प्रभाचन्द्र : संस्कृत
कतिभेदः पुनरात्मा भवति? येन विविक्तमात्मानमिति विशेष उच्यते। तत्र कुतः कस्योपादानं कस्य वा त्यागः कर्तव्य इत्याशंक्याह -- बहिर्बहिरात्मा, अन्तः अन्तरात्मा, परश्च परमात्मा इति त्रिधा आत्मा त्रिप्रकार आत्मा। क्वा? सर्वदेहिषु सकलप्राणिषु। ननु अभव्येषु बहिरात्मन एव सम्भवात् कथं सर्वदेहिषु त्रिधात्मा स्यात्? इत्यप्यनुपपन्नं, तत्रापि द्रव्यरूपतया त्रिधात्मसद्भावोपपत्तेः कथं पुनस्तत्र पंचज्ञानावरणान्युपपद्यन्ते? केवलज्ञानाद्याविर्भावसामग्री हि तत्र कदापि न भविष्यतित्यभव्यत्वं, न पुनः तद्योग्यद्रव्यस्याभावादिति। भव्यराश्यपेक्षया वा सर्वदेहिग्रहणं। आसन्नदूरदूरतरभव्येषु भव्यसमानअभव्येषु च सर्वेषु त्रिधाऽऽत्मा विद्यत इति। तर्हि सर्वज्ञे परमात्मन एव सद्भावाद्बहिरन्तरात्मनोरभावात्त्रिधात्मनो विरोध इत्यप्ययुक्तम्। भूतपूर्वप्रज्ञापननयापेक्षया तत्र तद्विरोधासिद्धेः धृतघटवत्। यो हि सर्वज्ञावस्थायां परमात्मा सम्पन्नः स पूर्वबहिरात्मा अन्तरात्मा चासीदिति। घृतघटवदन्तरात्मनोऽपि बहिरात्मत्वं परमात्मत्वं च भूतभाविप्रज्ञापन–नयापेक्षया द्रष्टव्यम्। तत्र कुतः कस्योपादानं कस्य वात्यागः कर्तव्य इत्याह–उपेयादिति। तत्र तेषु त्रिधात्मसु मध्ये उपेयात् स्वीकुर्यात्। परमं परमात्मानं। कस्मात्? मध्योपायात् मध्योऽन्तरात्मा स एवोपायस्तस्मात्। तथा बहिः बहिरात्मानं मध्योपायादेव त्यजेत् ॥४॥ बहि: अर्थात् बहिरात्मा, अंत: अर्थात् अन्तरात्मा, और पर: अर्थात् परमात्मा - इस प्रकार त्रिधा, अर्थात् तीन प्रकार का आत्मा है । ये (प्रकार- भेद) किसमें हैं ? सर्व देहियों में - समस्त प्राणियों में । शंका – अभव्यों में बहिरात्मपना ही सम्भव होने से, सर्व देहियों (प्राणियों) में तीन प्रकार का आत्मा है - ऐसा किस प्रकार हो सकता है? समाधान – ऐसा कहना भी योग्य नहीं, क्योंकि वहाँ भी (अभव्य में भी) द्रव्यरूपपने से, तीनों प्रकार के आत्मा का सद्भाव घटित होता है । शंका – वहाँ पाँच ज्ञानावरण (कर्मों) की उपपत्ति किस प्रकार घट सकती है? समाधान – केवलज्ञानादि के प्रगट होनेरूप सामग्री ही उसके होनी नहीं है इस कारण उसमें अभव्यपना है; न कि तद्योग्य द्रव्य के अभाव से (अभव्यपना है) अथवा भव्यराशि की अपेक्षा से सर्व देहियों का ग्रहण समझना । आसन्न भव्य, दूर भव्य, दूरतर भव्य तथा अभव्य जैसे भव्यों में -- सर्व में तीन प्रकार का आत्मा है । शंका – तो सर्वज्ञ में परमात्मा का ही सद्भाव होने से और (उनमें) बहिरात्मा तथा अन्तरात्मा का असद्भाव होने से, उसमें (सिद्ध में) तीन प्रकार के आत्मा का विरोध आयेगा? समाधान – ऐसा कहना भी योग्य नहीं है क्योंकि भूतपूर्व प्रज्ञापन-नय की अपेक्षा से, उनमें घृतघटवत् उस विरोध की असिद्धि है (उसमें विरोध नहीं आता) । जो सर्वज्ञ अवस्था में परमात्मा हुए वे भी पूर्व में बहिरात्मा तथा अन्तरात्मा थे । घृतघट की तरह भूत- भावी प्रज्ञापननय की अपेक्षा से अन्तरात्मा को भी बहिरात्मपना और परमात्मपना समझना । इन तीनों में से किसका, किस द्वारा ग्रहण करना या किसका त्याग करना? वह कहते हैं । ग्रहण करना, अर्थात् उसमें उन तीन प्रकार के आत्माओं में से, परमात्मपने का स्वीकार (ग्रहण) करना । किस प्रकार ? मध्य उपाय से मध्य, अर्थात् अन्तरात्मा, वही उपाय है; उस द्वारा (परमात्मा का ग्रहण करना) तथा मध्य (अन्तरात्मारूप) उपाय से ही, बहिरात्मपने का त्याग करना ॥ ४॥ वहाँ बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - प्रत्येक का स्वरूप कहते हैं : - |