+ अन्तरात्मा के स्व-पर उपकारादिक में अनासक्तता -
आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्
कुर्यादर्थवशात्किञ्चिद्वाक्कायाभ्यामतत्पर: ॥50॥
आत्मज्ञान से भिन्न कार्य कुछ, मन में थिर नहीं होय ।
कारणवश यदि कुछ करे, अनासक्ति वहां जोय ॥५०॥
अन्वयार्थ : अन्तरात्मा को चाहिए कि वह [आत्मज्ञानात्परं] आत्मज्ञान से भिन्न, दूसरे [कार्यं] कार्य को [चिर] अधिक समय तक [बुद्धौ] अपनी बुद्धि में [न धारयेत्] धारण नहीं करे । यदि [अर्थवशात्] स्व-पर के उपकारादिरूप प्रयोजन के वश [वाक्कायाभ्यां] वचन और काय से [किंचित् कुर्यात्] कुछ करना ही पडे तो उसे [अतत्पर] अनासक्त होकर [कुर्यात्] करे ।
Meaning : Do not pay attention to any task which distracts you from self-realisation. Only under dire necessity should one indulge in dealings with the external world, and that too, only through acts of speech and body.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

चिरकालतक अर्थात् बहुत लम्बे काल तक बुद्धि में धारण नहीं करता । क्या वह? कार्य । कैसा (कार्य)? पर अर्थात् अन्य । किससे (अन्य)? आत्मज्ञान से (अन्य) । आत्मज्ञानरूप कार्य को ही लम्बे काल तक धारण रखता है -- ऐसा अर्थ है; परन्तु अन्य किंचित् अर्थात् भोजन, व्याख्यानादिरूप कार्य को वचन-काय द्वारा करे । किससे ? प्रयोजनवश अर्थात् स्व-पर के उपकाररूप प्रयोजनवश (करे) । कैसा होकर (वह करे)? अतत्पर होकर अर्थात् उसमें अनासक्त होकर करे ॥५०॥

अनासक्त (अन्तरात्मा) आत्मज्ञान को ही बुद्धि में धारण करता है; शरीरादि को नहीं -- ऐसा कैसे होता है? वह कहते हैं :--