+ ध्यान का उपाय -
मा मुज्झह मा रज्जह, मा दुस्सह इट्ठणिट्ठअत्थेसु
थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥48॥
यदि कामना है निर्विकल्पक ध्यान में हो चित्त थिर ।
तो मोह-राग-द्वेष इष्टानिष्ट में तुम ना करो ॥४८॥
अन्वयार्थ : [विचित्त-झाणप्पसिद्धीए] अनेक प्रकार के ध्यानों की सिद्धि के लिये [जइ चित्तं] यदि चित्त को [थिरंइच्छहि] स्थिर करना चाहते हो तो [इट्ठणिट्ठअट्ठेसु] इष्ट, अनिष्ट पदार्थों में [मुज्झह मा] मोह मत करो [रज्जह मा] राग मत करो और [दुस्सह मा] द्वेष मत करो ।
Meaning : O bhavya (potential aspirant to liberation), if you wish to concentrate your mind on various kinds of meditation, get rid of delusion, and attachment and aversion in respect of desirable and undesirable objects.

  ब्रह्मदेव सूरि    आर्यिका ज्ञानमती 

ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[मा मुज्झह मा रज्जह मा दुस्सह] समस्त मोह, राग-द्वेष से उत्पन्न विकल्प समूह से रहित निज परमात्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न हुई एक परमानन्दरूप सुखामृत रस से उत्पन्न हुई और उसी परमात्मा के सुख के आस्वाद में लीनरूप जो परम कला अर्थात् परमसंवित्ति (आत्मस्वरूप का अनुभव), उसमें स्थित होकर, हे भव्य जीवो! मोह, राग-द्वेष को मत करो । किनमें मोह-राग-द्वेष मत करो? [इट्ठणिट्ठअट्ठेसु] माला, स्त्री, चन्दन, ताम्बूल आदिरूप इन्द्रियों के इष्ट विषयों में व सर्प, विष, काँटा, शत्रु तथा रोग आदि इन्द्रियों के अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष मत करो, थिरमिच्छहि जइ चित्तं यदि उसी परमात्मा के अनुभव में तुम निश्चल चित्त को चाहते हो । किसलिए स्थिर चित्त को चाहते हो? [विचित्तझाणप्पसिद्धीए] विचित्र अर्थात् अनेक तरह के ध्यान की सिद्धि के लिए । अथवा जहाँ पर चित्त से उत्पन्न होने वाला शुभ-अशुभ विकल्प समूह दूर हो गया है, सो विचित्र ध्यान' है, उस विचित्र ध्यान की सिद्धि के लिए ।
अब प्रथम ही आगमभाषा के अनुसार उसी ध्यान के नानाप्रकार के भेदों का कथन करते हैं- वह इस प्रकार है इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग और रोग इन तीनों को दूर करने में तथा भोगों व भोगों के कारणों में वांछारूप चार प्रकार का आर्तध्यान है (१. इष्ट का वियोग, २. अनिष्ट का संयोग, ३. रोग, इनके होने पर इनके दूर करने की इच्छा करना और ४. भोग निदानों की वांछा करना) । वह आर्तध्यान तरतमता से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से प्रमत्तगुणस्थान तक के जीवों के होता है । वह आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवों के तिर्यञ्चगति के बन्ध का कारण होता है तथापि जिस जीव के सम्यक्त्व से पहले तिर्यञ्च आयु बँध चुकी, उसको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टि के वह आर्तध्यान तिर्यञ्चगति का कारण नहीं है ।
शंका - क्यों नहीं है?
उत्तर - "निज-शुद्ध-आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी भावना के कारण सम्यग्दृष्टि जीवों के तिर्यञ्चगति का कारणरूप संक्लेश नहीं होता ।
अब रौद्रध्यान को कहते हैं । १. रौद्रध्यान-हिंसानन्द (हिंसा करने में आनन्द मानना), २. मृषानन्द (झूठ बोलने में आनन्द मानना), ३. स्तेयानन्द (चोरी करने में प्रसन्न होना), ४. विषयसंरक्षणानन्द (परिग्रह की रक्षा में आनन्द मानना) के भेद से चार प्रकार का है । वह मिथ्यादृष्टि से पंचम गुणस्थान तक के जीवों के तरतमता से होता है । रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीवों के नरकगति का कारण है, तो भी जिस जीव ने सम्यक्त्व से पूर्व नरकायु बाँध ली है उसके अतिरिक्त अन्य सम्यग्दृष्टियों के वह रौद्रध्यान नरकगति का कारण नहीं होता ।
प्रश्न - ऐसा क्यों है?
उत्तर - सम्यग्दृष्टियों के "निजशुद्ध-आत्मतत्त्व ही उपादेय है" इस प्रकार के विशिष्ट भेदज्ञान के बल से नरकगति का कारणभूत तीव्र संक्लेश नहीं होता ।
इसके आगे आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान के त्यागरूप, १. आज्ञाविचय, २. अपायविचय, ३. विपाकविचय और ४. संस्थानविचय इन चार भेद वाला तरतम वृद्धि के क्रम से असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त इन चार गुणस्थान वाले जीवों के होने वाला और प्रधानता से पुण्य-बन्ध का कारण होने पर भी परम्परा से मोक्ष का कारणभूत, ऐसा धर्मध्यान कहा जाता है । वह इस प्रकार है- स्वयं अल्पबुद्धि हो तथा विशेष ज्ञानी गुरु की प्राप्ति न हो तब शुद्ध जीव आदि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर, श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है वह हेतुओं से खण्डित नहीं हो सकता, अतः जो सूक्ष्म तत्त्व है उसको जिनेन्द्रदेव की आज्ञानुसार ग्रहण करना चाहिए क्योंकि श्री जिनेन्द्र अन्यथावादी (झूठा उपदेश देने वाले) नहीं हैं ॥१॥
इस श्लोक के अनुसार पदार्थ का निश्चय करना, आज्ञाविचय प्रथम धर्मध्यान कहलाता है । उसी प्रकार भेद-अभेद-रत्नत्रय की भावना के बल से हमारे अथवा अन्य जीवों के कर्मों का नाश कब होगा, इस प्रकार का चिन्तन अपायविचय दूसरा धर्मध्यान जानना चाहिए । शुद्ध निश्चयनय से यह जीव शुभ-अशुभ कर्मों के उदय से रहित है, फिर भी अनादि कर्म-बन्ध के कारण पाप के उदय से नारक आदि के दुःखरूप फल का अनुभव करता है और पुण्य के उदय से देव आदि के सुखरूप विपाक को भोगता है; इस प्रकार विचार करना सो विपाकविचय तीसरा धर्मध्यान जानना चाहिए । पहले कही हुई लोकानुप्रेक्षा का चिन्तन करना, संस्थानविचय चौथा धर्मध्यान है । इस तरह चार प्रकार का धर्मध्यान होता है ।
अब १.पृथक्त्ववितर्कवीचार, २.एकत्ववितर्क अवीचार, ३.सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति, ऐसे चार प्रकार के शुक्लध्यान को कहते हैं । पृथक्त्व-वितर्कवीचार प्रथम शुक्लध्यान का कथन करते हैं । द्रव्य, गुण और पर्याय के भिन्नपने को 'पृथक्त्व' कहते हैं । निजशुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप भावश्रुत को और निज-शुद्ध-आत्मा को कहने वाले अन्तरजल्परूप वचन को 'वितर्क' कहते हैं । इच्छा बिना ही एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक वचन से दूसरे वचन में, मन-वचन-काय इन तीनों योगों में से किसी एक योग से दूसरे योग में, जो परिणमन (पलटन) है, उसको वीचार कहते हैं । इसका यह अर्थ है- यद्यपि ध्यान करने वाला पुरुष निज-शुद्धआत्मसंवेदन को छोड़कर बाह्य पदार्थों की चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अंशों से स्वरूप में स्थिरता नहीं है उतने अंशों से अनिच्छितवृत्ति से विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यान को पृथक्त्ववितर्कवीचार कहते हैं । यह प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरणउपशमक, अनिवृत्तिकरण-उपशमक, सूक्ष्मसाम्पराय-उपशमक और उपशान्तकषाय, इन (८, ९,१०,११) चार गुणस्थानों में होता है । क्षपक-श्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरणक्षपक, अनिवृत्तिकरणक्षपक और सूक्ष्मसाम्परायक्षपक नामक (८, ९,१०) इन तीन गुणस्थानों में होता है । इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यान का व्याख्यान हुआ ।
निज-शुद्ध-आत्मद्रव्य में या विकार रहित आत्मसुख-अनुभवरूप पर्याय में या उपाधिरहित स्वसंवेदन गुण में, इन तीनों में से जिस एक द्रव्य, गुण या पर्याय में (जो ध्यान) प्रवृत्त हो गया और उसी में वितर्क नामक निजात्मानुभवरूप भावश्रुत के बल से स्थिर होकर अवीचार अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्याय में परावर्तन नहीं करता, वह एकत्ववितर्क अवीचार नामक, क्षीणकषाय (१२) गुणस्थान में होने वाला, दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है । इस दूसरे शुक्लध्यान से ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है । अब सूक्ष्म काय की क्रिया के व्यापाररूप और अप्रतिपाति (कभी न गिरे) ऐसा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान है । वह उपचार से सयोगिकेवलि-जिन (१३वें) गुणस्थान में होता है । विशेषरूप से उपरत अर्थात् दूर हो गई है क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति अर्थात् निवृत्ति न हो (मुक्त न हुआ हो) वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्लध्यान है । वह उपचार से अयोगिकेवलिजिन के (१४ वें गुणस्थान में) होता है । आगम भाषा से नाना प्रकार के ध्यानों का संक्षेप से कथन हुआ ।
अध्यात्म भाषा से, सहज-शुद्ध-परम-चैतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्द का धारी भगवान् निज-आत्मा में उपादेयबुद्धि (निज-शुद्ध आत्मा ही ग्राह्य है) करके, फिर "मैं अनन्त ज्ञानमयी हूँ, मैं अनन्त सुखरूप हूँ' इत्यादि भावनारूप अन्तरंग धर्मध्यान है । पंचपरमेष्ठियों की भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभ अनुष्ठान का करना बहिरंग धर्मध्यान है । उसी प्रकार निजशुद्ध-आत्मा में विकल्परहित समाधिरूप शुक्लध्यान है । अथवा, मन्त्रवाक्यों में स्थित पदस्थध्यान है, निज-आत्मा का चिन्तन पिण्डस्थध्यान है, सर्वचिद्रूप का चिन्तन रूपस्थध्यान है और निरंजन का ध्यान रूपातीत ध्यान है ॥१॥
इस श्लोक में कहे हुए क्रम के अनुसार अनेक प्रकार का ध्यान जानना चाहिए ।
अब ध्यान के प्रतिबन्धक (रोकने वाले) मोह, राग तथा द्वेष का स्वरूप कहते हैं । शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न करने वाला मोह, दर्शनमोह अथवा मिथ्यात्व है । निर्विकार-निज-आत्मानुभवरूप वीतराग चारित्र को ढंकने वाला चारित्रमोह अथवा राग-द्वेष कहलाता है ।
प्रश्न - चारित्रमोह शब्द से राग-द्वेष कैसे कहे गये?
उत्तर - कषायों में क्रोध-मान ये दो द्वेष अंश हैं और माया-लोभ ये दोनों राग अंश हैं । नोकषायों में स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद ये तीन तथा हास्यरति ये दो, ऐसी पाँच नोकषाय राग के अंश; अरति-शोक ये दो, भय तथा जुगुप्सा ये दो, इन चार नोकषायों को द्वेष का अंश जानना चाहिए ।
शिष्य द्वारा प्रश्न - राग-द्वेष आदि, कर्मों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से?
इसका उत्तर - स्त्री और पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान, चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लाल रंग की तरह, राग-द्वेष आदि जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए हैं । नय की विवक्षा के अनुसार, विवक्षित एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से तो राग-द्वेष कर्मजनित कहलाते हैं । अशुद्ध-निश्चयनय से जीवजनित कहलाते हैं । यह अशुद्ध-निश्चयनय, शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय ही है ।
शंका - साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय से ये राग-द्वेष किसके हैं; ऐसा हम पूछते हैं?
समाधान - स्त्री और पुरुष के संयोग बिना पुत्र की अनुत्पत्ति की भाँति और चूना व हल्दी के संयोग बिना लाल रंग की अनुत्पत्ति के समान साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से इन राग-द्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती । इसलिए हम तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ही कैसे देवें । (जैसे पुत्र न केवल स्त्री से ही होता है और न केवल पुरुष से ही होता है किन्तु स्त्री व पुरुष दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है; इसी प्रकार राग-द्वेष आदि न केवल कर्मजनित ही हैं और न केवल जीव-जनित ही है किन्तु जीव और कर्म इन दोनों के संयोगजनित हैं । साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की दृष्टि में जीव और पुद्गल दोनों शुद्ध हैं और इनके संयोग का अभाव है । इसलिए साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति ही नहीं है) । इस प्रकार ध्याता (ध्यान करने वाले) के व्याख्यान की प्रधानता से तथा उसके आश्रय से विचित्र ध्यान के कथन से यह गाथा सूत्र समाप्त हुआ ॥४८॥
अब आगे "मन्त्रवाक्यों में स्थित जो पदस्थ ध्यान" कहा गया है, उसका वर्णन करते हैं --


[मा मुज्झह मा रज्जह मा दुस्सह] समस्त मोह, राग-द्वेष से उत्पन्न विकल्प समूह से रहित निज परमात्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न हुई एक परमानन्दरूप सुखामृत रस से उत्पन्न हुई और उसी परमात्मा के सुख के आस्वाद में लीनरूप जो परम कला अर्थात् परमसंवित्ति (आत्मस्वरूप का अनुभव), उसमें स्थित होकर, हे भव्य जीवो! मोह, राग-द्वेष को मत करो । किनमें मोह-राग-द्वेष मत करो? [इट्ठणिट्ठअट्ठेसु] माला, स्त्री, चन्दन, ताम्बूल आदिरूप इन्द्रियों के इष्ट विषयों में व सर्प, विष, काँटा, शत्रु तथा रोग आदि इन्द्रियों के अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष मत करो, [थिरमिच्छहि जइ चित्तं] यदि उसी परमात्मा के अनुभव में तुम निश्चल चित्त को चाहते हो । किसलिए स्थिर चित्त को चाहते हो? [विचित्तझाणप्पसिद्धीए] विचित्र अर्थात् अनेक तरह के ध्यान की सिद्धि के लिए । अथवा जहाँ पर चित्त से उत्पन्न होने वाला शुभ-अशुभ विकल्प समूह दूर हो गया है, सो विचित्र ध्यान' है, उस विचित्र ध्यान की सिद्धि के लिए ।

अब प्रथम ही आगमभाषा के अनुसार उसी ध्यान के नानाप्रकार के भेदों का कथन करते हैं- वह इस प्रकार है इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग और रोग इन तीनों को दूर करने में तथा भोगों व भोगों के कारणों में वांछारूप चार प्रकार का आर्तध्यान है (१. इष्ट का वियोग, २. अनिष्ट का संयोग, ३. रोग, इनके होने पर इनके दूर करने की इच्छा करना और ४. भोग निदानों की वांछा करना) । वह आर्तध्यान तरतमता से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से प्रमत्तगुणस्थान तक के जीवों के होता है । वह आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवों के तिर्यञ्चगति के बन्ध का कारण होता है तथापि जिस जीव के सम्यक्त्व से पहले तिर्यञ्च आयु बँध चुकी, उसको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टि के वह आर्तध्यान तिर्यञ्चगति का कारण नहीं है ।

शंका – क्यों नहीं है?

उत्तर –
"निज-शुद्ध-आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी भावना के कारण सम्यग्दृष्टि जीवों के तिर्यञ्चगति का कारणरूप संक्लेश नहीं होता ।

अब रौद्रध्यान को कहते हैं । १. रौद्रध्यान-हिंसानन्द (हिंसा करने में आनन्द मानना), २. मृषानन्द (झूठ बोलने में आनन्द मानना), ३. स्तेयानन्द (चोरी करने में प्रसन्न होना), ४. विषयसंरक्षणानन्द (परिग्रह की रक्षा में आनन्द मानना) के भेद से चार प्रकार का है । वह मिथ्यादृष्टि से पंचम गुणस्थान तक के जीवों के तरतमता से होता है । रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीवों के नरकगति का कारण है, तो भी जिस जीव ने सम्यक्त्व से पूर्व नरकायु बाँध ली है उसके अतिरिक्त अन्य सम्यग्दृष्टियों के वह रौद्रध्यान नरकगति का कारण नहीं होता ।

प्रश्न – ऐसा क्यों है?

उत्तर –
सम्यग्दृष्टियों के "निजशुद्ध-आत्मतत्त्व ही उपादेय है" इस प्रकार के विशिष्ट भेदज्ञान के बल से नरकगति का कारणभूत तीव्र संक्लेश नहीं होता ।

इसके आगे आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान के त्यागरूप, १. आज्ञाविचय, २. अपायविचय, ३. विपाकविचय और ४. संस्थानविचय इन चार भेद वाला तरतम वृद्धि के क्रम से असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त इन चार गुणस्थान वाले जीवों के होने वाला और प्रधानता से पुण्य-बन्ध का कारण होने पर भी परम्परा से मोक्ष का कारणभूत, ऐसा धर्मध्यान कहा जाता है । वह इस प्रकार है- स्वयं अल्पबुद्धि हो तथा विशेष ज्ञानी गुरु की प्राप्ति न हो तब शुद्ध जीव आदि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर, श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है वह हेतुओं से खण्डित नहीं हो सकता, अतः जो सूक्ष्म तत्त्व है उसको जिनेन्द्रदेव की आज्ञानुसार ग्रहण करना चाहिए क्योंकि श्री जिनेन्द्र अन्यथावादी (झूठा उपदेश देने वाले) नहीं हैं ॥१॥

इस श्लोक के अनुसार पदार्थ का निश्चय करना, आज्ञाविचय प्रथम धर्मध्यान कहलाता है । उसी प्रकार भेद-अभेद-रत्नत्रय की भावना के बल से हमारे अथवा अन्य जीवों के कर्मों का नाश कब होगा, इस प्रकार का चिन्तन अपायविचय दूसरा धर्मध्यान जानना चाहिए । शुद्ध निश्चयनय से यह जीव शुभ-अशुभ कर्मों के उदय से रहित है, फिर भी अनादि कर्म-बन्ध के कारण पाप के उदय से नारक आदि के दुःखरूप फल का अनुभव करता है और पुण्य के उदय से देव आदि के सुखरूप विपाक को भोगता है; इस प्रकार विचार करना सो विपाकविचय तीसरा धर्मध्यान जानना चाहिए । पहले कही हुई लोकानुप्रेक्षा का चिन्तन करना, संस्थानविचय चौथा धर्मध्यान है । इस तरह चार प्रकार का धर्मध्यान होता है ।

अब १.पृथक्त्ववितर्कवीचार, २.एकत्ववितर्क अवीचार, ३.सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति, ऐसे चार प्रकार के शुक्लध्यान को कहते हैं । पृथक्त्व-वितर्कवीचार प्रथम शुक्लध्यान का कथन करते हैं । द्रव्य, गुण और पर्याय के भिन्नपने को 'पृथक्त्व' कहते हैं । निजशुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप भावश्रुत को और निज-शुद्ध-आत्मा को कहने वाले अन्तरजल्परूप वचन को 'वितर्क' कहते हैं । इच्छा बिना ही एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक वचन से दूसरे वचन में, मन-वचन-काय इन तीनों योगों में से किसी एक योग से दूसरे योग में, जो परिणमन (पलटन) है, उसको वीचार कहते हैं । इसका यह अर्थ है- यद्यपि ध्यान करने वाला पुरुष निज-शुद्धआत्मसंवेदन को छोड़कर बाह्य पदार्थों की चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अंशों से स्वरूप में स्थिरता नहीं है उतने अंशों से अनिच्छितवृत्ति से विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यान को पृथक्त्ववितर्कवीचार कहते हैं । यह प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरण-उपशमक, अनिवृत्तिकरण-उपशमक, सूक्ष्मसाम्पराय-उपशमक और उपशान्तकषाय, इन (८, ९,१०,११) चार गुणस्थानों में होता है । क्षपक-श्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरणक्षपक, अनिवृत्तिकरणक्षपक और सूक्ष्मसाम्परायक्षपक नामक (८, ९,१०) इन तीन गुणस्थानों में होता है । इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यान का व्याख्यान हुआ ।

निज-शुद्ध-आत्मद्रव्य में या विकार रहित आत्मसुख-अनुभवरूप पर्याय में या उपाधिरहित स्वसंवेदन गुण में, इन तीनों में से जिस एक द्रव्य, गुण या पर्याय में (जो ध्यान) प्रवृत्त हो गया और उसी में वितर्क नामक निजात्मानुभवरूप भावश्रुत के बल से स्थिर होकर अवीचार अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्याय में परावर्तन नहीं करता, वह एकत्ववितर्क अवीचार नामक, क्षीणकषाय (१२) गुणस्थान में होने वाला, दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है । इस दूसरे शुक्लध्यान से ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है । अब सूक्ष्म काय की क्रिया के व्यापाररूप और अप्रतिपाति (कभी न गिरे) ऐसा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान है । वह उपचार से सयोगिकेवलि-जिन (१३वें) गुणस्थान में होता है । विशेषरूप से उपरत अर्थात् दूर हो गई है क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति अर्थात् निवृत्ति न हो (मुक्त न हुआ हो) वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्लध्यान है । वह उपचार से अयोगिकेवलिजिन के (१४ वें गुणस्थान में) होता है । आगम भाषा से नाना प्रकार के ध्यानों का संक्षेप से कथन हुआ ।

अध्यात्म भाषा से, सहज-शुद्ध-परम-चैतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्द का धारी भगवान् निज-आत्मा में उपादेयबुद्धि (निज-शुद्ध आत्मा ही ग्राह्य है) करके, फिर "मैं अनन्त ज्ञानमयी हूँ, मैं अनन्त सुखरूप हूँ' इत्यादि भावनारूप अन्तरंग धर्मध्यान है । पंचपरमेष्ठियों की भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभ अनुष्ठान का करना बहिरंग धर्मध्यान है । उसी प्रकार निजशुद्ध-आत्मा में विकल्परहित समाधिरूप शुक्लध्यान है । अथवा, मन्त्रवाक्यों में स्थित पदस्थध्यान है, निज-आत्मा का चिन्तन पिण्डस्थध्यान है, सर्वचिद्रूप का चिन्तन रूपस्थध्यान है और निरंजन का ध्यान रूपातीत ध्यान है ॥१॥

इस श्लोक में कहे हुए क्रम के अनुसार अनेक प्रकार का ध्यान जानना चाहिए ।

अब ध्यान के प्रतिबन्धक (रोकने वाले) मोह, राग तथा द्वेष का स्वरूप कहते हैं । शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न करने वाला मोह, दर्शनमोह अथवा मिथ्यात्व है । निर्विकार-निज-आत्मानुभवरूप वीतराग चारित्र को ढंकने वाला चारित्रमोह अथवा राग-द्वेष कहलाता है ।

प्रश्न – चारित्रमोह शब्द से राग-द्वेष कैसे कहे गये?

उत्तर –
कषायों में क्रोध-मान ये दो द्वेष अंश हैं और माया-लोभ ये दोनों राग अंश हैं । नोकषायों में स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद ये तीन तथा हास्यरति ये दो, ऐसी पाँच नोकषाय राग के अंश; अरति-शोक ये दो, भय तथा जुगुप्सा ये दो, इन चार नोकषायों को द्वेष का अंश जानना चाहिए ।

शिष्य द्वारा प्रश्न – राग-द्वेष आदि, कर्मों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से?

इसका
उत्तर –
स्त्री और पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान, चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लाल रंग की तरह, राग-द्वेष आदि जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए हैं । नय की विवक्षा के अनुसार, विवक्षित एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से तो राग-द्वेष कर्मजनित कहलाते हैं । अशुद्ध-निश्चयनय से जीवजनित कहलाते हैं । यह अशुद्ध-निश्चयनय, शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय ही है ।

शंका – साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय से ये राग-द्वेष किसके हैं; ऐसा हम पूछते हैं?

समाधान –
स्त्री और पुरुष के संयोग बिना पुत्र की अनुत्पत्ति की भाँति और चूना व हल्दी के संयोग बिना लाल रंग की अनुत्पत्ति के समान साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से इन राग-द्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती । इसलिए हम तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ही कैसे देवें । (जैसे पुत्र न केवल स्त्री से ही होता है और न केवल पुरुष से ही होता है किन्तु स्त्री व पुरुष दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है; इसी प्रकार राग-द्वेष आदि न केवल कर्मजनित ही हैं और न केवल जीव-जनित ही है किन्तु जीव और कर्म इन दोनों के संयोगजनित हैं । साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की दृष्टि में जीव और पुद्गल दोनों शुद्ध हैं और इनके संयोग का अभाव है । इसलिए साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति ही नहीं है) । इस प्रकार ध्याता (ध्यान करने वाले) के व्याख्यान की प्रधानता से तथा उसके आश्रय से विचित्र ध्यान के कथन से यह गाथा सूत्र समाप्त हुआ ॥४८॥

अब आगे "मन्त्रवाक्यों में स्थित जो पदस्थ ध्यान" कहा गया है, उसका वर्णन करते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :

मोह, राग और द्वेष इनके निमित्त से मन ही एकाग्रता नहीं हो सकती है इसीलिए इनको हटाना आवश्यक है।

प्रश्न – राग किसे कहते हैं ?

उत्तर –
इष्ट वस्तु में प्रीति को राग कहते हैं।

प्रश्न – द्वेष किसे कहते हैं ?

उत्तर –
अनिष्ट वस्तु में अप्रीति को द्वेष कहते हैं।

प्रश्न – ध्यान के अनेक प्रकार कौन-से हैं ?

उत्तर –
(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ तथा (४) रूपातीत।

प्रश्न – धर्मध्यान में लीन होने का उपाय क्या है ?

उत्तर –
इष्ट, अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना ही ध्यान में लीन होने का उपाय है, क्योंकि सांसारिक पदार्थों में रागद्वेष करने से आत्मा आत्र्त-रौद्र- ध्यान में पंâसकर संसार में भटकती है और रागद्वेष का त्याग कर आत्मस्वभाव में लीन होने से रत्नत्रय के कारणभूत धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है और आत्मा संसार से छूट जाती है।

प्रश्न – णमोकार मंत्र के अक्षरों का ध्यान किस ध्यान में गर्भित होता है ?

उत्तर –
णमोकार मंत्र के अक्षरों का ध्यान पदस्थ ध्यान में गर्भित है।

प्रश्न – ध्यान किस गुण की पर्याय है ?

उत्तर –
ध्यान चारित्र गुण की पर्याय है।



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