अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिराने वाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।
(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करने वाला यह शास्त्र द्रव्यसंग्रह नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथने वाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीनेमिचंद्रदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )
॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥ (देव वंदना) सुध्यान में लवलीन हो जब, घातिया चारों हने । सर्वज्ञ बोध विरागता को, पा लिया तब आपने ॥ उपदेश दे हितकर अनेकों, भव्य निज सम कर लिये । रविज्ञान किरण प्रकाश डालो, वीर! मेरे भी हिये ॥ (शास्त्र वंदना) स्याद्वाद, नय, षट् द्रव्य, गुण, पर्याय और प्रमाण का । जड़कर्म चेतन बंध का, अरु कर्म के अवसान का ॥ कहकर स्वरूप यथार्थ जग का, जो किया उपकार है । उसके लिये जिनवाणी माँ को, वंदना शत बार है ॥ (गुरु वंदना) नि:संग हैं जो वायुसम, निर्लेप हैं आकाश से । निज आत्म में ही विहरते, जीवन न पर की आस से ॥ जिनके निकट सिंहादि पशु भी, भूल जाते क्रूरता । उन दिव्य गुरुओं की अहो! कैसी अलौकिक शूरता ॥