायीभूतं विषयविषद्रुमामोदमोहितान्तरङ्गं स्वर्गलोकं समासाद्य, सुचिरं रागाङ्गारैः पच्यमानोऽन्तस्ताम्यतीति ॥१६९॥ यह, मात्र अर्हंतादि की भक्ति जितने राग से उत्पन्न होनेवाला जो साक्षात् मोक्ष का अंतराय, उसका प्रकाशन है । जो (जीव) वास्तव में अर्हंतादि की भक्ति के आधीन बुद्धिवाला वर्तता हुआ १परमसंयमप्रधान अतितीव्र तप तपता है, वह (जीव), मात्र उतने राग-रूप क्लेश से जिसका निज अंतःकरण कलंकित (मलिन) है ऐसा वर्तता हुआ, विषय-विष-वृक्ष के २आमोद से जहाँ अन्तरंग (अंतःकरण) मोहित होता है ऐसे स्वर्गलोक को -- जो कि साक्षात् मोक्ष को अन्तराय-भूत है उसे सम्प्राप्त करके, सुचिरकाल- पर्यंत (बहुत लम्बे काल तक) राग-रूपी अंगारों से दह्यमान हुआ अन्तर में संतप्त (दुःखी, व्यथित) होता है ॥१६९॥ १परमसंयमप्रधान = उत्कृष्ट संयम जिसमें मुख्य हो ऐसा । २आमोद = (१) सुगंध; (२) मौज । |
जयसेनाचार्य :
जो कोई पर से, उत्कृष्ट-रूप से अरहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन का भक्त होता हुआ करता है । ऐसा जो क्या करता है ? ऐसा जो तप:कर्म करता है, वह नियम से सुरलोक को प्राप्त करता है, ऐसा अर्थ है । इस सूत्र में जो कोई भी शुद्धात्मा को उपादेयकर अथवा आगम भाषा की अपेक्षा मोक्ष को उपादेयकर निदान रहित परिणाम से व्रत, तपश्चरण आदि करता है, वह सम्यग्दृष्टि है; परंतु उसके संहनन आदि शक्ति का अभाव होने से शुद्धात्म-स्वरूप में स्थिर रहने के लिए असमर्थ होने के कारण वर्तमान भव में पुण्यबंध ही है; तथापि भवान्तर में परमात्म-भावना में स्थिरता होने पर नियम से मोक्ष होता है । उससे विपरीत के भवान्तर में भी मोक्ष नहीं है, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥१७९॥ इसप्रकार अचरम-देहधारी पुरुष के व्याख्यान की मुख्यता से दशवें स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुईं । |