
प्रभाचन्द्र :
मैं गोरा हूँ, मैं स्थूल (मोटा) हूँ अथवा मैं कृश (पतला) हूँ -- इसप्रकार से शरीर द्वारा आत्मा को, विशेषरूप, अर्थात् विशिष्टरूप नहीं मानकर, (उसे) धारना, अर्थात् चित्त में उसको नित्य - सर्वदा अविचलरूप भाना । कैसे (आत्मा को) ? केवलज्ञान विग्रहरूप, अर्थात् केवलज्ञानस्वरूप, अर्थात् केवलरूपादिरहित ज्ञप्ति ही - उपयोग ही जिसका विग्रह, अर्थात् स्वरूप है, वैसे आत्मा को (चित्त में धारना) ॥७०॥ जो इस प्रकार के आत्मा की एकाग्र मन से भावना करता है, उसको ही मुक्ति होती है; अन्य किसी को नहीं - यह कहते हैं -- |