
प्रभाचन्द्र :
राग-द्वेषादि, ये ही कल्लोल (तरङ्गें) हैं, उनसे अलोल-अचञ्चल-अकलुष जिसका मनरूपी जल है (मन, वही जल-वही मनोजल, जिसका मनोजल है) वह आत्मा, आत्मा के तत्त्व (परमात्मस्वरूप) को देखता है (अनुभवता है), (उस तत्त्व को) वह, अर्थात् आत्मदर्शी, तत्त्व को, अर्थात् परमात्म-स्वरूप को अनुभवता है; अन्य कोई जन, अर्थात् रागादि-परिणत अन्य (अनात्मदर्शी) जन, तत्त्व का अनुभव नहीं कर सकता ॥३५॥ फिर तत्त्व शब्द से क्या कहना चाहते हैं? - वह कहते हैं : - |