
प्रभाचन्द्र :
जहाँ ही, अर्थात् जिस विषय में ही बुद्धि लगती है, अर्थात् बुद्धि दत्तावधानरूप (लग्न) होती है - 'यत्रात्महितधीरिति' - ऐसा भी पाठ है । (उसका अर्थ यह है कि) जहाँ आत्महित की बुद्धि है, अर्थात् जहाँ आत्मा का हित - उपकार होता है, अर्थात् जहाँ 'वह हितकर-उपकारक है' - ऐसी बुद्धि होती है, वहाँ 'धी', अर्थात् बुद्धि (लगती है) । किसकी? पुरुष की । उसकी श्रद्धा-रुचि वहाँ ही, अर्थात् उस विषय में ही उत्पन्न होती है । जहाँ ही श्रद्धा उत्पन्न होती है, वहाँ ही चित्त लीन होता है- आसक्त होता है ॥९५॥ फिर चित्त कहाँ अनासक्त होता है, वह कहते हैं -- |