आशाधरजी : संस्कृत
अन्वय - नाके नाकौकसां ह्रषीकजं अनातंगकं दीर्घकालोपलालितं सौख्यं नाके नाकौकसामिव (भवति) । टीका - वत्स अस्ति । किं तत्, सौख्यं शर्म । केषां, नाकौकसां देवानां न पुन: स्वर्गेअपि जाताना मेकेन्द्रियाणाम् । वव वसतां, नाके स्वर्गे । न पुन: क्रीडादिवशाद्मणीयपर्वतादौ । किमतोन्द्रियं तत्, नेत्याह ह्रषीकजं ह्रपीकेभ्य: समीहितानन्तरमुपस्थितं निजं निजं विषयमनुभवद्रय: स्पर्शनादीन्द्रियेभ्य: सर्वांगीणा ह्रदनाकारतया प्रादुर्भूतं । तथा राज्यादिसुखतवत् सातंग भविष्यतीत्याशंकापनोदार्थमाह-अनातंग, न विद्यते आतंक: प्रतिपक्षादिकृतश्चितक्षोभो यत्र । तथापि भोगभूमिजसुखवदल्पकालभोग्यं भविष्यतीत्याशंकायामाह- दीर्घकालोपलालितं दीर्घकालं सागरोपममपरिच्छिन्नकां: यावदुपललितमाज्ञाविधेय देवदेवीस्वविलासिनीमि: क्रियमाणोपचारत्वा दुष्कर्म प्रापितम् । तर्हि क्व केषामिव तदिन्याह- नाके नाकौकसामिव स्वर्गे देवानां यथा, अनन्योपममित्यर्थ: ॥५॥ अत्र शिष्य: प्रत्यवतिष्ठते-यदि स्वर्गेअपि सुखमुत्कृष्टं किमपवर्गप्रार्थनयेति । भगवन् यदि स्वर्गअपि न केवलमपवर्गे सुखमस्ति । कीदृशम् ? उत्कृष्टं मर्त्यादिसुखातिशायि तर्हि कि कार्य कया, अपवर्गस्य मोक्षस्य प्रार्थनया अपवर्गो मे भूयादित्यभिलाषेण एवं च संसारसुखे एव निर्बन्ध कुर्वन्तं प्रबोध्यं तत्सुखदु:खस्य भ्रान्तत्वप्रकाशनाय आचार्य: प्रबोधयति- हे बालक ! स्वर्ग में निवास करनेवालों को, न कि स्वर्ग में पैदा होनेवाले एकेन्द्रियादि जीवों को । स्वर्ग में, न कि क्रीडादिक के वश से रमणीक पर्वतादिक में ऐसा सुख होता है, जो चाहने के अनन्तर ही अपने विषय को अनुभव करनेवाली स्पर्शनादिक इन्द्रियों से सर्वांगीण हर्ष के रूप में उत्पन्न हो जाता है, तथा जो आतंक (शत्रु आदिकों के द्वारा किये गये चित्तक्षोभ) से भी रहित होता है, अर्थात् वह सुख राज्यादिक के सुख के समान आतंक सहित नहीं होता है । वह सुख भोगभूमि में उत्पन्न हुए सुख की तरह थोड़े काल-पर्यन्त भोगने में आनेवाला भी नहीं है । वह तो भोगभूमि में उत्पन्न हुए सुख की तरह थोड़े काल-पर्यन्त भोगने में आनेवाला भी नहीं है । वह तो उल्टा, सागरोपम काल तक, आज्ञामें रहनेवाले देव-देवियों के द्वारा की गई सेवाओं से समय समय पर बढ़ा चढ़ा है पाया जाता है । 'स्वर्ग में निवास करनेवाले प्राणियों का (देवों का) सुख स्वर्गवासी देवों के समान ही हुआ करता है ।' इस प्रकार से कहने या वर्णन करने का प्रयोजन यही है कि वह सुख अनन्योपम है । अर्थात् उसकी उपमा किसी दूसरे को नहीं दी जा सकती है । लोक में भी जब किसी चीज की अति हो जाती है, तो उसके द्योतन करने के लिए ऐसा ही कथन किया जाता है, जैसे 'भैया ! राम रावण का युद्ध तो राम रावण के युद्ध समान ही था । रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव ।' अर्थात् इस पंक्ति में युद्ध सम्बन्धी भयंकारता की पराकाष्ठा को जैसा द्योतित किया गया है, ऐसा ही सुख के विषय में समझना चाहिये ॥५॥ शंका- इस समाधान को सुन शिष्य को पुन: शंका हुई और वह कहने लगा- 'भगवन् ! न केवल मोक्ष में, किन्तु यदि स्वर्ग में भी, मनुष्यादिकों से बढ़कर उत्कृष्ट सुख पाया जाता है, तो फिर 'मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो जावे' इस प्रकार की प्रार्थना करने से क्या लाभ ?' संसार सम्बन्धी सुख में ही सुख का आग्रह करनेवाले शिष्य को 'संसार सम्बन्धी सुख और दु:ख भ्रान्त है ।' यह बात बतलाने के लिये आचार्य आगे लिखा हुआ श्लोक कहते है – |