+ मंगलाचरण -
येनात्माऽबुध्यतात्मैव परत्वेनैव चापरम्
अक्षयानन्तबोधाय तस्मै सिद्धात्मने नम: ॥1॥
नमूँ सिद्ध परमात्म को, अक्षय बोध स्वरूप
जिन ने आत्मा आत्ममय, पर जाना पररूप ॥१॥
अन्वयार्थ : [येन] जिसके द्वारा [आत्मा] आत्मा, [आत्मा एव] आत्मारूप से ही [अबुद्धयत] जाना गया है [च] और [अपर] अन्य को-कर्मजनित मनुष्यादिपर्यायरूप पुद्गल को [परत्वेन एव] पररूप से ही [अबुद्धयत] जाना गया है, [तस्मै] उस [अक्षयानन्तबोधाय] अविनाशी अनन्तज्ञानस्वरूप [सिद्धात्मने] सिद्धात्मा को [नम:] नमस्कार हो ॥१॥
Meaning : I pay obeisance to the Siddhas (perfected beings), who knew the self to be self, and the non-self to be non-self and who personify indestructible and eternal knowledge.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र : संस्कृत
यहाँ पूर्वार्ध से मोक्ष का उपाय और उत्तरार्ध से मोक्ष का स्वरूप दर्शाया गया है । सिद्धात्मा को, अर्थात् सिद्धपरमेष्ठी को-सिद्ध, अर्थात् सर्व कर्मों से सम्पूर्णपने ( अत्यन्त) मुक्त - ऐसे आत्मा को नमस्कार हो ।
जिन्होंने क्या किया? जाना । किसको? आत्मा को । किस प्रकार (जाना)? आत्मारूप से ही । तात्पर्य यह है कि जिन सिद्धात्माओ ने यहाँ आत्मा को, आत्मारूप ही, अर्थात् अध्यात्मरूप से ही जाना, उसे शारीरिक या कर्मोपादित सुर-नर-नारक-तिर्यंचादि जीव पर्यायादिरूप नहीं जाना तथा (जिन्होंने) अन्य को, अर्थात् शरीरादिक व कर्मजनित मनुष्यादिक जीव पर्यायों को परो क्षरूप से, अर्थात् आत्मा से भिलरूप ही जाना ।
कैसे उन्हें (नमस्कार) अक्षय - अनन्त बोधवाले - अक्षय, अर्थात् अविनश्वर और अनन्तर, अर्थात् देशकाल से अनविछिल - ऐसे समस्त पदार्थों के परिच्छेदक, अर्थात् ज्ञानवाले; उनको ( नमस्कार) - इस प्रकार के ज्ञान, अनन्त दर्शन, सुख, वीर्य के सा थ अविनाभावीपने की सामर्थ्य के कारण, वे अनन्त चतुष्टयरूप हैं - ऐसा बोध होता है ।

शंका - इष्टदेवता विशेष, पच्च परमेष्ठी होने पर भी, यहाँ कथकर्ता ने सिद्धात्मा को ही क्यों नमस्कार किया?
समाधान - कथकर्ता, व्याख्याता, श्रोता और अनुष्ठाताओं को सिद्धस्वरूप की प्राप्ति का प्रयोजन होने से, (उनने वैसा किया है ।) जो जिसकी प्राप्ति का अर्थी होता है वह उसे नमस्कार करता है; जैसे, धनुर्विद्या प्राप्ति का अर्थी, धनुर्वेदी को नमस्कार करता है, वैसे ही । इस कारण सिद्धस्वरूप की प्राप्ति के अ र्थी, समाधिशतक शास्त्र के कर्ता, व्याख्याता, श्रोता और उसके अर्थ के अनुष्ठाता आत्मा विशेष - (ये सभी) सिद्धात्मा को नमस्कार करते हैं ॥१॥


यहाँ पूर्वार्ध से मोक्ष का उपाय और उत्तरार्ध से मोक्ष का स्वरूप दर्शाया गया है । सिद्धात्मा को, अर्थात् सिद्धपरमेष्ठी को-सिद्ध, अर्थात् सर्व कर्मों से सम्पूर्णपने ( अत्यन्त) मुक्त - ऐसे आत्मा को नमस्कार हो ।

जिन्होंने क्या किया? जाना । किसको? आत्मा को । किस प्रकार (जाना)? आत्मारूप से ही । तात्पर्य यह है कि जिन सिद्धात्माओ ने यहाँ आत्मा को, आत्मारूप ही, अर्थात् अध्यात्मरूप से ही जाना, उसे शारीरिक या कर्मोपादित सुर-नर-नारक-तिर्यंचादि जीव पर्यायादिरूप नहीं जाना तथा (जिन्होंने) अन्य को, अर्थात् शरीरादिक व कर्मजनित मनुष्यादिक जीव पर्यायों को परो क्षरूप से, अर्थात् आत्मा से भिलरूप ही जाना ।

कैसे उन्हें (नमस्कार) अक्षय - अनन्त बोधवाले - अक्षय, अर्थात् अविनश्वर और अनन्तर, अर्थात् देशकाल से अनविछिल - ऐसे समस्त पदार्थों के परिच्छेदक, अर्थात् ज्ञानवाले; उनको ( नमस्कार) - इस प्रकार के ज्ञान, अनन्त दर्शन, सुख, वीर्य के सा थ अविनाभावीपने की सामर्थ्य के कारण, वे अनन्त चतुष्टयरूप हैं - ऐसा बोध होता है ।

शंका – इष्टदेवता विशेष, पच्च परमेष्ठी होने पर भी, यहाँ कथकर्ता ने सिद्धात्मा को ही क्यों नमस्कार किया?

समाधान –
कथकर्ता, व्याख्याता, श्रोता और अनुष्ठाताओं को सिद्धस्वरूप की प्राप्ति का प्रयोजन होने से, (उनने वैसा किया है ।) जो जिसकी प्राप्ति का अर्थी होता है वह उसे नमस्कार करता है; जैसे, धनुर्विद्या प्राप्ति का अर्थी, धनुर्वेदी को नमस्कार करता है, वैसे ही । इस कारण सिद्धस्वरूप की प्राप्ति के अ र्थी, समाधिशतक शास्त्र के कर्ता, व्याख्याता, श्रोता और उसके अर्थ के अनुष्ठाता आत्मा विशेष - (ये सभी) सिद्धात्मा को नमस्कार करते हैं ॥१॥