प्रभाचन्द्र : संस्कृत
इदानीं बहिरात्मनो देहस्यात्मत्वेनाध्यवसाये कारणमुपदर्शयन्नाह-- इन्द्रियद्वारैरिन्द्रियमुखैः कृत्वा स्फुरितो बहिरर्थग्रहणे व्यापृतः सन् बहिरात्मा मूढात्मा। आत्मज्ञानपराड्मुखो जीवस्वरूपज्ञानाद्वहिर्भूतो भवति। तथाभूतश्च सन्नसौ किं करोति? स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति आत्मीयशरीरमेवाहमिति प्रतिपद्यते ॥७॥ इन्द्रियोरूप द्वारों से अर्थात् इन्द्रियोरूप मुख से बाहर के पदार्थों के ग्रहण में रुका हुआ होने से, वह बहिरात्मा-मूढ़ात्मा है । वह आत्मज्ञान से पराङ्गमुख अर्थात् जीवस्वरूप के ज्ञान से बहिर्भूत है । वैसा होता हुआ वह (बहिरात्मा) क्या करता है? अपनी देह को आत्मारूप मानता है, अर्थात् अपना शरीर, वही 'मैं हूँ' - ऐसी मिथ्या मान्यता करता है ॥७॥ और उसका प्रतिपादन करके मनुष्यादि चतुर्गति सम्बन्धी चार भेद से जीव-भेद का उसमें प्रतिपादन कराते हैं -- |