आशाधरजी : संस्कृत
अन्वय - व्रतै: देवं पदं वरम्, बत अव्रतै: नारकं पदं न वरम् प्रतिपालयतो: छायातपस्थयो महान् भेद: (अस्ति) । टीका - वरं भवतु । किं तत् ? पदं स्थानम् । किंविशिष्टं, दैवं देवानामिदं दैवं स्वर्ग: । कैर्हेतुभितैर्व्रतादिविषयरागजनितपुण्यै:, तेषां स्वर्गादिपदाभ्युदयनिबन्धनत्वेन सकलजनसुप्रसिद्धत्वात् । तर्ह्राव तान्यपि तथा विधानि भविष्यन्तीत्याशडक्याह- नेत्यादि । न वरं भवति । किं तत् ? पदं । किंविशिष्टं, नारकं नरकसंबन्धि । कै:, अव्रतै: हिंसादिपरिणाम जनितपातकै: । बतेति खेदे कष्टे वा । तर्हि व्रताव्रतनिमित्तयोरपि देवनारकपक्षयो: साम्यं भविष्यतीत्याशकायां तयोर्महदन्तरमिति दृष्टान्तेन प्रकटयन्नाह- छायेत्वादि । भवति । कोडसौ ? भेद: अन्तरं । किंविशिष्टो, महान् बृहन् । कयो: पथिकयो: । किं कुर्वतो:, स्वकार्यवशान्नगरान्तर्गतं तृतीयं स्वसार्थिकमागच्छन्तं पथि प्रतिपालयतो: प्रतीक्षमाणयो: । किंविशिष्टयो: सतोश्छायातपस्थयो: । छाया च आतपश्च दु:खेन तिष्ठति, तथा येन व्रतानि कृतानि स आत्म जीव: सुद्रव्यादयो मुक्तिहेतवो यावत्संपद्यन्ते तावत्वरर्गादिपदेषु सुखेन तिष्ठति अन्यश्च नरकादिपदेषु दु:खनेति ॥३॥ अथ विनेय: पुरनाशंगते-एवमात्मनि भक्तिरयुक्ता स्यादिति भगवन्नैवं चिरभाविमोक्षसुखस्य व्रतसाध्ये संसार सुखे सिद्धे सत्यात्मनि चिद्र्रपे भक्तिर्भावविश्रुध आन्तरोअनुरागो अयुक्ता अनुपपन्ना स्याद्रवेत् तस्साध्यस्य मोक्ष- सुखस्य सुद्रव्यादिसंपत्यपेक्षया दूरवर्तित्वादवान्तरप्राप्यस्य च स्वर्गादिसुखस्य वतैकसाध्यत्वात् । अत्राप्याचार्य: समाधत्ते- तदपि नेति । न केवलं व्रतादीनामानर्थवयं भवेत् । कि तर्हि, तदप्यात्मभवत्यनुप पत्तिप्रकाशनमपि त्वया क्रियमाणं न साधु स्यादित्यर्थ: । यत: - अपने कार्य के वश से नगर के भीतर गये हुए तथा वहाँ से वापिस आनेवाले अपने तीसरे साथी की मार्ग में प्रतीक्षा करनेवाले-जिनमें से एक तो छाया में बैठा हुआ है और दूसरा धूप में बैठा हुआ है - दो व्यक्तियों में जैसे बड़ा भारी अन्तर है, अर्थात् छाया में बैठनेवाला तीसरे पुरुष के आने तक सुख से बैठा रहता है और धूप में बैठनेवाला दु:ख के साथ समय व्यतीत करता रहता है । उसी तरह जब तक जीव को मुक्ति के कारणभूत अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव आदिक प्राप्त होते हैं, तब तक व्रतादिकों का आचरण करनेवाला स्वर्गादिक स्थानों में आनंद के साथ रहता है, दूसरा व्रतादिकोंको न पालता हुआ असंयमी पुरुष नरकादिक स्थानों में दु:ख भोगता रहता है । अत: व्रतादिकों का परिपालन निरर्थक नहीं, अपितु सार्थक है । शंका – यहाँ पर शिष्य पुन: प्रश्न करता हुआ कहता है -- 'यदि उपरिलिखित कथन को मान्य किया जायगा, तो चिद्रूप आत्मा में भक्तिभाव (विशुद्ध अंतरंग अनुराग) करना अयुक्त ही हो जायगा ? कारण कि आत्मनुराग से होनवाला मोक्षरूपी सुख तो योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिरूप सम्पत्ति की प्राप्ति की अपेक्षा रखने के कारण बहुत दूर हो जायगा और बीच में ही मिलने-वाला स्वर्गादि-सुख व्रतों के सहाय से मिल जायगा । तब फिर आत्मानुराग करने से क्या लाभ ? अर्थात् सुखार्थी साधारण जन आत्मानुराग की ओर आकर्षित न होते हुए व्रतादिकों की ओर ही अधिक झुक जायेंगे । समाधान – शंका का निराकरण करते हुए आचार्य बोले, -- 'व्रतादिकों का आचरण करना निरर्थक नहीं है ।' (अर्थात् सार्थक है), इतनी ही बात नहीं, किन्तु आत्म-भक्ति को अयुक्त बतलाना भी ठीक नहीं है । इसी कथन की पुष्टि करते हुए आगे श्लोक लिखते हैं -- |