ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं] वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए शुद्ध जीव आदि तत्त्वों में, चल-मलिन-अगाढ़ रहित श्रद्धान, रुचि, निश्चय अथवा 'जो जिनेन्द्र ने कहा वही है, जिस प्रकार से जिनेन्द्र ने कहा है उसी प्रकार है' ऐसी निश्चय रूप बुद्धि सम्यग्दर्शन है; [रूवमप्पणो तं तु] वह सम्यग्दर्शन अभेद नय से स्वरूप है; किसका स्वरूप है? आत्मा का, आत्मा का परिणाम है । उस सम्यग्दर्शन के सामर्थ्य अथवा माहात्म्य को दिखाते हैं - [दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्म खु होदि सदि जम्हि] जिस सम्यक्त्व के होने पर ज्ञान सम्यक् हो जाता है । सम्यक् किस प्रकार होता है? [दुरभिणिवेसविमुक्कं] (यह पुरुष है या काठ का ठूठ है, ऐसे दो कोटि रूप) चलायमान संशयज्ञान, गमन करते हुए तृण आदिक के स्पर्श होने पर, यह निश्चय न होना कि किसका स्पर्श हुआ है, ऐसा विभ्रम (अनध्यवसाय) ज्ञान तथा सीप के टुकड़े में चाँदी का ज्ञान, ऐसा विमोह (विपर्यय) ज्ञान, इन तीनों दोषों से (दूषित ज्ञानों से) रहित हो जाने से वह ज्ञान सम्यक् हो जाता है । विस्तार से वर्णन - सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, यह जो कहा गया है, उसका विवरण कहते हैं -- पाँच सौ-पाँच सौ ब्राह्मणों को पढ़ाने वाले गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन ब्राह्मण विद्वान् चारों वेद-ज्योतिष्क, व्याकरण आदि छहों अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृति ग्रन्थ, महाभारत आदि अठारह पुराण तथा मीमांसा न्यायविस्तर आदि समस्त लौकिक शास्त्रों के ज्ञाता थे तो भी उनका ज्ञान, सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञान ही था, परन्तु जब वे प्रसिद्ध कथा के अनुसार श्री महावीर स्वामी तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में मानस्तम्भ के देखने मात्र से ही आगमभाषा में दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के उपशम और क्षय से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्धआत्मा के सम्मुख परिणाम तथा काल आदि लब्धियों के विशेष से उनका मिथ्यात्व नष्ट हो गया, तब उनका वही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो गया । सम्यग्ज्ञान होते ही 'जयति भगवान्' इत्यादि रूप से भगवान् को नमस्कार करके, श्री जिनदीक्षा धारण करके केशलोंच के अनन्तर ही मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार ज्ञान तथा सात ऋद्धि के धारक होकर तीनों ही गणधर हो गये । गौतमस्वामी ने भव्यजीवों के उपकार के लिए द्वादशांगश्रुत की रचना की, फिर वे तीनों ही निश्चयरत्नत्रय की भावना के बल से मोक्ष को प्राप्त हुए । वे पन्द्रह सौ ब्राह्मण शिष्य मुनि-दीक्षा लेकर यथासम्भव स्वर्ग या मोक्ष में गये । ग्यारह अंगों का पाठी होकर भी अभव्यसेन मुनि सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञानी ही रहा । इस प्रकार सम्यक्त्व के माहात्म्य से मिथ्याज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम (समता, कषायों की मन्दता) ध्यान आदि वे सब सम्यक् हो जाते हैं । विष मिले हुए दुग्ध के समान सम्यक्त्व के बिना ज्ञान, तपश्चरणादि सब वृथा हैं, ऐसा जानना चाहिए । वह सम्यक्त्व पच्चीस दोषों से रहित होता है । उन पच्चीस दोषों में देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता तथा समयमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं । क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोष रहित, अनन्तज्ञान आदि अनन्तगुण सहित वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूप को न जानता हुआ जो व्यक्ति ख्याति-पूजा-लाभ रूप-लावण्य-सौभाग्य-पुत्र-स्त्री-राज्य आदि सम्पदा की प्राप्ति के लिए, रागद्वेष युक्त तथा आर्तरौद्र ध्यानरूप परिणामों वाले क्षेत्रपाल, चण्डिका आदि मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना करता है; उस आराधना को देवमूढ़ता कहते हैं । वे देव कुछ भी फल नहीं देते । प्रश्न - फल कैसे नहीं देते? उत्तर - रामचन्द्र और लक्ष्मण के विनाश के लिए रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की; कौरवों ने पाण्डवों का सत्तानाश करने के लिए कात्यायनी विद्या सिद्ध की तथा कंस ने कृष्ण नारायण के नाश के लिए बहुत सी विद्याओं की आराधना की; परन्तु उन विद्याओं द्वारा रामचन्द्र, पाण्डव और कृष्ण नारायण का कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ । रामचन्द्र आदि ने मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना नहीं की, तो भी निर्मल सम्यग्दर्शन से उपार्जित पूर्व भव के पुण्य द्वारा उनके सब विघ्न दूर हो गये । अब लोक-मूढ़ता कहते हैं - "गंगा आदि नदीरूप तीर्थों में स्नान, समुद्र में स्नान, प्रातःकाल में स्नान, जल में प्रवेश करके मरना, अग्नि में जलकर मरना, गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथ्वी, अग्नि और बड़ वृक्ष आदि की पूजा करना, ये सब पुण्य के कारण हैं ।" इस प्रकार जो कहते हैं उसको लोकमूढ़ता जानना चाहिए । लौकिक-पारमार्थिक, हेय-उपादेय व स्व-पर ज्ञानरहित अज्ञानी जनों की कुल परिपाटी से आया हुआ और अन्य भी जो धर्म आचरण है उसको भी लोकमूढ़ता जानना चाहिए । अब समयमूढ़ता (शास्त्रमूढ़ता या धर्ममूढ़ता) कहते हैं - अज्ञानी लोगों को चित्तचमत्कार (आश्चर्य) उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदि को देखकर, वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए धर्म को छोड़कर, मिथ्यादेवों को, मिथ्याआगम को और खोटा तप करने वाले कुलिंगियों को भयवांछा-स्नेह और लोभ से धर्म के लिए प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदि करना, सो समयमूढ़ता है । इन उक्त तीन मूढ़ताओं को सरागसम्यग्दृष्टि अवस्था में त्यागना चाहिए । मन-वचन-काय-गुप्ति रूप अवस्था वाले वीतराग सम्यक्त्व के प्रकरण में अपना निरंजन तथा निर्दोष परमात्मा ही देव है ऐसी निश्चय बुद्धि ही देवमूढ़ता का अभाव जानना चाहिए तथा मिथ्यात्व राग आदि रूप मूढभावों का त्याग करने से जो निज शुद्ध-आत्मा में स्थिति है, वही लोकमूढ़ता से रहितता है । इसी प्रकार सम्पूर्ण शुभअशुभ संकल्प-विकल्प रूप परभावों के त्याग से तथा निर्विकार-वास्तविक-परमानन्दमय परमसमता-भाव से निज शुद्ध-आत्मा में ही जो सम्यक् प्रकार से अयन, गमन अथवा परिणमन है, उसको समयमूढ़ता का त्याग समझना चाहिए । इस प्रकार तीन मूढ़ता का व्याख्यान हुआ । अब आठ मदों का स्वरूप कहते हैं- १. विज्ञान (कला), २. ऐश्वर्य (धन सम्पत्ति), ३. ज्ञान, ४. तप, ५. कुल, ६. बल, ७. जाति और ८. रूप, इन आठों सम्बन्धी मदों का त्याग सरागसम्यग्दृष्टियों को करना चाहिए । मान कषाय से उत्पन्न होने वाले मद मात्सर्य (ईर्ष्या) आदि समस्त विकल्प-समूह, उनके त्याग द्वारा, ममकार-अहंकार से रहित निज शुद्ध-आत्मा में भावना ही वीतराग सम्यग्दृष्टियों के आठ मदों का त्याग है । ममकार तथा अहंकार का लक्षण कहते हैं- कर्मजनित देह, पुत्र-स्त्री आदि में "यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुत्र है" इस प्रकार की जो बुद्धि है वह ममकार है और उन शरीर आदि में अपनी आत्मा से भेद न मानकर जो "मैं गोरा हूँ, मोटा हूँ, राजा हूँ" इस प्रकार मानना सो अहंकार का लक्षण है । अब छह अनायतनों का कथन करते हैं- १. मिथ्यादेव, २. मिथ्यादेवों के सेवक, ३. मिथ्यातप, ४. मिथ्यातपस्वी, ५. मिथ्याशास्त्र और ६. मिथ्याशास्त्रों के धारक इस प्रकार के छह अनायतन सरागसम्यग्दृष्टियों को त्याग करने चाहिए । वीतराग सम्यग्दृष्टि जीवों के तो सम्पूर्ण दोषों के स्थानभूत मिथ्यात्व-विषय-कषायरूप आयतनों के त्यागपूर्वक, केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के स्थानभूत निज शुद्ध-आत्मा में निवास ही, अनायतनों की सेवा का त्याग है । अनायतन शब्द के अर्थ को कहते हैं- सम्यक्त्व आदि गुणों का आयतन घर-आवास-आश्रय (आधार) करने का निमित्त, उसको 'आयतन' कहते हैं और उससे विपरीत 'अनायतन' है । अब इसके अनन्तर शंका आदि आठ दोषों के त्याग का कथन करते हैं - निःशंक आदि आठ गुणों का जो पालन करना है, वही शंकादि आठ दोषों का त्याग कहलाता है । वह इस प्रकार है- राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनों असत्य बोलने में कारण हैं और ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव में नहीं हैं; इस कारण श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा निरूपित हेयोपादेयतत्त्व में (यह त्याज्य है, यह ग्राह्य है), मोक्ष में और मोक्षमार्ग में भव्यजीवों को शंका, संशय या सन्देह नहीं करना चाहिए । यहाँ शंका दोष के त्याग के विषय में अंजनचोर की कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है, विभीषण की कथा भी इस प्रकरण में प्रसिद्ध है तथा-सीता हरण के प्रसंग में जब रावण का राम-लक्ष्मण के साथ युद्ध करने का अवसर आया, तब विभीषण ने विचार किया कि रामचन्द्र तो आठवें बलदेव हैं और लक्ष्मण आठवें नारायण हैं तथा रावण आठवाँ प्रतिनारायण है । प्रतिनारायण का मरण नारायण के हाथ से होता है, ऐसा जैन शास्त्रों में कहा गया है, वह मिथ्या नहीं हो सकता, इस प्रकार निःशंक होकर अपने बड़े भाई तीन लोक के कण्टक 'रावण' को छोड़कर, अपनी तीस अक्षौहिणी चतुरंग (हाथी, घोड़ा, रथ, पयादे) सेना सहित रामचन्द्र के समीप चला गया । इसी प्रकार देवकी तथा वसुदेव भी निःशंक जानने चाहिए । जब कंस ने देवकी के बालक को मारने के लिए प्रार्थना की, तब देवकी और वसुदेव ने विचार किया कि हमारा पुत्र नवमा नारायण होगा और उसके हाथ से जरासिन्धु नामक नवमें प्रतिनारायण का और कंस का भी मरण होगा; यह जैनागम में कहा है और श्री भट्टारक अतिमुक्त स्वामी ने भी ऐसा ही कहा है, इस प्रकार निश्चय करके कंस को अपना बालक देना स्वीकार किया । इसी प्रकार अन्य भव्य जीवों को भी जैनआगम में शंका नहीं करनी चाहिए । यह व्यवहारनय से निःशंकित अंग का व्याख्यान किया । निश्चयनय से उस व्यवहार निःशंक गुण की सहायता से, १. इहलोक का भय, २. परलोक का भय, ३. अरक्षा का भय, ४. अगुप्ति (रक्षा स्थान के अभाव का) भय, ५. मरण भय, ६. व्याधि-वेदना भय, ७. आकस्मिक भय । इन सात भयों को छोड़कर घोर उपसर्ग तथा परीषहों के आ जाने पर भी, शुद्ध उपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना को ही निःशंकित गुण जानना चाहिए ॥१॥ अब निष्कांक्षित गुण का कथन करते हैं- इहलोक तथा परलोक सम्बन्धी आशारूप भोगाकांक्षानिदान के त्याग द्वारा केवलज्ञान आदि अनन्तगुणों की प्रकटतारूप मोक्ष के लिए दानपूजा-तपश्चरण आदि करना, निष्कांक्षित गुण कहलाता है । इस गुण में अनन्तमती की कथा प्रसिद्ध है । दूसरी सीता देवी की कथा है । उसे कहते हैं- लोक की निन्दा को दूर करने के लिए सीता अग्निकुण्ड में प्रवेश होकर जब निर्दोष सिद्ध हुई, तब श्री रामचन्द्र द्वारा दिये गए पट्ट महारानी पद को छोड़कर, केवलज्ञानी श्री सकलभूषण मुनि के पादमूल में, कृतान्तवक्र आदि राजाओं तथा बहुत सी रानियों के साथ, जिनदीक्षा ग्रहण करके शशिप्रभा आदि आर्यिकाओं के समूह सहित ग्राम, पुर, खेटक आदि में विहार द्वारा भेदाभेदरूप रत्नत्रय की भावना से बासठ वर्ष तक जिनमत की प्रभावना करके, अन्त समय में तीस दिन तक निर्विकार परमात्मा के ध्यानपूर्वक समाधि-मरण करके अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुई । वहाँ निर्मल सम्यग्दर्शन के फल को देखकर धर्म के अनुराग से नरक में जाकर सीता ने रावण और लक्ष्मण को सम्बोधा । सीता अब स्वर्ग में है । आगे सीता का जीव स्वर्ग से आकर सकल चक्रवर्ती होगा और वे दोनों रावण तथा लक्ष्मण के जीव उसके पुत्र होंगे । पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में अपने पूर्वभवों को देखकर, परिवार सहित दोनों पुत्र तथा सीता के जीव जिनदीक्षा ग्रहण करके, भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से, वे तीनों पंच-अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र होंगे । वहाँ से आकर रावण तीर्थंकर होगा और सीता का जीव गणधर होगा । लक्ष्मण धातकीखण्डद्वीप में तीर्थंकर होंगे । इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षितगुण का स्वरूप जानना चाहिए । उसी व्यवहार निष्कांक्षा गुण की सहायता से देखे-सुने-अनुभव किये हुए पाँचों इन्द्रिय-सम्बन्धी भोगों के त्याग से तथा निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न हुए पारमार्थिक व निज-आत्मिक सुखरूपी अमृत रस में चित्त का संतोष होना, वही निश्चय से निष्कांक्षागुण है ॥२॥ अब निर्विचिकित्सा गुण कहते हैं । भेद-अभेदरूप त्नत्रय के आराधक भव्य जीवों की दुर्गन्ध तथा बुरी आकृति आदि देखकर धर्मबुद्धि से अथवा करुणाभाव से यथायोग्य विचिकित्सा (ग्लानि) को दूर करना द्रव्य निर्विचिकित्सा गुण है । जैन मत में सब अच्छी-अच्छी बातें हैं, परन्तु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदि का न करना यही दूषण है, इत्यादि बुरे भावों को विशेष ज्ञान के बल से दूर करना वह भाव-निर्विचिकित्सा कहलाती है । इस व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण को पालने के विषय में उद्दायन राजा तथा रुक्मिणी [कृष्ण की पटरानी] की कथा शास्त्र में प्रसिद्ध जाननी चाहिए । इसी व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण के बल से समस्त राग-द्वेष आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके, निर्मल आत्मानुभव रूप निजशुद्ध-आत्मा में जो स्थिति है वही निश्चय निर्विचिकित्सा गुण है ॥३॥ अब अमूढदृष्टि गुण कहते हैं । वीतराग सर्वज्ञदेव-कथित शास्त्र से बहिर्भूत कुदृष्टियों के द्वारा बनाये हुए तथा अज्ञानियों के चित्त में विस्मय उत्पन्न करने वाले रसायनशास्त्र, खन्यवाद (खानिविद्या), हरमेखल, क्षुद्रविद्या, व्यन्तर विकुर्वणादि शास्त्रों को देखकर तथा सुनकर, जो कोई मूढभाव द्वारा धर्म-बुद्धि से उनमें प्रतीति तथा भक्ति नहीं करता, उसी को व्यवहार से 'अमूढदृष्टि' कहते हैं । इस विषय में, उत्तर मथुरा में उदुरुलि भट्टारक तथा रेवती श्राविका और चन्द्रप्रभ नामक विद्याधर ब्रह्मचारी सम्बन्धी कथायें शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं । इसी व्यवहार अमूढदृष्टि गुण के प्रसाद से आत्म-तत्त्व और शरीरादिक बहिर्तत्त्व का निश्चय हो जाने पर सम्पूर्ण मिथ्यात्व-राग आदि तथा शुभ अशुभ संकल्प-विकल्पों से इष्टबुद्धि-आत्मबुद्धि-उपादेयबुद्धि-हितबुद्धि और ममत्वभाव को छोड़कर, मन-वचन-काय गुप्ति के द्वारा विशुद्धज्ञान-दर्शन स्वभावमयी निज आत्मा में निश्चल ठहरना, निश्चय अमूढदृष्टि गुण है । संकल्प-विकल्प के लक्षण कहते हैं- पुत्र, स्त्री आदि बाह्य पदार्थों में ये मेरे हैं ऐसी कल्पना, संकल्प है । अंतरंग में "मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ" इस प्रकार हर्ष-विषाद करना, विकल्प है । अथवा संकल्प का वास्तव में क्या अर्थ है? वह विकल्प ही है अर्थात् संकल्प, विकल्प की ही पर्याय है ॥४॥ अब उपगूहन गुण का कथन करते हैं । भेद-अभेद रत्नत्रय की भावनारूप मोक्षमार्ग स्वभाव से ही शुद्ध है तथापि उसमें जब कभी अज्ञानी मनुष्य के निमित्त से अथवा धर्म-पालन में असमर्थ पुरुषों के निमित्त से जो धर्म की चुगली, निन्दा, दूषण तथा अप्रभावना हो तब शास्त्र के अनुकूल, शक्ति के अनुसार, धन से अथवा धर्मोपदेश से, धर्म के लिए जो उसके दोषों का ढकना तथा दूर करना है, उसको व्यवहारनय से उपगूहन गुण कहते हैं । इस विषय में कथा है- एक कपटी ब्रह्मचारी ने पार्श्वनाथस्वामी की प्रतिमा में लगे हुए रत्न को चुराया । तब जिनदत्त सेठ ने जो उपगूहन किया, वह कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है । अथवा रुद्र की ज्येष्ठा नामक माता की लोकनिन्दा होने पर, उसके दोष ढकने में चेलिनी महारानी की कथा शास्त्रप्रसिद्ध है । इस प्रकार व्यवहार उपगूहन गुण की सहायता से अपने निरंजन निर्दोष परमात्मा को आच्छादन करने वाले मिथ्यात्व-राग आदि दोषों को, उसी परमात्मा में सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप ध्यान के द्वारा ढकना, नाश करना, छिपाना तथा झम्पना वही निश्चय से उपगूहन है ॥५॥ अब स्थितिकरण गुण कहते हैं । भेद-अभेद रत्नत्रय के धारक (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) चार प्रकार के संघ में से यदि कोई दर्शनमोहनीय के उदय से दर्शन-ज्ञान को या चारित्रमोहनीय के उदय से चारित्र को छोड़ने की इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेश से, धन से या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपाय से उसको धर्म में स्थिर कर देना, वह व्यवहार से स्थितिकरण है । पुष्पडाल मुनि को धर्म में स्थिर करने के प्रसंग में वारिषेण की कथा आगम-प्रसिद्ध है । उसी व्यवहार स्थितिकरण गुण से धर्म में दृढ़ता होने पर दर्शन-चारित्रमोहनीय के उदय से उत्पन्न समस्त मिथ्यात्व-राग आदि विकल्पों के त्याग द्वारा निज-परमात्म-स्वभाव भाव की भावना से उत्पन्न परम-आनन्द सुखामृत के आस्वादरूप परमात्मा में लीन अथवा परमात्मस्वरूप में समरसी भाव से चित्त का स्थिर करना, निश्चय से स्थितिकरण है ॥६॥ अब वात्सल्य नामक सप्तम अंग का प्रतिपादन करते हैं । गाय-बछड़े की प्रीति के सदृश अथवा पाँचों इन्द्रियों के विषयों के निमित्तभूत पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदि में स्नेह की भाँति, बाह्य-आभ्यन्तर रत्नत्रय के धारक चारों प्रकार के संघ में स्वाभाविक स्नेह करना, वह व्यवहारनय से वात्सल्य कहा जाता है । हस्तिनागपुर के राजा पद्मराज के बलि नामक दुष्ट मन्त्री ने जब निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय के आराधक श्री अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर उपसर्ग किया तब निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग के आराधक विष्णुकुमार महामुनीश्वर ने विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से वामन रूप को धारण करके बलि नामक दुष्ट मन्त्री के पास से तीन पग प्रमाण पृथ्वी की याचना की और जब बलि ने देना स्वीकार किया, तब एक पग तो मेरु के शिखर पर दिया, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर दिया और तीसरे पाद को रखने के लिए स्थान नहीं रहा तब वचनछल से मुनियों के वात्सल्य निमित्त बलि मन्त्री को बाँध लिया । इस विषय में यह एक आगम-प्रसिद्ध कथा है । दशपुर नगर के वज्रकर्ण नामक राजा की दूसरी कथा इस प्रकार है-उज्जयिनी के राजा सिंहोदर ने "वज्रकर्ण जैन है और मुझको नमस्कार नहीं करता है", ऐसा विचार करके, वज्रकर्ण से नमस्कार कराने के लिए दशपुर नगर को घेर कर घोर उपसर्ग किया । तब भेदाभेद रत्नत्रय भावना के प्रेमी श्री रामचन्द्र ने वज्रकर्ण से वात्सल्य के लिए सिंहोदर को बाँध लिया । यह वात्सल्य सम्बन्धी कथा रामायण (पद्मपुराण) में प्रसिद्ध है । इसी व्यवहार-वात्सल्य गुण के सहकारीपने से धर्म में दृढ़ता हो जाने पर मिथ्यात्व, राग आदि समस्त शुभ-अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीति छोड़कर रागादि विकल्पों की उपाधि रहित परम स्वास्थ्य के अनुभव से उत्पन्न सदा आनन्दरूप सुखमय-अमृत के आस्वाद के प्रति प्रीति का करना ही निश्चय वात्सल्य है । इस प्रकार सप्तम वात्सल्य अंग का व्याख्यान हुआ ॥७॥ अब अष्टम प्रभावनागुण कहते हैं । श्रावक को तो दान पूजा आदि द्वारा और मुनि को तप, श्रुत आदि से जैनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए । यह व्यवहार से प्रभावना गुण जानना चाहिए । इस गुण के पालने में, उत्तर मथुरा में जिनमत की प्रभावना करने की अनुरागिणी उर्विला महादेवी को प्रभावना सम्बन्धी उपसर्ग होने पर, वज्रकुमार नामक विद्याधर श्रमण ने आकाश में जैन रथ को फिराकर प्रभावना की, यह एक आगम प्रसिद्ध कथा है । दूसरी कथा यह है- उसी भव से मोक्ष जाने वाले हरिषेण नामक दसवें चक्रवर्ती ने जिनमत को प्रभावनाशील अपनी माता वप्रा महादेवी के निमित्त और अपने धर्मानुराग से जिनमत की प्रभावना के लिए ऊँचे तोरण वाले जिनमन्दिरों से समस्त पृथ्वीतल को भूषित कर दिया । यह कथा रामायण (पद्मपुराण) में प्रसिद्ध है । इसी व्यवहार प्रभावनागुण के बल से मिथ्यात्व-विषय-कषाय आदि सम्पूर्ण विभाव परिणामरूप पर समय के प्रभाव को नष्ट करके शुद्धोपयोग लक्षण वाले स्वसंवेदन ज्ञान से, निर्मल ज्ञानदर्शनरूप स्वभाव-वाली निज शुद्ध-आत्मा का जो प्रकाशन अथवा अनुभवन, वह निश्चय प्रभावना है ॥८॥ इस प्रकार तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंका आदि रूप आठ दोषों से रहित तथा शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थों के श्रद्धानरूप सराग-सम्यक्त्व नामक व्यवहार-सम्यक् जानना चाहिए । इसी प्रकार उसी व्यवहार-सम्यक्त्व द्वारा परम्परा से साधने योग्य, शुद्ध-उपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न परम आह्लाद रूप सुखामृत रस का आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय हैं, ऐसी रुचिरूप तथा वीतराग चारित्र का अविनाभावी वीतराग-सम्यक्त्व नामक निश्चय-सम्यक्त्व जानना चाहिए । प्रश्न - यहाँ इस व्यवहारसम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चयसम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया गया? उत्तर - व्यवहारसम्यक्त्व से निश्चयसम्यक्त्व साधा [सिद्ध किया] जाता है, (व्यवहारसम्यक्त्व साधक और निश्चयसम्यक्त्व साध्य) इस साध्यसाधक भाव को बतलाने के लिए किया गया है । अब जिन जीवों के सम्यग्दर्शन ग्रहण होने से पहले आयु का बन्ध नहीं हुआ है, व्रत के अभाव में भी निन्दनीय नर नारक आदि खोटे स्थानों में उनका जन्म नहीं होता, ऐसा कथन करते हैं । जिनके शुद्ध सम्यग्दर्शन है किन्तु अव्रती हैं वे भी नरकगति, तिर्यंचगति, नपुंसक, स्त्री, नीचकुल, अंगहीन-शरीर, अल्प-आयु और दरिद्रीपने को प्राप्त नहीं होते । इसके आगे मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों का वर्णन करते हैं जो दर्शन से पवित्र हैं वे उत्साह, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और विभव से सहित उत्तम कुल वाले, विपुल धनशाली तथा मनुष्य शिरोमणि होते हैं । प्रकीर्णकदेव, वाहनदेव, किल्विषदेव तथा व्यन्तरभवनवासी-ज्योतिषी तीन नीच देवों के अतिरिक्त महाऋद्धि धारक देवों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं । जिन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण से पूर्व देव आयु को छोड़कर अन्य आयु बाँध ली है, अब उनके प्रति सम्यक्त्व का माहात्म्य कहते हैं- नीचे के ६ नरकों में ज्योतिषी-व्यन्तर-भवनवासी देवों में, सब स्त्रियों में और लब्ध्यपर्याप्तकों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता । नरक अपर्याप्तकों में सासादन सम्यग्दृष्टि नहीं होते । इसी आशय को अन्य प्रकार से कहते हैं -- ज्योतिषी, भवनवासी और व्यन्तर देवों में, नीचे की ६ नरक-पृथिवियों में, तिर्यञ्चों (कर्मभूमि तिर्यञ्च, भोगभूमि तिर्यञ्चनियों में), मनुष्यनियों में तथा देवांगनाओं में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते ॥१॥ औपशमिक, वेदक और क्षायिक नामक तीन सम्यक्त्वों में से किस गति में कौन-सा सम्यक्त्व हो सकता है, सो कहते हैं -- सौधर्म आदि स्वर्गों में, असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्चों में एवं मनुष्यों में और रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में (उपशम, वेदक, क्षायिक) तीनों सम्यक्त्व होते हैं ॥२॥ जिसने आयु बाँध ली है या नहीं बाँधी ऐसे कर्मभूमि-मनुष्यों के तीनों सम्यक्त्व होते हैं । परन्तु अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व महर्द्धिक देवों में ही होता है । शेष देवों व तिर्यञ्चों में और नीचे की छह नरकभूमियों में पर्याप्त जीवों के वेदक और उपशम ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं ॥३॥ इस प्रकार निश्चय-व्यवहार रूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग अवयवी का प्रथम अवयवभूत सम्यग्दर्शन का व्याख्यान करने वाली गाथा समाप्त हुई ॥४१॥ अब रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग के द्वितीय अवयव रूप सम्यग्ज्ञान के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं -- [जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं] वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए शुद्ध जीव आदि तत्त्वों में, चल-मलिन-अगाढ़ रहित श्रद्धान, रुचि, निश्चय अथवा 'जो जिनेन्द्र ने कहा वही है, जिस प्रकार से जिनेन्द्र ने कहा है उसी प्रकार है' ऐसी निश्चय रूप बुद्धि सम्यग्दर्शन है; [रूवमप्पणो तं तु] वह सम्यग्दर्शन अभेद नय से स्वरूप है; किसका स्वरूप है? आत्मा का, आत्मा का परिणाम है । उस सम्यग्दर्शन के सामर्थ्य अथवा माहात्म्य को दिखाते हैं - [दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्म खु होदि सदि जम्हि] जिस सम्यक्त्व के होने पर ज्ञान सम्यक् हो जाता है । सम्यक् किस प्रकार होता है? [दुरभिणिवेसविमुक्कं] (यह पुरुष है या काठ का ठूठ है, ऐसे दो कोटि रूप) चलायमान संशयज्ञान, गमन करते हुए तृण आदिक के स्पर्श होने पर, यह निश्चय न होना कि किसका स्पर्श हुआ है, ऐसा विभ्रम (अनध्यवसाय) ज्ञान तथा सीप के टुकड़े में चाँदी का ज्ञान, ऐसा विमोह (विपर्यय) ज्ञान, इन तीनों दोषों से (दूषित ज्ञानों से) रहित हो जाने से वह ज्ञान सम्यक् हो जाता है । विस्तार से वर्णन - सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, यह जो कहा गया है, उसका विवरण कहते हैं -- पाँच सौ-पाँच सौ ब्राह्मणों को पढ़ाने वाले गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन ब्राह्मण विद्वान् चारों वेद-ज्योतिष्क, व्याकरण आदि छहों अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृति ग्रन्थ, महाभारत आदि अठारह पुराण तथा मीमांसा न्यायविस्तर आदि समस्त लौकिक शास्त्रों के ज्ञाता थे तो भी उनका ज्ञान, सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञान ही था, परन्तु जब वे प्रसिद्ध कथा के अनुसार श्री महावीर स्वामी तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में मानस्तम्भ के देखने मात्र से ही आगमभाषा में दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के उपशम और क्षय से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्धआत्मा के सम्मुख परिणाम तथा काल आदि लब्धियों के विशेष से उनका मिथ्यात्व नष्ट हो गया, तब उनका वही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो गया । सम्यग्ज्ञान होते ही 'जयति भगवान्' इत्यादि रूप से भगवान् को नमस्कार करके, श्री जिनदीक्षा धारण करके केशलोंच के अनन्तर ही मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार ज्ञान तथा सात ऋद्धि के धारक होकर तीनों ही गणधर हो गये । गौतमस्वामी ने भव्यजीवों के उपकार के लिए द्वादशांगश्रुत की रचना की, फिर वे तीनों ही निश्चयरत्नत्रय की भावना के बल से मोक्ष को प्राप्त हुए । वे पन्द्रह सौ ब्राह्मण शिष्य मुनि-दीक्षा लेकर यथासम्भव स्वर्ग या मोक्ष में गये । ग्यारह अंगों का पाठी होकर भी अभव्यसेन मुनि सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञानी ही रहा । इस प्रकार सम्यक्त्व के माहात्म्य से मिथ्याज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम (समता, कषायों की मन्दता) ध्यान आदि वे सब सम्यक् हो जाते हैं । विष मिले हुए दुग्ध के समान सम्यक्त्व के बिना ज्ञान, तपश्चरणादि सब वृथा हैं, ऐसा जानना चाहिए । वह सम्यक्त्व पच्चीस दोषों से रहित होता है । उन पच्चीस दोषों में देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता तथा समयमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं । क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोष रहित, अनन्तज्ञान आदि अनन्तगुण सहित वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूप को न जानता हुआ जो व्यक्ति ख्याति-पूजा-लाभ रूप-लावण्य-सौभाग्य-पुत्र-स्त्री-राज्य आदि सम्पदा की प्राप्ति के लिए, रागद्वेष युक्त तथा आर्तरौद्र ध्यानरूप परिणामों वाले क्षेत्रपाल, चण्डिका आदि मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना करता है; उस आराधना को देवमूढ़ता कहते हैं । वे देव कुछ भी फल नहीं देते । प्रश्न – फल कैसे नहीं देते? उत्तर – रामचन्द्र और लक्ष्मण के विनाश के लिए रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की; कौरवों ने पाण्डवों का सत्तानाश करने के लिए कात्यायनी विद्या सिद्ध की तथा कंस ने कृष्ण नारायण के नाश के लिए बहुत सी विद्याओं की आराधना की; परन्तु उन विद्याओं द्वारा रामचन्द्र, पाण्डव और कृष्ण नारायण का कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ । रामचन्द्र आदि ने मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना नहीं की, तो भी निर्मल सम्यग्दर्शन से उपार्जित पूर्व भव के पुण्य द्वारा उनके सब विघ्न दूर हो गये । अब लोक-मूढ़ता कहते हैं - "गंगा आदि नदीरूप तीर्थों में स्नान, समुद्र में स्नान, प्रातःकाल में स्नान, जल में प्रवेश करके मरना, अग्नि में जलकर मरना, गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथ्वी, अग्नि और बड़ वृक्ष आदि की पूजा करना, ये सब पुण्य के कारण हैं ।" इस प्रकार जो कहते हैं उसको लोकमूढ़ता जानना चाहिए । लौकिक-पारमार्थिक, हेय-उपादेय व स्व-पर ज्ञानरहित अज्ञानी जनों की कुल परिपाटी से आया हुआ और अन्य भी जो धर्म आचरण है उसको भी लोकमूढ़ता जानना चाहिए । अब समयमूढ़ता (शास्त्रमूढ़ता या धर्ममूढ़ता) कहते हैं - अज्ञानी लोगों को चित्तचमत्कार (आश्चर्य) उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदि को देखकर, वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए धर्म को छोड़कर, मिथ्यादेवों को, मिथ्याआगम को और खोटा तप करने वाले कुलिंगियों को भयवांछा-स्नेह और लोभ से धर्म के लिए प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदि करना, सो समयमूढ़ता है । इन उक्त तीन मूढ़ताओं को सरागसम्यग्दृष्टि अवस्था में त्यागना चाहिए । मन-वचन-काय-गुप्ति रूप अवस्था वाले वीतराग सम्यक्त्व के प्रकरण में अपना निरंजन तथा निर्दोष परमात्मा ही देव है ऐसी निश्चय बुद्धि ही देवमूढ़ता का अभाव जानना चाहिए तथा मिथ्यात्व राग आदि रूप मूढभावों का त्याग करने से जो निज शुद्ध-आत्मा में स्थिति है, वही लोकमूढ़ता से रहितता है । इसी प्रकार सम्पूर्ण शुभअशुभ संकल्प-विकल्प रूप परभावों के त्याग से तथा निर्विकार-वास्तविक-परमानन्दमय परमसमता-भाव से निज शुद्ध-आत्मा में ही जो सम्यक् प्रकार से अयन, गमन अथवा परिणमन है, उसको समयमूढ़ता का त्याग समझना चाहिए । इस प्रकार तीन मूढ़ता का व्याख्यान हुआ । अब आठ मदों का स्वरूप कहते हैं- १. विज्ञान (कला), २. ऐश्वर्य (धन सम्पत्ति), ३. ज्ञान, ४. तप, ५. कुल, ६. बल, ७. जाति और ८. रूप, इन आठों सम्बन्धी मदों का त्याग सरागसम्यग्दृष्टियों को करना चाहिए । मान कषाय से उत्पन्न होने वाले मद मात्सर्य (ईर्ष्या) आदि समस्त विकल्प-समूह, उनके त्याग द्वारा, ममकार-अहंकार से रहित निज शुद्ध-आत्मा में भावना ही वीतराग सम्यग्दृष्टियों के आठ मदों का त्याग है । ममकार तथा अहंकार का लक्षण कहते हैं- कर्मजनित देह, पुत्र-स्त्री आदि में "यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुत्र है" इस प्रकार की जो बुद्धि है वह ममकार है और उन शरीर आदि में अपनी आत्मा से भेद न मानकर जो "मैं गोरा हूँ, मोटा हूँ, राजा हूँ" इस प्रकार मानना सो अहंकार का लक्षण है । अब छह अनायतनों का कथन करते हैं- १. मिथ्यादेव, २. मिथ्यादेवों के सेवक, ३. मिथ्यातप, ४. मिथ्यातपस्वी, ५. मिथ्याशास्त्र और ६. मिथ्याशास्त्रों के धारक इस प्रकार के छह अनायतन सरागसम्यग्दृष्टियों को त्याग करने चाहिए । वीतराग सम्यग्दृष्टि जीवों के तो सम्पूर्ण दोषों के स्थानभूत मिथ्यात्व-विषय-कषायरूप आयतनों के त्यागपूर्वक, केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के स्थानभूत निज शुद्ध-आत्मा में निवास ही, अनायतनों की सेवा का त्याग है । अनायतन शब्द के अर्थ को कहते हैं- सम्यक्त्व आदि गुणों का आयतन घर-आवास-आश्रय (आधार) करने का निमित्त, उसको 'आयतन' कहते हैं और उससे विपरीत 'अनायतन' है । अब इसके अनन्तर शंका आदि आठ दोषों के त्याग का कथन करते हैं - निःशंक आदि आठ गुणों का जो पालन करना है, वही शंकादि आठ दोषों का त्याग कहलाता है । वह इस प्रकार है- राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनों असत्य बोलने में कारण हैं और ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव में नहीं हैं; इस कारण श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा निरूपित हेयोपादेयतत्त्व में (यह त्याज्य है, यह ग्राह्य है), मोक्ष में और मोक्षमार्ग में भव्यजीवों को शंका, संशय या सन्देह नहीं करना चाहिए । यहाँ शंका दोष के त्याग के विषय में अंजनचोर की कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है, विभीषण की कथा भी इस प्रकरण में प्रसिद्ध है तथा-सीता हरण के प्रसंग में जब रावण का राम-लक्ष्मण के साथ युद्ध करने का अवसर आया, तब विभीषण ने विचार किया कि रामचन्द्र तो आठवें बलदेव हैं और लक्ष्मण आठवें नारायण हैं तथा रावण आठवाँ प्रतिनारायण है । प्रतिनारायण का मरण नारायण के हाथ से होता है, ऐसा जैन शास्त्रों में कहा गया है, वह मिथ्या नहीं हो सकता, इस प्रकार निःशंक होकर अपने बड़े भाई तीन लोक के कण्टक 'रावण' को छोड़कर, अपनी तीस अक्षौहिणी चतुरंग (हाथी, घोड़ा, रथ, पयादे) सेना सहित रामचन्द्र के समीप चला गया । इसी प्रकार देवकी तथा वसुदेव भी निःशंक जानने चाहिए । जब कंस ने देवकी के बालक को मारने के लिए प्रार्थना की, तब देवकी और वसुदेव ने विचार किया कि हमारा पुत्र नवमा नारायण होगा और उसके हाथ से जरासिन्धु नामक नवमें प्रतिनारायण का और कंस का भी मरण होगा; यह जैनागम में कहा है और श्री भट्टारक अतिमुक्त स्वामी ने भी ऐसा ही कहा है, इस प्रकार निश्चय करके कंस को अपना बालक देना स्वीकार किया । इसी प्रकार अन्य भव्य जीवों को भी जैनआगम में शंका नहीं करनी चाहिए । यह व्यवहारनय से निःशंकित अंग का व्याख्यान किया । निश्चयनय से उस व्यवहार निःशंक गुण की सहायता से, १. इहलोक का भय, २. परलोक का भय, ३. अरक्षा का भय, ४. अगुप्ति (रक्षा स्थान के अभाव का) भय, ५. मरण भय, ६. व्याधि-वेदना भय, ७. आकस्मिक भय । इन सात भयों को छोड़कर घोर उपसर्ग तथा परीषहों के आ जाने पर भी, शुद्ध उपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना को ही निःशंकित गुण जानना चाहिए ॥१॥ अब निष्कांक्षित गुण का कथन करते हैं- इहलोक तथा परलोक सम्बन्धी आशारूप भोगाकांक्षानिदान के त्याग द्वारा केवलज्ञान आदि अनन्तगुणों की प्रकटतारूप मोक्ष के लिए दानपूजा-तपश्चरण आदि करना, निष्कांक्षित गुण कहलाता है । इस गुण में अनन्तमती की कथा प्रसिद्ध है । दूसरी सीता देवी की कथा है । उसे कहते हैं- लोक की निन्दा को दूर करने के लिए सीता अग्निकुण्ड में प्रवेश होकर जब निर्दोष सिद्ध हुई, तब श्री रामचन्द्र द्वारा दिये गए पट्ट महारानी पद को छोड़कर, केवलज्ञानी श्री सकलभूषण मुनि के पादमूल में, कृतान्तवक्र आदि राजाओं तथा बहुत सी रानियों के साथ, जिनदीक्षा ग्रहण करके शशिप्रभा आदि आर्यिकाओं के समूह सहित ग्राम, पुर, खेटक आदि में विहार द्वारा भेदाभेदरूप रत्नत्रय की भावना से बासठ वर्ष तक जिनमत की प्रभावना करके, अन्त समय में तैंतीस दिन तक निर्विकार परमात्मा के ध्यानपूर्वक समाधि-मरण करके अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुई । वहाँ निर्मल सम्यग्दर्शन के फल को देखकर धर्म के अनुराग से नरक में जाकर सीता ने रावण और लक्ष्मण को सम्बोधा । सीता अब स्वर्ग में है । आगे सीता का जीव स्वर्ग से आकर सकल चक्रवर्ती होगा और वे दोनों रावण तथा लक्ष्मण के जीव उसके पुत्र होंगे । पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में अपने पूर्वभवों को देखकर, परिवार सहित दोनों पुत्र तथा सीता के जीव जिनदीक्षा ग्रहण करके, भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से, वे तीनों पंच-अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र होंगे । वहाँ से आकर रावण तीर्थंकर होगा और सीता का जीव गणधर होगा । लक्ष्मण धातकीखण्डद्वीप में तीर्थंकर होंगे । इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षितगुण का स्वरूप जानना चाहिए । उसी व्यवहार निष्कांक्षा गुण की सहायता से देखे-सुने-अनुभव किये हुए पाँचों इन्द्रिय-सम्बन्धी भोगों के त्याग से तथा निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न हुए पारमार्थिक व निज-आत्मिक सुखरूपी अमृत रस में चित्त का संतोष होना, वही निश्चय से निष्कांक्षागुण है ॥२॥ अब निर्विचिकित्सा गुण कहते हैं । भेद-अभेदरूप रत्नत्रय के आराधक भव्य जीवों की दुर्गन्ध तथा बुरी आकृति आदि देखकर धर्मबुद्धि से अथवा करुणाभाव से यथायोग्य विचिकित्सा (ग्लानि) को दूर करना द्रव्य निर्विचिकित्सा गुण है । जैन मत में सब अच्छी-अच्छी बातें हैं, परन्तु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदि का न करना यही दूषण है, इत्यादि बुरे भावों को विशेष ज्ञान के बल से दूर करना वह भाव-निर्विचिकित्सा कहलाती है । इस व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण को पालने के विषय में उद्दायन राजा तथा रुक्मिणी [कृष्ण की पटरानी] की कथा शास्त्र में प्रसिद्ध जाननी चाहिए । इसी व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण के बल से समस्त राग-द्वेष आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके, निर्मल आत्मानुभव रूप निजशुद्ध-आत्मा में जो स्थिति है वही निश्चय निर्विचिकित्सा गुण है ॥३॥ अब अमूढदृष्टि गुण कहते हैं । वीतराग सर्वज्ञदेव-कथित शास्त्र से बहिर्भूत कुदृष्टियों के द्वारा बनाये हुए तथा अज्ञानियों के चित्त में विस्मय उत्पन्न करने वाले रसायनशास्त्र, खन्यवाद (खानिविद्या), हरमेखल, क्षुद्रविद्या, व्यन्तर विकुर्वणादि शास्त्रों को देखकर तथा सुनकर, जो कोई मूढभाव द्वारा धर्म-बुद्धि से उनमें प्रतीति तथा भक्ति नहीं करता, उसी को व्यवहार से 'अमूढदृष्टि' कहते हैं । इस विषय में, उत्तर मथुरा में उदुरुलि भट्टारक तथा रेवती श्राविका और चन्द्रप्रभ नामक विद्याधर ब्रह्मचारी सम्बन्धी कथायें शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं । इसी व्यवहार अमूढदृष्टि गुण के प्रसाद से आत्म-तत्त्व और शरीरादिक बहिर्तत्त्व का निश्चय हो जाने पर सम्पूर्ण मिथ्यात्व-राग आदि तथा शुभ अशुभ संकल्प-विकल्पों से इष्टबुद्धि-आत्मबुद्धि-उपादेयबुद्धि-हितबुद्धि और ममत्वभाव को छोड़कर, मन-वचन-काय गुप्ति के द्वारा विशुद्धज्ञान-दर्शन स्वभावमयी निज आत्मा में निश्चल ठहरना, निश्चय अमूढदृष्टि गुण है । संकल्प-विकल्प के लक्षण कहते हैं- पुत्र, स्त्री आदि बाह्य पदार्थों में ये मेरे हैं ऐसी कल्पना, संकल्प है । अंतरंग में "मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ" इस प्रकार हर्ष-विषाद करना, विकल्प है । अथवा संकल्प का वास्तव में क्या अर्थ है? वह विकल्प ही है अर्थात् संकल्प, विकल्प की ही पर्याय है ॥४॥ अब उपगूहन गुण का कथन करते हैं । भेद-अभेद रत्नत्रय की भावनारूप मोक्षमार्ग स्वभाव से ही शुद्ध है तथापि उसमें जब कभी अज्ञानी मनुष्य के निमित्त से अथवा धर्म-पालन में असमर्थ पुरुषों के निमित्त से जो धर्म की चुगली, निन्दा, दूषण तथा अप्रभावना हो तब शास्त्र के अनुकूल, शक्ति के अनुसार, धन से अथवा धर्मोपदेश से, धर्म के लिए जो उसके दोषों का ढकना तथा दूर करना है, उसको व्यवहारनय से उपगूहन गुण कहते हैं । इस विषय में कथा है- एक कपटी ब्रह्मचारी ने पार्श्वनाथस्वामी की प्रतिमा में लगे हुए रत्न को चुराया । तब जिनदत्त सेठ ने जो उपगूहन किया, वह कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है । अथवा रुद्र की ज्येष्ठा नामक माता की लोकनिन्दा होने पर, उसके दोष ढकने में चेलिनी महारानी की कथा शास्त्रप्रसिद्ध है । इस प्रकार व्यवहार उपगूहन गुण की सहायता से अपने निरंजन निर्दोष परमात्मा को आच्छादन करने वाले मिथ्यात्व-राग आदि दोषों को, उसी परमात्मा में सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप ध्यान के द्वारा ढकना, नाश करना, छिपाना तथा झम्पना वही निश्चय से उपगूहन है ॥५॥ अब स्थितिकरण गुण कहते हैं । भेद-अभेद रत्नत्रय के धारक (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) चार प्रकार के संघ में से यदि कोई दर्शनमोहनीय के उदय से दर्शन-ज्ञान को या चारित्रमोहनीय के उदय से चारित्र को छोड़ने की इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेश से, धन से या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपाय से उसको धर्म में स्थिर कर देना, वह व्यवहार से स्थितिकरण है । पुष्पडाल मुनि को धर्म में स्थिर करने के प्रसंग में वारिषेण की कथा आगम-प्रसिद्ध है । उसी व्यवहार स्थितिकरण गुण से धर्म में दृढ़ता होने पर दर्शन-चारित्रमोहनीय के उदय से उत्पन्न समस्त मिथ्यात्व-राग आदि विकल्पों के त्याग द्वारा निज-परमात्म-स्वभाव भाव की भावना से उत्पन्न परम-आनन्द सुखामृत के आस्वादरूप परमात्मा में लीन अथवा परमात्मस्वरूप में समरसी भाव से चित्त का स्थिर करना, निश्चय से स्थितिकरण है ॥६॥ अब वात्सल्य नामक सप्तम अंग का प्रतिपादन करते हैं । गाय-बछड़े की प्रीति के सदृश अथवा पाँचों इन्द्रियों के विषयों के निमित्तभूत पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदि में स्नेह की भाँति, बाह्य-आभ्यन्तर रत्नत्रय के धारक चारों प्रकार के संघ में स्वाभाविक स्नेह करना, वह व्यवहारनय से वात्सल्य कहा जाता है । हस्तिनागपुर के राजा पद्मराज के बलि नामक दुष्ट मन्त्री ने जब निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय के आराधक श्री अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर उपसर्ग किया तब निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग के आराधक विष्णुकुमार महामुनीश्वर ने विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से वामन रूप को धारण करके बलि नामक दुष्ट मन्त्री के पास से तीन पग प्रमाण पृथ्वी की याचना की और जब बलि ने देना स्वीकार किया, तब एक पग तो मेरु के शिखर पर दिया, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर दिया और तीसरे पाद को रखने के लिए स्थान नहीं रहा तब वचनछल से मुनियों के वात्सल्य निमित्त बलि मन्त्री को बाँध लिया । इस विषय में यह एक आगम-प्रसिद्ध कथा है । दशपुर नगर के वज्रकर्ण नामक राजा की दूसरी कथा इस प्रकार है-उज्जयिनी के राजा सिंहोदर ने "वज्रकर्ण जैन है और मुझको नमस्कार नहीं करता है", ऐसा विचार करके, वज्रकर्ण से नमस्कार कराने के लिए दशपुर नगर को घेर कर घोर उपसर्ग किया । तब भेदाभेद रत्नत्रय भावना के प्रेमी श्री रामचन्द्र ने वज्रकर्ण से वात्सल्य के लिए सिंहोदर को बाँध लिया । यह वात्सल्य सम्बन्धी कथा रामायण (पद्मपुराण) में प्रसिद्ध है । इसी व्यवहार-वात्सल्य गुण के सहकारीपने से धर्म में दृढ़ता हो जाने पर मिथ्यात्व, राग आदि समस्त शुभ-अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीति छोड़कर रागादि विकल्पों की उपाधि रहित परम स्वास्थ्य के अनुभव से उत्पन्न सदा आनन्दरूप सुखमय-अमृत के आस्वाद के प्रति प्रीति का करना ही निश्चय वात्सल्य है । इस प्रकार सप्तम वात्सल्य अंग का व्याख्यान हुआ ॥७॥ अब अष्टम प्रभावनागुण कहते हैं । श्रावक को तो दान पूजा आदि द्वारा और मुनि को तप, श्रुत आदि से जैनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए । यह व्यवहार से प्रभावना गुण जानना चाहिए । इस गुण के पालने में, उत्तर मथुरा में जिनमत की प्रभावना करने की अनुरागिणी उर्विला महादेवी को प्रभावना सम्बन्धी उपसर्ग होने पर, वज्रकुमार नामक विद्याधर श्रमण ने आकाश में जैन रथ को फिराकर प्रभावना की, यह एक आगम प्रसिद्ध कथा है । दूसरी कथा यह है- उसी भव से मोक्ष जाने वाले हरिषेण नामक दसवें चक्रवर्ती ने जिनमत को प्रभावनाशील अपनी माता वप्रा महादेवी के निमित्त और अपने धर्मानुराग से जिनमत की प्रभावना के लिए ऊँचे तोरण वाले जिनमन्दिरों से समस्त पृथ्वीतल को भूषित कर दिया । यह कथा रामायण (पद्मपुराण) में प्रसिद्ध है । इसी व्यवहार प्रभावनागुण के बल से मिथ्यात्व-विषय-कषाय आदि सम्पूर्ण विभाव परिणामरूप पर समय के प्रभाव को नष्ट करके शुद्धोपयोग लक्षण वाले स्वसंवेदन ज्ञान से, निर्मल ज्ञानदर्शनरूप स्वभाव-वाली निज शुद्ध-आत्मा का जो प्रकाशन अथवा अनुभवन, वह निश्चय प्रभावना है ॥८॥ इस प्रकार तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंका आदि रूप आठ दोषों से रहित तथा शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थों के श्रद्धानरूप सराग-सम्यक्त्व नामक व्यवहार-सम्यक् जानना चाहिए । इसी प्रकार उसी व्यवहार-सम्यक्त्व द्वारा परम्परा से साधने योग्य, शुद्ध-उपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न परम आह्लाद रूप सुखामृत रस का आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय हैं, ऐसी रुचिरूप तथा वीतराग चारित्र का अविनाभावी वीतराग-सम्यक्त्व नामक निश्चय-सम्यक्त्व जानना चाहिए । प्रश्न – यहाँ इस व्यवहारसम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चयसम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया गया? उत्तर – व्यवहारसम्यक्त्व से निश्चयसम्यक्त्व साधा [सिद्ध किया] जाता है, (व्यवहारसम्यक्त्व साधक और निश्चयसम्यक्त्व साध्य) इस साध्यसाधक भाव को बतलाने के लिए किया गया है । अब जिन जीवों के सम्यग्दर्शन ग्रहण होने से पहले आयु का बन्ध नहीं हुआ है, व्रत के अभाव में भी निन्दनीय नर नारक आदि खोटे स्थानों में उनका जन्म नहीं होता, ऐसा कथन करते हैं । जिनके शुद्ध सम्यग्दर्शन है किन्तु अव्रती हैं वे भी नरकगति, तिर्यंचगति, नपुंसक, स्त्री, नीचकुल, अंगहीन-शरीर, अल्प-आयु और दरिद्रीपने को प्राप्त नहीं होते । इसके आगे मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों का वर्णन करते हैं जो दर्शन से पवित्र हैं वे उत्साह, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और विभव से सहित उत्तम कुल वाले, विपुल धनशाली तथा मनुष्य शिरोमणि होते हैं । प्रकीर्णकदेव, वाहनदेव, किल्विषदेव तथा व्यन्तरभवनवासी-ज्योतिषी तीन नीच देवों के अतिरिक्त महाऋद्धि धारक देवों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं । जिन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण से पूर्व देव आयु को छोड़कर अन्य आयु बाँध ली है, अब उनके प्रति सम्यक्त्व का माहात्म्य कहते हैं- नीचे के ६ नरकों में ज्योतिषी-व्यन्तर-भवनवासी देवों में, सब स्त्रियों में और लब्ध्यपर्याप्तकों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता । नरक अपर्याप्तकों में सासादन सम्यग्दृष्टि नहीं होते । इसी आशय को अन्य प्रकार से कहते हैं -- ज्योतिषी, भवनवासी और व्यन्तर देवों में, नीचे की ६ नरक-पृथिवियों में, तिर्यञ्चों (कर्मभूमि तिर्यञ्च, भोगभूमि तिर्यञ्चनियों में), मनुष्यनियों में तथा देवांगनाओं में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते ॥१॥ औपशमिक, वेदक और क्षायिक नामक तीन सम्यक्त्वों में से किस गति में कौन-सा सम्यक्त्व हो सकता है, सो कहते हैं -- सौधर्म आदि स्वर्गों में, असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्चों में एवं मनुष्यों में और रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में (उपशम, वेदक, क्षायिक) तीनों सम्यक्त्व होते हैं ॥२॥ जिसने आयु बाँध ली है या नहीं बाँधी ऐसे कर्मभूमि-मनुष्यों के तीनों सम्यक्त्व होते हैं । परन्तु अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व महर्द्धिक देवों में ही होता है । शेष देवों व तिर्यञ्चों में और नीचे की छह नरकभूमियों में पर्याप्त जीवों के वेदक और उपशम ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं ॥३॥ इस प्रकार निश्चय-व्यवहार रूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग अवयवी का प्रथम अवयवभूत सम्यग्दर्शन का व्याख्यान करने वाली गाथा समाप्त हुई ॥४१॥ अब रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग के द्वितीय अवयव रूप सम्यग्ज्ञान के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ? उत्तर – जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वो का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। प्रश्न – आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या माना गया है ? उत्तर – सम्यक्दर्शन आत्मा का वास्तविक स्वरूप होता है। प्रश्न – ज्ञान में समीचीनता कैसे आती है ? उत्तर – सम्यक्दर्शन के होने पर सम्पूर्ण ज्ञान समीचीन या सम्यक्ज्ञान बन जाता है। प्रश्न – सम्यक्ज्ञान निर्दोष कैसे बनता है ? उत्तर – १. संशय २. विपर्यय और ३. अनध्यवसाय, ये तीन चीजें जब ज्ञान में नहीं होती हैं तब वह ज्ञान, सम्यग्ज्ञान निर्दोष बनता है। प्रश्न – दुरभिनिवेश किसे कहते हैं ? उत्तर – संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को दुरभिनिवेश कहते हैं। प्रश्न – संशय किसे कहते हैं ? उत्तर – विरुद्ध नाना कोटि के स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। इसके होने पर किसी पदार्थ का निश्चय नहीं हो पाता, क्योंकि इसके होने पर बुद्धि सो जाती है-‘समीचीनतया बुद्धि: शेते यस्मिन् स: संशय:।’ प्रश्न – विपर्यय किसे कहते है ? उत्तर – विपरीत एक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान विपर्यय कहलाता है। जैसे-सीप को चाँदी समझ लेना। प्रश्न – संशय और विपर्यय में क्या अन्तर है ? उत्तर – संशय में सीप है या चाँदी ? ऐसा संशय बना रहता है। निर्णय नहीं हो पाता, परन्तु विपर्यय में एक कोटि का निश्चय होता है। जैसे-सीप को सीप न समझकर चाँदी समझ लेना। प्रश्न – अनध्यवसाय किसे कहते हैं ? उत्तर – अध्यवसाय का अर्थ है निश्चय और इसका न होना अनध्यवसाय कहलाता है। जैसे रास्ते में चलते समय पैरों के नीचे अनेक चीजें आती हैं, पर उनमें से निश्चय किसी एक का भी नहीं हो पाता है, यही ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता है। प्रश्न – ज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप कब होता है ? उत्तर – सम्यग्दर्शन के होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है। प्रश्न – सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप क्यों है ? उत्तर – आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में सम्यग्दर्शन नहीं होता, इसलिए सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप है। |