अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
कर्तुः प्रतिज्ञानिर्व्यूढिसूचिका समापनेयम् । मार्गो हि परमवैराग्यकरणप्रवणा पारमेश्वरी परमाज्ञा; तस्याः प्रभावनं प्रख्यापनद्वारेण प्रकृष्टपरिणतिद्वारेण वा समुद्योतनम्; तदर्थमेव परमागमानुराग-वेगप्रचलितमनसा संक्षेपतः समस्तवस्तुतत्त्वसूचकत्वादतिविस्तृतस्यापि प्रवचनस्य सारभूतं पञ्चास्तिकायसंग्रहाभिधानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति । अथैवं शास्त्रकारःप्रारब्धस्यान्तमुपगम्यात्यन्तं कृतकृत्यो भूत्वा परमनैष्कर्म्यरूपे शुद्धस्वरूपे विश्रान्त इति श्रद्धीयते ॥१७१॥ इति समयव्याख्यायां नवपदार्थपुरस्सरमोक्षमार्गप्रपञ्चवर्णनो द्वितीयः श्रुतस्कन्धःसमाप्तः ॥ यह, कर्ता की प्रतिज्ञा की पूर्णता सूचितवाली समाप्ति है (अर्थात् यहाँ शास्त्र कर्ता श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य-देव अपनी प्रतिज्ञा की पूर्णता सूचित करते हुए शास्त्र समाप्ति करते हैं) । मार्ग अर्थात् परम वैराग्य की ओर ढलती हुई पारमेश्वरी परम आज्ञा (अर्थात् परम वैराग्य करने की परमेश्वर की परम आज्ञा); उसकी प्रभावना अर्थात् प्रख्यापन द्वारा अथवा प्रकृष्ट परिणति द्वारा उसका समुद्योत करना; (परम वैराग्य करने की जिन-भगवान की परम आज्ञा की प्रभावना अर्थात् १. उसकी प्रख्याति-विज्ञापन-करने द्वारा अथवा २. परम-वैराग्यमय प्रकृष्ट परिणमन द्वारा, उसका सम्यक् प्रकार से उद्योत करना) उसके हेतु ही (मार्ग की प्रभावना के लिये ही), परमागम की ओर के अनुराग के वेग से जिसका मन अति चलित होता था ऐसे मैंने यह 'पंचास्तिकाय-संग्रह' नाम का सूत्र कहा -- जो कि भगवान सर्वज्ञ द्वारा उपज्ञ होने से (वीतराग सर्वज्ञ जिन-भगवान ने स्वयं जानकर प्रणीत किया होने से) 'सूत्र' है, और जो संक्षेप से समस्त वस्तु-तत्त्व का (सर्व वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप का) प्रतिपादन करता होने से, अति विस्तृत ऐसे भी प्रवचन के सार-भूत हैं (द्वादशांग-रूप से विस्तीर्ण ऐसे भी जिन-प्रवचन के सार-भूत हैं ) । इस प्रकार शास्त्र-कार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य-देव) प्रारम्भ किये हुए कार्य के अन्त को पाकर, अत्यन्त कृत-कृत्य होकर, परम-नैष्कर्म्य-रूप शुद्ध-स्वरूप में विश्रांत हुए (परम निष्कर्मपनेरूप शुद्ध-स्वरूप में स्थिर हुए) ऐसे श्रद्धे जाते हैं (अर्थात् ऐसी हम श्रद्धा करते हैं) ॥१७१॥ परिणाम जीव मुत्तं सपदेसं एय खेत किरिया च
णिच्चं कारण कत्ता सव्वगदिदरं हि यप्पवेसो ॥चूलिका॥ परिणाम जीव प्रदेश कर्ता नित्य सक्रिय सर्वगत
अपनी शक्ति से जिन्होंने वस्तु का तत्त्व (यथार्थ स्वरूप) भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दों ने यह समय की व्याख्या (अर्थसमय का व्याख्यान अथवा पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्र की टीका) की है; स्वरूपगुप्त (अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूप में गुप्त) अमृतचंद्रसूरि का (उसमें) किंचित् भी कर्तव्य नहीं हैं ॥८॥प्रविष्ट कारण क्षेत्र रूपी एक ये विपरीत युत ॥चूलिका॥ इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य-देव प्रणीत श्री पंचास्तिकाय-संग्रह शास्त्र की श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य-देव विरचित) समय-व्याख्या नाम की टीका में नवपदार्थ पूर्वक मोक्ष-मार्ग-प्रपंच वर्णन नामका द्वितीय श्रुतस्कंध समाप्त हुआ । |
जयसेनाचार्य :
[पंचत्थियसंगहं सुत्तं] पंचास्तिकाय-संग्रह सूत्र को कहा है । वह किस विशेषता वाला है ? प्रवचन का सारभूत है । उसे किसलिए कहा है ? उसे मार्ग-प्रभावना के लिए कहा है । वह इसप्रकार -- संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य लक्षणमय निर्मल अनुभूति वास्तव में मोक्षमार्ग है, उसकी प्रभावना अर्थात् स्वयं उसका अनुभव करना अथवा दूसरों को प्रकाशित करना; उसके लिए ही परमागम की भक्ति से प्रेरित कर्ताभूत मेरे द्वारा इस पंचास्तिकाय शास्त्र का व्याख्यान किया गया है । वह किस लक्षणवाला है ? पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य आदि का संक्षेप में व्याख्यान करने के कारण समस्त वस्तुओं का प्रकाशक होने से द्वादशांग-रूप प्रवचन का भी सारभूत है, ऐसा भावार्थ है ॥१८१॥ इसप्रकार ग्रंथ-समाप्ति रूप से बारहवें स्थल में गाथा पूर्ण हुई । इस प्रकार तृतीय महाधिकार समाप्त हुआ । अब, क्योंकि पहले संक्षेप रुचिवाले शिष्य को संबोधित करने के लिए पंचास्तिकाय प्राभृत कहा गया है, इसलिए जिस समय शिक्षा ग्रहण करता है तब शिष्य कहलाता है । इस हेतु से शिष्य का लक्षण कहने के लिए परमात्मा के आराधक पुरुषों के दीक्षा-शिक्षा-व्यवस्था-भेद प्रतिपादित करते हैं । दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्म-संस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ के भेद से काल छह होते हैं । वे इसप्रकार --
अथवा 'ध्याता, ध्यान, फल, ध्येय, जहाँ, जिसके, जब और जैसे ये आठ अंग योग के साधन होते हैं।' इसका संक्षेप में व्याख्यान-'गुप्तेन्द्रियमन / इन्द्रिय और मन को संयमित रखनेवाला ध्याता है, वास्तविक स्वरूपमय वस्तु ध्येय है, एकाग्रचिंतन ध्यान है तथा संवर और निर्जरा फल हैं ।' इत्यादि तत्त्वानुशासन नामक ध्यान ग्रंथ के प्रारंभ में कहे गए मार्गानुसार [जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट] के भेद से, ध्याता और ध्यान तीन प्रकार के होते हैं। वे तीन प्रकार के कैसे हैं? इसके लिए वहाँ ही कहा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप ध्यान सामग्री जघन्य आदि तीन प्रकार की है, ऐसा वचन होने से वे तीनप्रकार के हैं । अथवा अति संक्षेप में ध्याता दो प्रकार के होते हैं -- शुद्धात्मभावना को प्रारंभ करनेवाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्प अवस्था में [प्रारब्ध-योगी] कहलाते हैं तथा निर्विकल्प शुद्धात्म-अवस्था में [निष्पन्न-योगी] । इसप्रकार संक्षेप से अध्यात्मभाषा की अपेक्षा ध्याता, ध्यान, ध्येय और संवर-निर्जरा के साधक रागादि विकल्प रहित परमानन्द एक लक्षण सुख में वृद्धि, निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान में वृद्धि बुद्धि आदि सात ऋद्धि रूप ध्यान फल के भेद जानना चाहिए । विशेष यह है कि शिक्षक, प्रारम्भक, कृताभ्यास और निष्पन्न रूप से ध्याता पुरुष का लक्षण अन्यत्र भी जो किन्हीं ने कहा है, उसका यथासंभव यहाँ ही अन्तर्भाव देख लेना चाहिए । अब यहाँ आगम भाषा से षट्काल कहते हैं --
इत्यादि रूप में आगम के सार से अभेद-रत्नत्रय के प्रतिपादक अर्थ-पदों के अनुकूल जहाँ व्याख्यान किया जाता है, वह [अध्यात्म-शास्त्र] कहलाता है; उसके आश्रित छह-काल पहले संक्षेप से कहे गए हैं । वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत छह द्रव्य आदि के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, व्रत आदि के अनुष्ठान-रूप भेद-रत्नत्रय का स्वरूप जहाँ प्रतिपादित होता है, वह [आगम-शास्त्र] है; और वह अभेद-रत्नत्रयात्मक अध्यात्म-अनुष्ठान का बहिरंग साधन होता है; उसके आश्रित भी छह काल संक्षेप से कहे हैं । विशेष-रूप से तो दोनों ही छह-कालों का व्याख्यान पूर्वाचार्यों द्वारा कथित क्रम से अन्य ग्रन्थों में जानना चाहिए ।
विक्रम सम्वत्- १३६९ वर्ष में आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के भौम / मंगलवार दिन में यह पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति पूर्ण हुई ॥ |