
प्रभाचन्द्र :
दृश्यमान (देखने में आते हुए) शरीरादिक को । कैसे (शरीरादिक को) ? त्रिलिङ्गरूप -- स्त्री-पुरुष-नपुंसक - ये तीन लिङ्ग जिसके हैं, वैसे त्रिलिङ्गस्वरूप दिखते (शरीरादिक को) । मूढ़ (बहिरात्मा), दृश्यमान (शरीरादिक के) साथ अभेदरूप (एकरूप) की मान्यता के कारण, इस आत्म-तत्त्व को त्रिलिङ्गरूप मानता है; परन्तु जो ज्ञानी अन्तरात्मा है, वह यह 'आत्मतत्त्व है, सो त्रिलिङ्गरूप नहीं' - ऐसा मानता है, क्योंकि शरीरधर्मपने के कारण, उनका (त्रिलिङ्गपने का) आत्म-स्वरूपपने में अभाव है । वह आत्म-स्वरूप कैसा है? वह निष्पन्न अर्थात् अनादि-संसिद्ध है तथा शब्दवर्जित, अर्थात् नामादि विकल्पों से अगोचर है ॥४४॥ यदि अन्तरात्मा ही आत्मा का अनुभव करता है तो फिर 'मैं पुरुष, मैं गोरा' - इत्यादि अभेदरूप भ्रान्ति उसको कदाचित् क्यों होती है? - ऐसा बोलनेवाले के प्रति कहते हैं :- |